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क्या सच में भारत की अर्थव्यवस्था 'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ' पर है?

अर्थशास्त्री रघुराम राजन और एसबीआई सहित कुछ अर्थशास्त्रियों की बात से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि फिलहाल देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर अपेक्षित नहीं है और बेहद कम है.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago

  • अजय शुक्ला, वरिष्ठ पत्रकार

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के पूर्व गवर्नर और दुनिया के नामचीन अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास और नीतियों को लेकर कहा कि मौजूदा दौर में यह अर्थव्यवस्था 'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ' पर चल रही है. धीमी विकास दर को जाने माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर राज कृष्ण 1978 में 'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ' का नाम दिया. तब से यह वाक्य आर्थिक जगत में जुमले के तौर पर प्रयोग किया जाता है. 1950-80 के दौर में सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश की औसतन सालाना आर्थिक विकास दर 3.5 फीसदी पर अटक जाती थी. मौजूदा वक्त में भी पिछली तीन तिमाहियों में लगातार विकास दर गिरी है. इस पर अर्थशास्त्री राजन ने कहा कि अभी निजी क्षेत्र का निवेश कम हो रहा है. कर्ज पर ब्याज दरें बहुत बढ़ गई हैं. वैश्विक स्तर पर विकास दर काफी खराब है. ऐसे में 2022 के दौरान तीनों तिमाहियों के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल तीसरी तिमाही में विकास दर घट कर 4.4 फीसदी पर आ गई है. इससे दूसरी तिमाही में विकास दर 6.3 फीसदी थी और पहली तिमाही में 13.2 फीसदी. इससे साफ है कि भारत की विकास दर लगातार गिरती जा रही है, जबकि यूपीए1 (डॉ मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में) साल 2004 से 2009 के बीच देश की आर्थिक विकास दर (GDP) औसतन 9 फीसदी के आस-पास रही थी.

कोर क्षेत्र में भी उत्पादन गिरा
भारत में खपत कम होने से मांग घटी है जिससे, कोर क्षेत्र में भी उत्पादन गिरा है. निर्यात घटना और रुपए का अवमूल्यन होना चिंताजनक है. इन हालात में भी आरबीआई के स्तर पर ब्याज दरें आक्रामक तौर पर बढ़ाने से नकारात्मक माहौल बनता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्तर पर बाहरी वातावरण को प्रभावित करने की दिशा में भी कोई कदम नहीं उठाए गए हैं. इसे देखते हुए संभावित विकास दर की मंदी के बारे में चिंतित होना लाजिमी है. हालांकि, आरबीआई ने 2023-24 के लिए 6.4 फीसदी के विकास का अनुमान लगाया है, यह आंकड़ा कुछ आशावादी दिखाई देता है. 2023-24 की पहली और दूसरी तिमाही में विकास दर के क्रमशः 7.8 फीसदी और 6.2 फीसदी के आरबीआई के अनुमान से कम रहने की संभावना है. इस पर राजन का मानना है कि आने वाली तिमाहियों में विकास दर 4 फीसदी से नीचे आ जाएगी. यह भी सच है कि भारत में विकास दर G20 देशों में सबसे अधिक है. इस समूह के कई अन्य देश मंदी या कर्ज संकट के कगार पर हैं. ऐसे में राजन के आंकलन पर सवाल उठना लाजिमी है.

सेबी की भूमिका पर सवाल 
रघुराम राजन ने अडानी समूह से जुड़े मामले में बाजार नियामक सेबी पर सवाल खड़े किए हैं. राजन ने अभी तक मॉरीशस स्थित संदिग्ध फर्मों के स्वामित्व के बारे में कोई पड़ताल नहीं करने पर भारतीय शेयर बाजार रेगुलेटर सेबी पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने कहा है कि हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट में जो तथ्य सामने आए, उसकी जांच करने की सेबी ने जरूरत क्यों नहीं समझी? ये बड़ा मुद्दा है. राजन ने कहा, ‘आशावादी निश्चित ही पिछले जीडीपी आंकड़ों में किए गए सुधार की बात करेंगे लेकिन मैं क्रमिक नरमी को लेकर चिंतित हूं. निजी क्षेत्र निवेश करने के लिए इच्छुक नहीं है, आरबीआई ब्याज दरें बढ़ाता जा रहा है और वैश्विक वृद्धि के आने वाले समय में और धीमा पड़ने के आसार हैं. ऐसे में मुझे नहीं मालूम कि वृद्धि किस तरह रफ्तार पकड़ेगी.’ उन्होंने सरकारी आंकड़ों पर चर्चा करते हुए कहा कि आगामी वित्त वर्ष (2023-24) में भारत की वृद्धि दर, पांच फीसदी भी हासिल हो जाए तो यह हमारी खुशनसीबी होगी. अक्टूबर-दिसंबर के जीडीपी आंकड़े बताते हैं कि साल की पहली छमाही में वृद्धि कमजोर पड़ेगी. यही वजह है कि ‘‘मेरी आशंकाएं बेवजह नहीं हैं. आरबीआई ने तो चालू वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही में और भी कम 4.2 फीसदी की वृद्धि दर का अनुमान जताया है. इस समय, अक्टूबर-दिसंबर तिमाही की औसत वार्षिक वृद्धि तीन साल पहले की तुलना में 3.7 फीसदी है. यह पुरानी 'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ' के बहुत करीब है और यह डराने वाली बात है. हमें इससे बेहतर करना होगा.’

बचत के आंकड़ों के खिलाफ 
इस पर एसबीआई रिसर्च ने कहा कि राजन का आंकलन दुर्भावनापूर्ण, पक्षपातपूर्ण और अपरिपक्व है. जब देश आगे बढ़ रहा है तब भारत की अर्थव्यवस्था को 'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ' की तरफ बढ़ रहा है, कहना निवेश और बचत के आंकड़ों के खिलाफ है. एसबीआई के इकोरैप रिपोर्ट में कहा गया है कि वित्त वर्ष 2022-23 में भारत की जीडीपी की तिमाही विकास में गिरावट का ट्रेंड देखने को मिल रहा है. चुनिंदा तिमाहियों के आधार पर यह तर्क दिया जाना कि भारत हिंदू ग्रोथ रेट (3.5-4 फीसदी) की ओर जा रहा है, कहना गलत होगा. एसबीआई रिसर्च का तर्क है कि कुल सकल पूंजी निर्माण (जीसीएफ) में सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों का संस्थागत हिस्सा वित्त वर्ष 12 से जीडीपी के क्रमशः लगभग 10 प्रतिशत और 34 प्रतिशत पर लगभग स्थिर रहा है. कुछ अर्थशास्त्री भी मान रहे हैं कि तिमाही जीडीपी की विकास संख्या अस्थिर होती है. इसका उपयोग विकास को लेबल करने के लिए नहीं किया जा सकता है. 2022-23 की तीसरी तिमाही में पिछले वर्ष की इसी तिमाही की संख्या में ऊपर की ओर संशोधन के कारण कम वृद्धि दर्ज की गई.

तो हालात और भी खराब होंगे
अर्थशास्त्री रघुराम राजन और एसबीआई सहित कुछ अर्थशास्त्रियों की बात से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि फिलहाल देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर अपेक्षित नहीं है और बेहद कम है. देश के पूंजीबाजार और हालात को देखकर हम इस आशंका से बाहर नहीं हो सकते कि अगर नीतियां आम नागरिक और कामगार को उपेक्षित करके चंद पूंजीपतियों के इर्दगिर्द घूमती रहीं, तो हालात और भी खराब होंगे. निश्चित रूप से सरकार को उन आशंकाओं का सकारात्मक जवाब देना चाहिए और वो होते हुए भी दिखना चाहिए. दुखद यह है कि इन सकारात्मक टिप्पणियों को भी नकारात्मक राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है, जो हमारे लिए घातक है. आत्मनिर्भर बनाने के लिए आमजन के पास जरूरत की पूंजी पहुंचना और अधिक से अधिक योग्यतानुसार रोजगार पैदा करना हमारी बड़ी जरूरत है. उसके लिए पूंजी लाने का माहौल बनाने के बारे में काम करना चाहिए, न कि राष्ट्रीय पूंजी और संपत्तियों को चंद पूंजीपतियों के हाथों में सौंप देना चाहिए. एक स्वस्थ वाणिज्यिक-कारोबारी प्रतिस्पर्धा का माहौल बनाने की जरूरत है.


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