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SVB के गिरने से मिलते हैं ये जरूरी सबक, RBI से भी सीख सकता है US फेडरल
बैंकों का बिजनेस बहुत सरल है. यह एक लॉन्ग-टर्म बिजनेस मॉडल होता है जो कुछ शॉर्ट-टर्म एसेट्स के साथ चलता है.
बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago
Srinath Sridharan, Independent markets commentator. Media columnist. Board member. Corporate & Startup Advisor / Mentor.
सिलिकॉन वैली बैंक (SVB) टेक्नोलॉजी की दुनिया का फेवरेट बैंक था और इसे खड़ा करने में 40 साल लगे थे. डिपॉजिटर्स के डिस्ट्रेस सिग्नल्स की बदौलत मैच्योरिटी पूरी होने से पहले डिपॉजिट वापस लेने की वजह से यह बैंक सिर्फ 40 घंटों में ही दिवालिया हो गया. अमेरिका की वैंचर-कैपिटल समर्थित टेक्नोलॉजी और लाइफ-साइंसेज कंपनियों के आधे उपभोक्ता इस बैंक के ग्राहक थे और यह बैंक स्टार्टअप इकोसिस्टम का प्रिय बैंक था. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि बैंक के लिए क्या गलत हुआ?
ऐसे चलता है बैंकों का बिजनेस
अच्छी तरह से चलने वाले बैंकों का बिजनेस बहुत सरल है. यह एक लॉन्ग-टर्म बिजनेस मॉडल है जो कुछ शॉर्ट-टर्म एसेट्स के साथ चलता है. उनके एसेट्स और लिक्विडिटी किसी भी ऐसी लायबिलिटी को कवर करते हैं जो मैच्योर होने वाली होती है. बिजनेस में हुए किसी भी नुकसान को कवर करने के लिए उन्हें अतिरिक्त कैपिटल और आउट-ऑफ-टर्न निकासी को कवर करने के लिए लिक्विडिटी भी मिलती है. यदि सभी जमाकर्ता एक ही समय में अपना पैसा निकाल लेते हैं, तो बैंक उन मांगों को पूरा नहीं कर पाएगा जिसकी वजह से ‘बैंक -रन’ की स्थिति पैदा हो जाएगी. SVB के गिरने से हमें यह 10 सबक सीखने को मिलते हैं:
पहला सबक: अच्छे चलने वाले बैंकों में बैंक-रन हो सकता है. US के केन्द्रीय बैंक, फेडरल बैंक ने इन्फ्लेशन से लड़ने के लिए एक साल के दौरान बहुत तेजी से 8 बार इंटरेस्ट रेट्स में वृद्धि की. इसकी वजह से बैंक के पास पड़े एसेट्स की कीमत में कमी आई और यह बैंक की लायबिलिटी के साथ सही तरीके से मेल नहीं कर पाए.
दूसरा सबक: जीरो इंटरेस्ट रेट के साथ ही सही लेकिन पैसे पर भी एक गंभीर कीमत जुड़ी हुई होती है. SVB के गिरने के बाद से अब US फेडरल बैंक का ध्यान इन्फ्लेशन से कहीं ज्यादा, आर्थिक स्थिरता पर है. वह भारत के केंद्रीय बैंक RBI (रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया) से सीख सखते हैं जो आर्थिक स्थिरता के लिए एक इन्फ्लेशन-मैनेजर, प्रमुख डेब्ट-मैनेजर और मोनेटरी-रेगुलेटर की भी भूमिकाएं निभाता है.
तीसरा सबक: पश्चिम में स्थित सभी चीजें सबसे बेस्ट हों जरूरी नहीं है. सिर्फ इसलिए कि वह बहुत कठिन सवाल पूछता है और थोड़ा साधारण है, हमें RBI को US फेडरल बैंक से कम बिलकुल नहीं समझना चाहिए. US गवर्नमेंट बॉन्ड्स में अपनी बड़ी इन्वेस्टमेंट और बढ़ते हुए इंटरेस्ट रेट्स की बदौलत SVB ने अपने एसेट्स की कीमत को बहुत तेजी से कम होते देखा. लेकिन फिर भी उसने अपनी बुक्स पर वैल्युवेशन में किसी तरह का बदलाव नहीं किया और न ही पर्याप्त लिक्विडिटी को इकट्ठा किया. जब बैंक ने लिक्विडिटी इकट्ठा करने के लिए डिस्काउंट पर अपने एसेट्स को बेच दिया और एसेट्स की कीमत में हुई इस कमी को पूओरा करने के लिए जब बैंक को कैपिटल इकट्ठा करना था तो उसके ग्राहकों को लगा कि यह बैंक डूब रहा है. इसलिए उन्होंने पैसे निकालने शुरू कर दिए जिसकी वजह से ‘बैंक-रन’ की स्थिति पैदा हुई. भारत में RBI अपनी इकाइयों की निगरानी करता है ताकि उनके ALM (एसेट-लायबिलिटी मैनेजमेंट) पर RBI की पकड़ बनी रहे और साथ ही उनके पास पड़े एसेट्स की कीमत RBI मार्केट में तय कर सके. इंटरेस्ट रेट के जोखिम को यहां इस तरह मैनेज किया जाता है.
चौथा सबक: एसेट लायबिलिटी मैनेजमेंट एक रियल-टाइम जॉब है. आपस में डिजिटली लिंक्ड ग्लोबल मार्केट्स में किसी भी एसेट की कीमत को शुन्य तक लाया जा सकता है.
डिजिटल जमाने की परेशानी: SVB के साथ जो हुआ, वो ज्यादातर बैंकों में या खासकर उन बैंकों में बिल्कुल नहीं होता जिनके ग्राहक नॉन-टेक्नोलॉजी बिजनेस हैं. बैंक्स के पास अक्सर ही लिक्विडिटी की समस्या रहती है और इस समस्या से निपटने के लिए वह कैपिटल भी इकट्ठा करते हैं और एसेट्स भी बेचते हैं. लेकिन SVB के ग्राहक उन लोगों में से थे जो बैंक द्वारा दी गयी चेतावनी को नहीं पढ़ते हैं और एक दुसरे से उसी SVB इकोसिस्टम के माध्यम से जुड़े हुए हैं. इसलिए जब किसी ने बैंक की लोन चुकाने की क्षमता पर सवाल उठाया तो यह मामला बहुत ही जल्दी लिक्विडिटी की समस्या के साथ जुड़कर एक हो गया. बैंक का बिजनेस एक क्षेत्र में केन्द्रित था और रिस्क झेलने के लिए फैला हुआ नहीं था और साथ ही बॉन्ड मार्केट की कीमतों के उतार-चढ़ावों से बचने में भी सक्षम नहीं था.
पांचवां सबक: चाहे वह प्रोडक्ट्स हों, कंज्यूमर सेगमेंट हो या भूगोल ही क्यों न हो, लेकिन किसी भी चीज का एक ही क्षेत्र में केन्द्रित होना कभी कभी दुःख देता है, या फिर जैसा SVB के मामले में देखने को मिला, कभी कभी यह बहुत घातक भी हो सकता है. बैंकों का बिजनेस ही जोखिमों की कीमत पर आधारित है.
गंभीर जांच के लिए पर्याप्त साइज: 2008 की ग्लोबल फाइनेंशियल क्राइसिस के बाद 2010 में US ने Dodd-Frank एक्ट को अपना लिया और इस एक्ट ने ‘व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण’ वित्तीय संस्थाओं के लिए अतिरिक्त रेगुलेटरी निगरानी को सुनिश्चित किया. डोनल्ड ट्रम्प के समय US सरकार ने अपने बैंकिंग सिस्टम को ज्यादा उदारवादी बनाने का निर्णय लिया और US की सरकार ने क्षेत्र के बहुत से नियमों को हटा दिया. पहले अतिरिक्त निगरानी के लिए जहां 50 बिलियन डॉलर्स के एसेट्स की सीमा थी वहीं, अब इसे बढ़ाकर 250 बिलियन डॉलर्स के एसेट्स तक कर दिया गया. इत्तफाक से जब SVB गिरा तो उसके एसेट्स की कीमत 213 बिलियन डॉलर्स थी.
छठा सबक: वित्तीय संस्थान, कम निगरानी कि बजाय ज्यादा निगरानी में ही ठीक हैं. वो कहते हैं न शॉर्ट-टर्म का दर्द लॉन्ग-टर्म में परेशानी झेलने से ज्यादा बेहतर है.
अब US में क्या होगा?
रिसेशन आने की सम्भावनाओं के चलते US में अब ज्यादातर स्टॉक मार्केट इन्वेस्टर्स अपना पैसा बैंकिंग स्टॉक्स से वापस निकालेंगे. बैंकिंग सेक्टर को लेकर बढ़ती अफवाहें मुख्य रूप से क्षेत्रीय और छोटे बैंकों पर प्रभाव डालेंगी जो पूरी तरह से ‘होलसेल फंडिंग’ पर निर्भर होते हैं. कैपिटल की अपनी नई जरूरतों को कम करने और अपने बिजनेस और शाखाओं को टाईट करने के लिए यह बैंक क्रेडिट जांच के नियमों को इकट्ठा करेंगे और अंतत: क्रेडिट एक्सेस की वजह से बंद हो जायेंगे.
सातवां सबक: फाइनेंस, कॉन्फिडेंस की वजह भी होता है और इसका प्रभाव भी. बेशक इस क्राइसिस का प्रभाव अब और न फैले लेकिन इस क्राइसिस की वजह से बैंकिंग की रफ्तार धीमी पड़ जायेगी. 10 मार्च को SVB गिरने के बाद यह क्राइसिस बैंकिंग के क्षेत्र में एक के बाद एक दूसरी क्राइसिस को जन्म न डे उसके लिए US गवर्नमेंट से बहुत फुर्ती से एक्शन नहीं लिया. भारत इससे सीख सकता है कि, एक रेगुलेटर कितनी जल्दी फैसले लेकर एक गिरे हुए फाइनेंशियल संस्थान की लोन चुकाने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है और उसे वापस से खड़ा कर सकता है. यह कुछ ऐसा है जिससे भारतीय रेगुलेटर्स अपनी वर्तमान व्यवस्था को बदल सकते हैं.
आठवां सबक: फाइनेंशियल संस्थानों की समस्याओं को निपटाने की रफ्तार बहुत जरूरी है. किसी भी रुक चुके फाइनेंशियल संस्थान की कीमत में समय की वजह से बहुत जल्दी गिरावट आने लगती है. यह मामला फाइनेंशियल संस्थानों के रियल-टाइम डिजिटल देख-रेख के महत्त्व को और ज्यादा जरूरी साबित करता है.
नौवां सबक: रेगुलेटर्स को सुनिश्चित करना होगा कि, फाइनेंशियल संस्थान केवल कागजों पर ही न रह जाएं बल्कि सच में बिजनेस कर पायें. भारतीय फाइनेंशियल सुविधाओं के पास लाइसेंस वाली बहुत सी इकाइयां मौजूद हैं जो सिर्फ कागज पर ही रह गयी हैं. रेगुलेटर्स को ऐसी फाइनेंशियल संस्थाओं को बंद कर देना चाहिए जो सिर्फ अपने लाइसेंस की कीमत की वजह से कागज पर बनी हुई हैं और असलियत में कोई बिजनेस नहीं करतीं.
दसवां सबक: फाइनेंस के बिजनेस के लिए आपका उद्देश्य सीरियस होना चाहिए और साथ ही आपका ध्यान केन्द्रित और इन्वेस्टमेंट्स को लेकर सब्र चाहिये न कि दिखाने के लिए सिर्फ एक लाइसेंस.
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