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'EMI जर्नलिस्ट और आंत्रप्रेन्योर जर्नलिस्ट आज देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती'

डिजिटाइजेशन ने हर व्यक्ति को आंत्रप्रेन्योर जर्नलिस्ट बना दिया है. क्योंकि आज हर व्यक्ति अपना कंटेंट खुद प्रोड्यूस कर रहा है, उसे सोशल मीडिया पर शेयर कर रहा है, प्रमोट कर रहा है.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 8 months ago

समाचार4मीडिया द्वारा दिल्ली में आयोजित 'मीडिया संवाद 2023 एवं पत्रकारिता 40 अंडर 40' में पत्रकारिता जगत की दिग्गज हस्तियां अपने विचार पेश कर रही हैं. इस दौरान, वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार ने पहले और अब की पत्रकारिता, उसकी चुनौतियों और संभवनाओं पर बात की. उन्होंने कहा- मुझे आजकल 2 टर्म भाने लगी हैं. पहली, EMI जर्नलिस्ट और दूसरी, आंत्रप्रेन्योर जर्नलिस्ट. ये 90 के दशक की शब्दावली से उपजी हैं, उससे पहले का वक्त पूरी तरह अलग था. उस समय शायद जानकारी नहीं थी कि इकॉनोमिक वेलबीइंग क्या होती है और एक पत्रकार को अच्छी जिंदगी क्यों नहीं जीनी चाहिए. साल 2000 के आसपास देश में टेलीविजन का विस्तार बड़े पैमाने पर हुआ. हमारे लिए भी टीवी का हिस्सा बनना एक नया अनुभव था. हम अखबार की दुनिया छोड़कर पत्रकारिता के इस नए सफर के शुरुआती साथी थे. TV में वेतन काफी अच्छा था, अखबार में तो कुछ खास मिलता ही कहां था. जो 10-12 हजार मिलते थे, उसके भी बढ़ने की संभावना नहीं थी.

4 गुना ज्यादा सैलरी मिली
1994 में मैंने एक टीवी चैनल जॉइन किया, वहां मुझे 4 गुना ज्यादा सैलरी मिली. जिससे मैंने अपनी पहली गाड़ी खरीदी और गाड़ी EMI पर थी. उस दौर में अपने वेतन को लेकर पत्रकारों को ताने सुनने को मिलते थे, लेकिन वहां उस समझौते की आवश्यकता नहीं थी, जो आज हमें करने पड़ते हैं. क्योंकि उस समय एक अच्छा, स्पष्ट डीमार्केशन था. EMI पत्रकार तो तब भी थे, लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि मैनेजमेंट और एडिटोरियल के बीच एक लक्ष्मण रेखा है. और हम सब उससे अनजान अपने काम में मस्त रहते थे. बाद में जब मैंने बतौर एंकर अपना करियर शुरू किया, तो कई बातें पता चलीं. बेशक ग्लैमर था, पसंद करने वालों की फ़ौज थी, लेकिन ये सबकुछ दिमाग पर इस कदर चढ़ जाता है कि आपको पता ही नहीं चलता कि आप कहां, किस दिशा में जा रहे हैं. आप धीरे-धीरे सत्ता के करीब पहुंचने लगते हैं और सत्ता के पास पहुंचना वैसा ही है, जैसा सूरज के पास पहुंचना. यानी आप बिना जले नहीं रह सकते. कुछ लोग उस जलन को लंबे समय तक बर्दाश्त कर लेते हैं, और कुछ उसके साथ मिल जाते हैं. ये तो हुआ EMI जर्नलिस्ट का पक्ष, जो चाहता है कि वो भी एक लाख का जूता पहने.

आंत्रप्रेन्योर TV जर्नलिस्ट का आगाज
लेकिन इससे भी ज्यादा खतरनाक दौर आया 2004 में जब मनमोहन सिंह सरकार के समय देश की आर्थिक उन्नति एक अलग दिशा में बढ़ रही थी. और आंत्रप्रेन्योर TV जर्नलिस्ट की पैदाइश हुई. अब तक टेलीविज़न इन्वेस्टमेंट का एक बहुत बड़ा मीडियम बन चुका था. आप इसे इन्वेस्टमेंट के तौर पर देखते थे, लेकिन एक बैलेंस बनाने की कोशिश की जा रही थी. अपना चैनल खोलने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया था कि ये बैलेंस क्या होता है. केवल उन्हें ही नहीं, हर उस पत्रकार को यह बात समझ आ गई थी जिसने अपनी ऑन स्क्रीन प्रिजेंस की कीमत लगाई थी. कोई भी आदमी आप पर पैसा क्यों लगाएगा? जाहिर सी बात है रिटर्न देना आपकी जिम्मेदारी बनती है और इसके लिए आपको तमाम तरह की चीजें करनी पड़ती हैं. ये काम आमतौर पर मालिक को करना होता है, लेकिन अब पत्रकार ही मालिक बन बैठे हैं.

पहले ऐसी बात नहीं थी
ऐसा नहीं है कि पहले पत्रकार मालिक नहीं होते थे, लेकिन अखबारों में यदि आपका स्केल थोड़ा छोटा होता था, इन्वेस्टमेंट कम होता था तो बहुत सारी चीजें मैनेज की जा सकती थीं. लेकिन टेलीविज़न का कैपिटल इतना बड़ा है कि उसकी सनक आपको बाद में समझ आती है. ये बात मुझे 2013 में समझ आई, जब न्यूज नेशन चैनल शुरू हुआ और मैं उसकी कोर टीम का हिस्सा बना. तब समझ आया कि पैसा कमाना कितना मुश्किल है. आपको कई समझौते करने पड़ते हैं. हालांकि, आप बिना समझौते किए भी अपना काम कर सकते हैं. इसलिए मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि आज के समय में देश के समक्ष EMI जर्नलिस्ट और आंत्रप्रेन्योर जर्नलिस्ट सबसे बड़ी चुनौतियां हैं. लेकिन क्या ये केवल टीवी तक ही सीमित है? बिल्कुल नहीं. डिजिटाइजेशन ने हर व्यक्ति को आंत्रप्रेन्योर जर्नलिस्ट बना दिया है. क्योंकि आज हर व्यक्ति अपना कंटेंट खुद प्रोड्यूस कर रहा है उसे सोशल मीडिया पर शेयर कर रहा है, प्रमोट कर रहा है.

आज सारा खेल व्यूज का है 
आज यूट्यूब एक सशक्त मंच के तौर पर मौजूद है, लेकिन यहां सारा खेल व्यूज का है. ज्यादा व्यूज नहीं, तो पैसा नहीं. अब ये व्यूज कहां से आएंगे, इसके लिए आपको वही करना होगा जिसके लिए आप नौकरी छोड़कर इंडिपेंड जर्नलिस्ट बने थे. यानी सनसनी, आक्रामक हेडलाइन. दबाव आप पर तब भी था, आज भी है. फर्क बस इतना है कि पहले आप दूसरे के लिए ये करते थे, आज अपने लिए कर रहे हैं. हालांकि, ऐसा नहीं है कि आज अच्छा काम नहीं हो रहा, बिल्कुल हो रहा है लेकिन उसकी ज्यादा चर्चा नहीं होती. तो घूमकर बात वहीं आ जाती है, या तो आप नौकरी बचाने के लिए, अच्छी EMI देने के लिए, अच्छी सैलरी पाने के लिए अच्छी कंपनी में अपने असूलों से समझौता कर लीजिये या आंत्रप्रेन्योर जर्नलिस्ट बन जाइए और येलो जर्नलिज्म को आगे बढ़ाते रहिये. 

निकलने का क्या है रास्ता?   
वैसे, देखा जाए तो अचानक से येलो जर्नलिज्म शब्द ही खत्म हो गया है. पहले येलो जर्नलिज्म के नाम से पत्रकारों के मुंह बन जाया करते थे, मगर आज हम सब यही कर रहे हैं. इससे निकलने के रास्ते की बात करें, तो यह बेहद सरल है - अच्छे काम की प्रशंसा. ऑडियंस, रीडर, व्यूअर्स के तौर पर हमें अच्छे काम की प्रशंसा करनी चाहिए, तभी लोग और अच्छा करने के लिए प्रेरित होंगे. पहले पत्रकारों को इज्जत मिलती थी, लेकिन आज हम उसी श्रेणी में हैं, जहां अन्य प्रोफेशनल्स हैं. लिहाजा इस विषय पर सोचने की और अच्छे काम को सराहने की जरूरत है.  


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