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Kota Suicides: नौजवानों की सोच को आकार देने में भारतीय मीडिया की अहम भूमिका!

भारतीय प्रेस परिषद ने WHO द्वारा दिए गए सुझावों के अनुरूप आत्महत्या पर रिपोर्टिंग के लिए गाइडलाइन्स को अपनाया था.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 8 months ago

Dr. Srinath Sridharan - Author, Policy Researcher & Corporate Advisor.

हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहां ज्यादा से ज्यादा लोग आगे बढ़ना चाहते हैं और सफल होना चाहते हैं. लोगों के सफल होने की आकांक्षाओं के साथ-साथ आगे बढ़ने के मौके और सपने सीमित भी हैं और इनमें बहुत ज्यादा मुकाबला भी देखने को मिलता है. इसी बीच कोटा में जारी आत्महत्या की श्रृंखला ने हम सभी को चौंका कर रख दिया है. इन नौजवानों पर मौजूद दबाव, परिवार की उम्मीदों और कोचिंग संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका की बदौलत एक ऐसा परिदृश्य तैयार हुआ है जो पूरी तरह अनिश्चितताओं से भरा हुआ है. इन आत्महत्याओं के परिदृश्य की न्यूज कवरेज के दौरान मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में अपनी जिम्मेदारी को पूरा कर सकता है. यह पूरी तरह स्पष्ट है कि भारत में आत्महत्याओं की रिपोर्टिंग उस स्तर की नहीं  है जिस स्तर पर उसे होना चाहिए, जबकि इसका प्रभाव पूर्ण रूप से मौजूद है. 

मीडिया निभाए अपनी जिम्मेदारी
सितंबर 2019 में भारतीय प्रेस परिषद ने न्यायधीश CK प्रसाद की अध्यक्षता में WHO द्वारा दिए गए सुझावों के अनुरूप आत्महत्याओं पर रिपोर्टिंग करने के लिए गाइडलाइन्स को अपनाया था. इन गाइडलाइन्स में साफ तौर पर कहा गया है कि जब भी कोई न्यूज एजेंसी या फिर अखबार आत्महत्या पर रिपोर्टिंग कर रहे होते हैं तो उन्हें विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए. साथ ही गाइडलाइन्स में यह भी कहा गया है कि न्यूज एजेंसियों और अखबारों को आत्महत्या के मामलों को प्रमुखता नहीं देनी चाहिए और न ही उन्हें बार-बार दोहराया जाना चाहिए. ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए जो आत्महत्या के मामलों को सनसनीखेज बनाए या फिर उन्हें सामान्य दिखाए. न ही ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए जिनकी बदौलत लोग आत्महत्या को समस्याओं के समाधान के रूप में देखने लगें. आत्महत्या में इस्स्तेमाल किए गए तरीकों और आत्महत्या की जगह व अन्य जानकारी को साझा नहीं करना चाहिए. इतना ही नही, आत्महत्या के मामलों में सनसनीखेज हैडलाइन का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. साथ ही, आत्महत्या के मामले से जुड़ी तस्वीरें, विडियो फुटेज और सोशल मीडिया लिंक पर रोक लगानी चाहिए. इन गाइडलाइन्स का बस एक ही मकसद है कि आत्महत्या के मामलों पर जिम्मेदार और संवेदनशील रिपोर्टिंग की जाए. 

विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस
हर साल 10 सितंबर को विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाया जाता है और यह इस बात पर जोर देता है कि हमें एक साथ मिलकर कोशिश करनी चाहिए कि हम अपने बीच से आत्महत्या की इस समस्या को दूर कर सकें. इस वक्त हमें जरूरत है कि हम एक साथ खड़े होकर करुणा और समझदारी को बढ़ावा दें, और बिना थके साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया बनाएं जहां हर जिंदगी की कीमत को समझा जाए और हर व्यक्ति मुश्किल के समय में किसी का साथ ढूंढ सके. 

रिपोर्टिंग के वक्त मीडिया रखे ध्यान
हमारी सोसायटी में मीडिया प्रिंट, वेब, डिजिटल और सोशल जैसे अपने सभी रूपों में काफी शक्तिशाली रूप से मौजूद है. यह वह आइना है जो न सिर्फ हमारी दुनिया में होने वाली घटनाओं को दर्शाता है बल्कि जनता की राय भी बनाता है. जब छात्र आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दों की बात आती है तो मीडिया की जिम्मेदारी और बड़ी हो जाती है. आत्महत्या से संबंधित मुद्दों की रिपोर्टिंग करते हुए मीडिया को बहुत ज्यादा ध्यान रखना चाहिए और सहानुभूति का भी ध्यान रखना चाहिए. सबसे पहले तो इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हर हैडलाइन और आंकड़े के पीछे असली जिंदगियां, परिवार और समुदाय मौजूद हैं और इन आत्महत्याओं की रिपोर्टिंग से इन सभी पर असर पड़ता है. इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को सनसनीखेज बनाने से न सिर्फ मामले से जुड़े लोगों की निजता और गरिमा का हनन होता है बल्कि यह समस्या को अविरत बनाता है और इस संस्कृति को बढ़ावा भी देता है.

मीडिया का योगदान है जरूरी
इसके साथ ही आपको बता दें कि सिस्टम से जुडी उन समस्याओं को संबोधित करने में भी मीडिया काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिनकी बदौलत ऐसी दुर्घटनाएं होती हैं. मीडिया ऐसी समस्याओं पर निगरानी रख सकता है और सिस्टम में, खासकर इस समस्या से संबंधित मौजूद कमियों को सामने लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. इस समस्या की गहराई में उतरकर एक संतुलित कवरेज प्रदान करते हुए मीडिया आवश्यक बातचीत और बदलावों में महत्त्वपूर्ण योगदान भी कर सकता है.

दिखानी चाहिए सफलता की कहानियां
आत्महत्या कोई ऐसी घटना नहीं है जिसे टाला नहीं जा सकता है. आत्महत्या को किसी द्वारा किए गए जुर्म की तरह नहीं बल्कि मानसिक समस्या के रूप में देखना चाहिए. सामाजिक दबाव, पढ़ाई का दबाव, और मानसिक हेल्थ के लिए मदद मिलने जैसे विभिन्न दबाव की जड़ों तक पहुंच कर मीडिया ज्यादा सूक्ष्म समझदारी में योगदान प्रदान कर सकता है. ऐसे लोगों की सफलता की कहानियां दिखाई जानी चाहिए जिन्होंने मानसिक स्वास्थ्य के चुनौतियों का मुकाबला किया है और जीतकर सामने आए हैं. मीडिया के पास ताकत है कि वह हमारे समाज के लिए उम्मीद और सच्चाई का ध्वज वाहक बन सकता है. 

मीडिया से आएगा सकारात्मक बदलाव
एक ऐसे देश में जहां सैकड़ों TV चैनल हैं, हजारों न्यूज पोर्टल हैं और कंटेंट की ढेर सारी मांग है, यहां कभी कभार एक जोखिम भरी दौड़ जारी रहती है और इसका आधार सनसनीखेज खबरें होती हैं. इस भीड़भाड़ वाले परिदृश्य में मीडिया ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान चाहता है, और इस दौड़ में आचार और नीति के स्टैण्डर्ड के साथ कभी-कभी समझौता भी करना पड़ता है. लेकिन समाज के पथ-प्रदर्शक के रूप में मीडिया की जिम्मेदारी काफी महत्त्वपूर्ण है. यह सिर्फ खबरें पहुंचाने का काम नहीं करता बल्कि लोगों को उनका मत बनाने में और मान्यताओं और धारणाओं को नियंत्रित करने में भी काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. उम्मीद है कि आने वाले समय में मीडिया, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका को बड़ा करेगा और न सिर्फ जानकारी पहुंचाने का काम करेगा बल्कि सकारात्मक बदलाव लाने वाली प्रमुख शक्ति के रूप में भी काम करेगा.
 

यह भी पढ़ें: इस PSU ने मारी बाजी, बनी देश की 10वीं सबसे मूल्‍यवान पब्लिक सेक्‍टर यूनिट 


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