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दूसरों का इलाज करने वाले डॉक्टर खुद तनाव में, कैंसर स्पेशलिस्ट ने बताया 'वो' कड़वा सच
बिज़नेस वर्ल्ड ने ‘डॉक्टर्स डे’ के मौके पर दिल्ली के मशहूर कैंसर स्पेशलिस्ट डॉक्टर अंशुमान कुमार से बात और समझने का प्रयास किया कि डॉक्टरों को किस प्रकार का तनाव सबसे ज्यादा रहता है.
बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago
यूं तो हर प्रोफेशन के अपने चैलेंज होते हैं, लेकिन जब बात मेडिकल फील्ड, खासकर डॉक्टर्स की आती है, तो ये चैलेंज कई गुना बढ़ जाते हैं. डॉक्टरों को हर रोज छोटे-बड़े कई मरीजों को देखना होता है, हालांकि उनका काम यहीं खत्म नहीं होता. मेडिकल फील्ड में बढ़ते कॉर्पोरेट कल्चर ने डॉक्टरों के काम में न केवल कई गुना इजाफा किया है, बल्कि उन्हें ज़रूरत से ज्यादा मल्टी टास्किंग के लिए विवश भी किया है. ऐसे में डॉक्टर्स भी कभी न कभी तनाव यानी स्ट्रेस की चपेट में आ ही जाते हैं. बिज़नेस वर्ल्ड ने ‘डॉक्टर्स डे’ के मौके पर दिल्ली के मशहूर कैंसर स्पेशलिस्ट डॉक्टर अंशुमान कुमार से बात और समझने का प्रयास किया कि डॉक्टरों को किस प्रकार का तनाव सबसे ज्यादा रहता है और इसे कैसे दूर किया जा सकता है.
काल्पनिक दुनिया में जीते हैं
रिजर्वेशन से तनाव
दूसरा स्ट्रेस का फैक्टर है रिजर्वेशन. मेडिकल प्रोफेशन मानव जीवन से जुड़ा प्रोफेशन है, लिहाजा इसमें रिजर्वेशन नहीं होना चाहिए. जैसे डिफेंस, DRDO में नहीं है, वैसे ही यहां भी आरक्षण नहीं होना चाहिए. अच्छे नंबर्स से पास होने वाले युवाओं को PG की सीट नहीं मिलती है, क्योंकि PG में भी रिजर्वेशन लागू कर दिया गया है. MBBS में तो पहले ही था, PG में भी लागू कर दिया है. सीट नहीं मिलने से वो स्ट्रेस में आ जाते हैं, जो कभी-कभी लंबे समय तक कायम रहता है, यह निश्चित तौर पर उनकी प्रोडक्टिविटी को प्रभावित करता है. इसके अलावा, हमारे यहां डॉक्टरों के लिए सुविधाओं की भी कमी है, जिसकी वजह से युवा डॉक्टर विदेशों का रुख करते हैं, नतीजतन बाकी डॉक्टर खुद ब खुद तनाव में घिर जाते हैं.
अलग-अलग वर्क प्रेशर
कुमार के मुताबिक, डॉक्टरों पर वर्क प्रेशर काफी ज्यादा है. हालांकि, सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में इस प्रेशर के अपने अलग मायने हैं. उदाहरण के तौर पर, सरकारी में डॉक्टर कम हैं और मरीज ज्यादा यानी काम का हद से ज्यादा लोड. ऊपर से अब ठेके पर डॉक्टर रखे जा रहे हैं. ऐसे में डॉक्टर को अपना भविष्य अनिश्चित नज़र आता है. दूसरे शब्दों में कहें तो काम का बोझ और भविष्य को लेकर अनिश्चितता तनाव को जन्म देती है. जबकि प्राइवेट में कॉर्पोरेट हेल्थ केयर के नाम पर इन्वेस्टर आने लगे हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य है बिज़नेस. यहां डॉक्टरों को टारगेट दिया जाता है.
क्या किया जाना चाहिए?
अंशुमान कुमार का यह भी कहना है कि मेडिकल के सिलेबस में दर्शनशास्त्र को शामिल किया जाना चाहिए. डॉक्टरों यदि भारत में प्रैक्टिस करनी है, तो दर्शनशास्त्र को समझना चाहिए. इससे डॉक्टर थोड़े आध्यात्मिक बनेंगे. यहां आध्यात्मिक का मतलब पूजा-पाठ से नहीं है, बल्कि इससे उनकी सोच सकारात्मक होगी, उनमें पॉजिटिविटी आएगी. नतीजतन वह स्ट्रेस फ्री रह सकेंगे और जब तनाव से उनका सामना होगा, तो उसे बेहतर ढंग से संभाल भी सकेंगे. कुमार का यह भी कहना है कि सरकार की कमजोरी की वजह से ही मेडिकल फील्ड में कॉर्पोरेट हाउस पनप रहे हैं. इन पर लगाम लगाना ज़रूरी है. साथ ही सरकारी क्षेत्र में डॉक्टरों को अच्छी सुविधाएं भी मुहैया कराई जानी चाहिए, ताकि उनका पलायन रुक सके. डॉक्टरों को यह चाहिए कि वो बिज़नेस हाउस से सैलरी न लें, बल्कि काम के हिसाब से पैसा लें, इससे उन्हें गलत काम करने को मजबूर नहीं होना पड़ेगा और तनाव भी नहीं होगा.
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