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आजादी के 76 साल बाद भी 'राष्ट्रभाषा' ना बन पाने की टीस को महसूस करती हिंदी
संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषाओं का दर्जा मिला हुआ है, उनमें हिंदी भी एक है. फिलहाल, भारत की कोई 'राष्ट्रभाषा' नहीं है.
बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 7 months ago
उमेश जोशी "वरिष्ठ पत्रकार" की कलम से....
अंग्रेजी अखबार के ऊंचे भाव
कई बार लिख चुका हूं कि हिंदी के साथ सिर्फ राजनेता और मीडिया के संस्थान ही सौतेला व्यवहार नहीं करते, रद्दी अखबार खरीदने वाला भी करता है. वो हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी अखबार हमेशा अपेक्षाकृत ऊंचे भाव पर खरीदता है. एक बार मैंने उसे समझाया कि मैं खुद अखबार में काम करता हूं. हिंदी और अंग्रेजी अखबार एक कागज और एक ही स्याही से मशीन पर छपते हैं फिर दोनों में फर्क कैसे हो सकता है! वो कतई मानने को तैयार नहीं था. उसने हमेशा हिंदी अख़बार के कम भाव दिए. उसने परोक्ष रूप से मुझे समझा भी दिया कि हिंदी की 'वैल्यू' अंग्रेजी के मुकाबले कम है. यह सच भी है और इसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं. मेरी हठधर्मिता थी कि रद्दीवाले का ज्ञान स्वीकार नहीं कर रहा था.
राष्ट्रगान है पर राष्ट्रभाषा नहीं
संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषाओं का दर्जा मिला हुआ है उनमें हिंदी भी एक है. फिलहाल, भारत की कोई 'राष्ट्रभाषा' नहीं है. भारत का राष्ट्रीय गान है, राष्ट्रीय ध्वज है, राष्ट्रीय पक्षी है, राष्ट्रीय पशु है, राष्ट्रीय जलीय जीव है, और भी कई राष्ट्रीय प्रतीक हैं लेकिन राष्ट्रीय भाषा नहीं है. अब हिंदी जैसी है, 'वैसी ही हिंदी' की शुभकामनाएं स्वीकार करें. टीवी चैनल के पत्रकारों से विनम्र निवेदन और प्रार्थना करता हूं कि हिंदी पर उपकार करें; उसका स्वरूप बिगाड़ने का 'अपराध' ना करें. किसी भी भाषा का स्वरूप बिगाड़ना 'सांस्कृतिक अपराध' है. दुनिया की कोई भी भाषा हो, उसका एक व्याकरण होता है. उससे हटने का अर्थ है स्वरूप बिगाड़ना. टीवी चैनलों पर इस्तेमाल हिंदी का व्याकरण से कोई नाता नहीं है. घर के नियम बच्चे को अनुशासन सिखाते हैं, वैसे ही व्याकरण भाषा को अनुशासन सिखाती है. अनुशासनहीनता बेहद घातक होती है इसलिए जिम्मेदार ओहदों पर बैठे लोग भाषा को अनुशासनहीन ना खुद बनाएं और ना किसी को बनाने दें.
आज के दिन अवश्य विचार करें
टीवी चैनल के एक संपादक को स्क्रीन पर दिख रहा गलत शब्द दुरुस्त करने का आग्रह किया तो उन्होंने दलील दी कि बिगड़ा हुआ शब्द अब प्रचलन में आ गया है. हम सभी ऐसा ही सोचते हैं. हमने कभी सोचा है कि यह प्रचलन में क्यों आया! इस बात पर कम से कम आज के दिन विचार अवश्य करें.
हिंदी की बात चली है तो एक किस्सा भी सुना देता हूं. हिंदी दिवस से इसका कोई संबंध नहीं है. मैं हमेशा महसूस करता हूं कि कोई जुमला चलन में आ जाता है तो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है. आमजन बिना सोचे समझे उसे इस्तेमाल करता है. पिछले 50 साल से दिल्लीवासियों से हूबहू एक जैसा जुमला सुनता आ रहा हूं; कोई बदलाव नहीं आया. बस से उतरने वाला हर यात्री (50 साल के सुन रहा हूं) ड्राइवर से कहता है- यहां रोक कर चलना. कोई उनसे पूछे कि रोकना और चलना दो विरोधाभासी शब्द हैं. कोई 'रोक कर' कैसे चल सकता है! ड्राइवर भी उसी श्रेणी का है. वह भी बस 'रोक' कर 'चलता' है. मेरा मानना है कि आमजन भी मीडिया से प्रभावित होता है इसलिए मीडिया जिम्मेदारी और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करे.
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