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Weekend Special: बंटवारा, आजादी और तंगहाली से निकलकर एक 'Hero' के बनने की कहानी

आजादी के पहले का दौर एक ऐसा समय था, जब साइकिल को खरीदना हर किसी के बस की बात नहीं थी, साइकिलें विदेशों से इंपोर्ट की जाती थीं और आम आदमी की पहुंच से बाहर होती थीं.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago

नई दिल्ली: लुधियाना में आम हड़ताल के चलते एक साइकिल फैक्ट्री के सारे वर्कर्स भी कामधाम छोड़कर जाने लगे, तभी उस साइकिल कंपनी के मालिक अपने केबिन से बाहर आते हैं, खुद ही साइकिल को असेंबल करने लगते हैं, कुछ सीनियर्स ने देखा तो मालिक ने कहा कि आप लोग चाहें तो घर जा सकते हैं, मैं तो काम करूंगा क्योंकि मेरे पास ऑर्डर्स हैं, ये कहकर वो मशीनें चालू करने लगे. वहां खड़े सीनियर्स ने उन्हें रोका तो मालिक ने कहा कि डीलर समझ सकते हैं कि हड़ताल के चलते काम नहीं हो रहा है, लेकिन वो बच्चा कैसे समझेगा जिसके माता-पिता ने जन्मदिन पर उसे साइकिल दिलाने का वादा किया है. इस हड़ताल से बच्चों का दिल टूट जाएगा, लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगा, मैं हर उस माता पिता का अपने बच्चों से साइकिल देने का किया गया वादा पूरा करूंगा. 

चार भाइयों की कहानी 
ये साइकिल कंपनी के मालिक कोई और नहीं बल्कि 'भारत के साइकिलमैन' ओम प्रकाश मुंजाल या ओपी मुंजाल थे और जिस कंपनी में हड़ताल हुई थी वो कोई और नहीं हीरो साइकिल थी. ये कहानी बताने के लिए काफी है कि अगर किसी काम को करने की शिद्दत हो तो वो काम हर हाल में पूरा होता है. आज हम वीकेंड स्पेशल में हीरो साइकिल की कहानी जानेंगे. 

ये कहानी शुरू होती है पाकिस्तान के टोबाटेक सिंह में कमालिया नाम के गांव से, जहां पर बहादुर चंद मुंजाल रहा करते थे. ये हिंदू पंजाबी परिवार ऊन का कारोबार कर था, बाद में उन्होंने थोक कारोबार करना शुरू किया. इनके चार बेटे थे, बृजमोहन लाल मुंजाल, दयानंद मुंजाल, सत्यानंद मुंजाल और ओम प्रकाश मुंजाल. सबकुछ ठीक चल रहा था, लेकिन भारत आजादी की लड़ाई लड़ रहा था. 1944 का वो साल जब देश में बंटवारे का खतरा मंडरा रहा था, मुंजाल परिवार पाकिस्तान से भारत आ गया और अमृतसर में बस गया. 

आजादी के पहले का दौर एक ऐसा समय था, जब साइकिल को खरीदना हर किसी के बस की बात नहीं थी, क्योंकि ज्यादातर साइकिलें विदेशों से इंपोर्ट की जाती थीं और आम आदमी की पहुंच से बाहर होती थीं. जो साइकिलें भारत में बनती थीं, वो विदेशी साइकिलों के मुकाबले कहीं नहीं टिकती थीं, न मजबूती में और न ही चलने में. देश के बंटवारे के बाद मुंजाल भाइयों ने देश में अपनी साइकिल का कारोबार करने का सपना देखा, लेकिन मुश्किल ये थी कि न तो उनके पास इसका कोई अनुभव था और न ही टेक्नोलॉजी मालूम थी और पैसों की भी दिक्कत थी. कारीगरों को पुर्जे बनाना सिखा भी दिया जाता तो इसके लिए औजार और डाई कहां से आते. सभी कुछ बिल्कुल शुरू से शुरू करना था. 

जब खुद पुर्जे बनाने की ठानी 
भाइयों ने ठाना कि वो पुर्जे बनाने की शुरुआत खुद करेंगे दयानंद और ओम प्रकाश ने लुधियाना जाने का फैसला किया, लेकिन तभी उन्हें पता चला कि उनका एक सप्लायर करीमदीन हमेशा के लिए पाकिस्तान जाने की तैयारी कर रहा है. करीमदीन ओम प्रकाश का दोस्त था. वो साइकिल की गद्दियां बनाता था, और उसका एक अपना ब्रैंड भी था. पाकिस्तान जाने से पहले करीमदीन अपने दोस्त ओम प्रकाश से मिलने गया. इसके बाद जो हुआ वो जिंदगी बदलने वाली घटना थी, ओम प्रकाश ने करीदीन से कहा कि वो तो पाकिस्तान जा रहे हैं, क्या वो भारत में उनके ब्रैंड नाम का इस्तेमाल कर सकते हैं. करीमदीन को कोई ऐतराज न था, उन्होंने इसके लिए हां कर दी. उस जमाने में ब्रैंड वैल्यू या पेटेंट जैसी चीजों का चलन नहीं था, इसलिए सिर्फ एक हां से ही करीमदीन का ब्रैंड मुंजाल भाइयों को मिल गया. जानते हैं उस ब्रैंड का नाम क्या था, वो था 'HERO'. यहीं से भारत में मुंजाल भाइयों के हीरो ब्रैंड की शुरुआत हुई. 

उस समय मुंजाल भाइयों के पास न तो इंजीनियरिंग डिजाइन थे और न ही, उत्पादन कैसे करना है इसका अता-पता था. मुंजाल भाइयों को अपना ही तरीका इजाद करना था. वो खुद ही आंगन में बैठकर कागजों पर साइकिल के डिजाइन बनाते और ये सोचते कि कैसे इसको बनाया जाए. 1954 में उन्होंने सबसे पहले जिस साइकिल के पुर्जे को बनाया था वो फोर्क (bicycle forks) थे, जिसे वो Atlas को सप्लाई कर रहे थे. इसे बनाने के लिए उन्होंने घर के पीछे ही एक भट्टी लगाई, कारीगरों को लगाया और काफी कोशिशों के बाद अंत में वो इसे बनाने में कामयाब रहे. उन्हें एक ऑर्डर भी मिला, डीलर को उन्होंने माल सप्लाई किया, लेकिन फोर्क के टूटने की शिकायतें आने के बाद डीलर ने सारा माल लौटा दिया, मुंजाल भाइयों ने कहीं से पैसों का इंतजाम करके डीलर को उसके सारे पैसे वापस कर दिए. पैसे लौटाने से उनका सम्मान तो बच गया लेकिन अब एक बार फिर मुंजाल भाई वहीं खड़े थे जहां से उन्होंने शुरुआत की थी, उनकी जेबें फिर खाली थीं. 

नाकामी से हारे नहीं 
लेकिन इस असफलता से मुंजाल भाइयों ने हार नहीं मानी, उन्होंने फिर से अपनी कमर कसी, डिजाइन टेबल पर दोबारा बैठे और गलतियों को ठीक किया. अब चूंकि उनके किसी भी डीलर को कोई नुकसान नहीं हुआ था, उन्होंने फिर से ऑर्डर लिया और इस बार चमत्कार हो गया, साइकिल फोर्क में किसी तरह की शिकायत या गड़बड़ी नहीं आई.
फोर्क बनाने के बाद चारों भाइयों ने साइकिल के हैंडल बनाने की सोची. उस जमाने में साइकिल के हैंडल बनाने वाला एक ही सप्लायर था, वो इसकी बहुत ऊंची कीमत मांगता था, क्योंकि उसकी मोनोपॉली यानी वर्चस्व था. उसको पता था कि बिना हैंडल के कोई साइकिल नहीं बनाई जा सकती. मुंजाल भाई उसकी दया पर नहीं रहना चाहते थे. इसलिए उन्होंने रामढ़िया मिस्त्रियों से मुलाकात की, रामगढ़िया मिस्त्रियों को लोहे के ऐसे कामों में सिद्धहस्त माना जाता है. उन्होंने मिस्त्रियों से साइकिल के हैंडल बनाने का प्रस्ताव रखा, वो मान गए, कुछ ऊंच नीच के बाद जो हैंडल तैयार हुए वो कमाल के थे. फिर क्या था लुधियाना में साइकिल बनाए जाने लगे, बहादुरगढ़ से मडगार्ड मंगवाए गए. इसके बाद सत्यानंद और सदानंद ने 1950 में बहादुरगढ़ में साइकिल मैन्यूफैक्चरिंग के लिए एक फैक्ट्री डाली. 

ऐसी साइकिल जो भारत के लिए हो
उस जमाने में जो साइकिलें विदेशों से आती थीं, वो दिखने में काफी सुंदर थीं, लेकिन मुंजाल भाइयों ने की सोच अलग थी. उन्होंने भारतीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर साइकिलें बनाईं. उन्होंने मजबूती पर ज्यादा ध्यान दिया, जैसे कि साइकिल पर अगर दो से ज्यादा लोग भी बैठ जाएं तो वो सहन कर सके और इसकी कीमत भी ऐसी हो कि कोई आम आदमी खरीद सके और अपनी आवाजाही का साधन बना सके. साइकिल की मजबूती को परखने के लिए तीन भाई एक ही साइकिल पर बैठकर अपने मॉडल टाउन के घर से गिल रोड पर मौजूद अपना दुकान तक जाते थे. मुंजाल भाई चाहते थे कि दूध वाला अपनी दूध की बाल्टियां और सब्जी वाला अपनी टोकरी साइकिल के कैरियर पर आसानी से रखकर चले. मुंजाल भाई अब एक ऐसी साइकिल बनाने को तैयार थे, जो 100 परसेंट हीरो मेड साइकिल थी. हालांकि रिम Regent नाम की कंपनी से ली गई थी, जबकि टायर और ट्यूब Dunlop से खरीदे गए थे. बस कुछ घंटों की मेहनत के बाद सारे पुर्जों को एक साथ असेंबल करने के बाद सामने खड़ी थी, काले क्रोम रंग की हीरो साइकिल.

शुरू में मुंजाल भाइयों ने हर महीने 600 साइकिल बनाए, बाद में बैंक से 50,000 का लोन लेकर हीरो ने एक फैक्ट्री खोली, 1975 आते आते हीरो साइकिल भारत की सबसे बड़ी साइकिल बनाने वाली कंपनी बन गई. 1975 में हीरो रोजाना 7500 साइकिल बना रही थी, लेकिन 1986 में एक दिन में 18500 साइकिल बनाकर कंपनी ने अपना नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज करवा लिया. 1986 में हीरो ने एक साल में 22 लाख साइकिलें बनाईं. 1990 आते आते हीरो ने सभी साइकिल कंपनियों को काफी पीछे छोड़ दिया. 

1984 में हीरो ने जापान की टू-व्हीलर बनाने वाली कंपनी होंडा के साथ हाथ मिलाया और हीरो होंडा मोटर्स की शुरुआत की. कंपनी ने अपनी पहली बाइक CD 100 13 अप्रैल 1985 को लॉन्च की, जिसने बाजार में तहलका मचा दिया. 27 साल तक काम करने के बाद 2011 में हीरो और होंडा अलग हो गए. इसके बाद हीरो ने Hero MotoCorp नाम से कंपनी की शुरुआत की, जो बाइक और टू-व्हीलर बनाती है. साइकिल भी इसी कंपनी के तहत बनती है. हीरो की नींव रखने वाले मुंजाल बंधुओं की बात करें तो सबसे बड़े भाई दयानंद मुंजाल ने 2015 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया. बाकी तीन भाइयों की एक साल के भीतर ही मौत हो गई. ओमप्रकाश मुंजाल का 13 अगस्त 2015 को, बृजमोहन लाल मुंजाल का 1 नवंबर 2015 को और सत्यानंद मुंजाल का 14 अप्रैल 2016 को निधन हो गया. 


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