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आंकड़ों में अमेरिका में मंदी आ गई? फिर भी US क्यों कर रहा है इनकार

अमेरिका की इकोनॉमी में इस सिकुड़न की सबसे बड़ी वजह है महंगाई को काबू करने के लिए उठाए गए सख्त कदम, जिससे ब्याज दरें तेजी से बढ़ाई गईं और डिमांड गिर गई.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago

नई दिल्ली: क्या अमेरिका में मंदी ने कदम रख दिया है, अगर तकनीकी रूप से देखें तो हां, क्योंकि अमेरिका की GDP लगातार दूसरी तिमाही में निगेटिव आई है. हालांकि मंदी की कोई सेट परिभाषा नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि जब किसी देश की जीडीपी लगातार दो तिमाहियों तक सिकुड़ती है तो ये मान लिया जाता है कि उस देश में मंदी आ गई है, इस परिभाषा से अमेरिका में मंदी आ चुकी है.

क्या ये अमेरिका में मंदी की शुरुआत है?
यानी अमेरिका में अनाधिकारिक तौर पर मंदी की शुरुआत हो चुकी है. क्योंकि बाइडेन प्रशासन की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक दूसरी तिमाही में अमेरिका की GDP -0.9 परसेंट रही है, जो कि इसके पहले पहली तिमाही में -1.6 परसेंट थी. GDP के आंकड़ों ने दुनियाभर के अर्थशास्त्रियों को भी सकते में डाल दिया है, क्योंकि उन्होंने उम्मीद की थी कि अमेरिकी इकोनॉमी 0.5 परसेंट की ग्रोथ दिखाएगा. अमेरिका की इकोनॉमी में इस सिकुड़न की सबसे बड़ी वजह है महंगाई को काबू करने के लिए उठाए गए सख्त कदम, जिससे ब्याज दरें तेजी से बढ़ाई गईं और डिमांड गिर गई. 

मंदी की दस्तक से अमेरिका का इनकार 
लेकिन बाइडेन प्रशासन ये मानने को तैयार नहीं है कि अमेरिका में मंदी है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का कहना है कि हम ऐतिहासिक चुनौतियों से गुजर रहे हैं लेकिन हम सही दिशा में हैं. हमारा जॉब मार्केट मजबूत है, बेरोजगारी देर 3.6 परसेंट पर आ गई है साथ ही हमने दूसरी तिमाही में 10 लाख से ज्यादा नौकरियां पैदा की हैं और कंज्यूमर स्पेंडिंग भी पहले से बेहतर हुई है.   
बाइडेन ने साफ किया कि फिलहाल उनका एक ही मकसद है महंगाई को काबू करना. अमेरिकी ट्रेजरी सेक्रेटरी जैनेट येलेन ने भी प्रशासन का बचाव किया है, उनका कहना है कि अमेरिका की इकोनॉमी ट्रांजीशन की अवस्था में है मंदी की नहीं. येलेन का कहना है कि मंदी का मतलब होता है इकोनॉमी में व्यापक रूप से कमजोरी आना जिसमें बड़े पैमाने पर छंटनी, बिजनेस का बंद होना, घर के खर्चों में कटौती और प्राइवेट सेक्टर में स्लोडाउन आना शामिल है. लेकिन हम अमेरिका की इकोनॉमी में ऐसा कुछ भी नहीं देख रहे हैं. क्योंकि नौकरियां बढ़ रही हैं, उपभोक्ता खर्च कर रहे हैं और बिजनेस बढ़ रहे हैं. लेबर डिपार्टमेंट की ओर से गुरुवार को एक रिपोर्ट अलग से जारी की गई, जिसमें ये बताया गया कि 23 जुलाई को खत्म हफ्ते में बेरोजगारी के दावों में 5000 की कमी आई है और ये 2.56 लाख पर एडजस्ट हुए हैं. जो कि 2.7-3.5 लाख के काफी नीचे है, ऐसे में इकोनॉमिस्ट इस बात की आशंका जता रहे हैं कि आगे चलकर बेरोजगारी बढ़ेगी.

फेड ने लगातार ब्याज दरें बढ़ाईं
फेडरल रिजर्व महंगाई को काबू करने के लिए लगातार ब्याज दरें बढ़ा रहा है. बुधवार को भी फेड ने लगातार दूसरी बार ब्याज दरों में 0.75 परसेंट की बढ़ोतरी की थी, मार्च से लेकर अबतक फेड 2.25% ब्याज दरें बढ़ा चुका है. फेड चेयरमैन ने मॉनिटरी सख्ती पर कहा कि इससे आर्थिक गतिविधि में धीमापन आएगा. 

वैश्विक मंदी की परिभाषा 
जैसे राष्ट्रीय मंदी को तय करने के लिए कोई परिभाषा नहीं उसी तरह वैश्विक मंदी को लेकर भी परिभाषा अबतक तय नहीं है. वैश्विक मंदी को लेकर वर्ल्ड बैंक का मुख्य इंडिकेटर यही है कि एक ही समय में कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक साथ सिकुड़ रही हैं. ग्लोबल इकोनॉमी ने बीते 7 दशकों में 4 बड़ी मंदी देखी है, 1975, 1982, 1991 और 2009. IMF के मुताबिक एडवांस इकोनॉमी में मंदी ज्यादा से ज्यादा एक साल तक ही चलती है. 
NBER के आंकड़े भी इसे सपोर्ट करते हैं, 1945 से लेकर 2009 तक मंदी का औसत समय 11 महीने रहा है. 

क्या होते हैं मंदी के संकेत 
आमतौर पर ऐसा देखा जाता है कि अगर जीडीपी ग्रोथ में काफी लंबे समय से गिरावट चल रही है, तो इसे मंदी का संकेत समझ लिया जाता है, लेकिन इसके अलावा मंदी का एक और बड़ा संकेत होता है बेरोजगारी. जब ये बढ़ना शुरू होता है तो इसका अर्थव्यवस्था पर प्रभाव दिखता है, उत्पादों और सेवाओं की मांग घट जाती है. पिछली वैश्विक मंदी के दौरान अमेरिका में बेरोजगारी दर 9.5 परसेंट रही थी. फिलहाल बेरोजगारी अभी कोई फैक्टर नहीं है, क्योंकि ज्यादातर अर्थव्यवस्थाओं में रोजगार के आंकड़े काफी बेहतर हैं. लेकिन कंज्यूमर कॉन्फिडेंस इंडेक्स काफी नीचे है, जो कि दूसरा बड़ा इंडिकेटर है. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि जीवन जीने की लागत बढ़ी है और लोग कम खर्च कर रहे हैं. जिससे इकोनॉमी में स्लोडाउन आता है और टैक्स से कमाई भी घटती है. मंदी के दौरान शेयर बाजारों पर भी असर पड़ता है. कंज्यूमर कॉन्फिडेंस और खर्चों में कमी आती है, कंपनियां छंटनी करती है जिससे शेयर बाजार में निवेश घटता है और घबराहट फैलती है. Goldman Sachs के मुताबिक दूसरे विश्व युद्ध के बाद 12 मंदिंयों में S&P 500 में 24 परसेंट की गिरावट देखने को मिली. 

कैसे खत्म होती है मंदी 
मंदी को खत्म करने के लिए देश के केंद्रीय बैंकों के सामने चुनौती होती है कि वो कंज्यूमर कॉन्फिडेंस बढ़ाने का हर संभव प्रयास करे, ये कोशिश करे कि लोग खरीदारी करें और खर्च करें. इसके लिए केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में कटौती करते हैं. जिससे कर्ज सस्ते होते हैं, लोग कर्ज लेकर घर, कार और दूसरे सामान खरीदते हैं. इससे इकोनॉमी को बूस्ट मिलता है. सरकारें भी रोजगार बढ़ाने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं पर खर्च करती है. एक बात तो तय है कि ग्रोथ और मंदी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जब ग्रोथ लौटती है तो मंदी अपने आप ही चली जाती है, भले ही उसमें कितना वक्त लगे. जैसा कि 2008 की मंदी में हुआ था. अर्थव्यवस्थाओं ने अरबों डॉलर बाजार में झोंक दिए, राहत पैकेजों का ऐलान किया ताकि इकोनॉमी में ग्रोथ लौट सके. 
 

VIDEO: आर्थिक मंदी को लेकर आप भी डरे हुए हैं? जानिए इसकी भारत में कितनी आशंका


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