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बढ़ता कर्ज और व्यापार घाटा आत्मनिर्भर भारत के लिए संकट!

सरकार को लगातार बढ़ रही वैश्विक अनिश्चितता के नकारात्मक दबाव को भारत में सीमित करने के लिए कई स्तरों पर नीतिगत व्यवस्थाएं करने की आवश्यकता है.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago

  • अजय शुक्ला, वरिष्ठ पत्रकार

हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर कदम बढ़ाते जा रहे हैं, मगर इसमें दो बड़े संकट हैं. पहला देश की अर्थव्यवस्था पर बढ़ता कर्ज और दूसरा व्यापार घाटा. यही नहीं हमारे देश के बड़े पूंजी घराने भारी सार्वजनिक कर्ज के बूते खड़े हैं, लेकिन उनका योगदान रोजगार की दिशा में उस अनुपात में बेहद कम है. 

निर्यात में आई कमी
पिछले सप्ताह वाणिज्य मंत्रालय के सचिव सुनील बर्थवाल जो आंकड़े पेश किए, उसमें अहम यह था कि वैश्विक मांग में गिरावट से हमारे निर्यात में कमी आई है. रत्न और आभूषण, इंजीनियरिंग, पेट्रोलियम उत्पाद, सभी तरह के कपड़ों से तैयार वस्त्र, रसायन, दवा, समुद्री उत्पाद और चमड़ा सहित तमाम निर्यात क्षेत्रों में अक्टूबर का माह काफी निराशाजनक रहा है. निर्यात सालाना आधार पर 16.65 फीसदी घटकर 29.78 अरब डॉलर रह गया, जिससे व्यापार घाटा बढ़कर 26.91 अरब डॉलर हो गया है. वहीं, इसी दौरान आयात छह फीसदी बढ़कर 56.69 अरब डॉलर हो गया, जो एक साल पहले इसी माह में 53.64 अरब डॉलर था. कच्चे तेल और कपास, उर्वरक और मशीनरी जैसे कुछ कच्चे माल की मांग अधिक होने से आयात बढ़ा है. जबकि, इस साल अप्रैल से अक्टूबर के दौरान निर्यात 12.55 फीसदी बढ़ा और 263.35 अरब डॉलर हुआ है, मगर आयात 33.12 फीसदी बढ़कर 436.81 अरब डॉलर पर पहुंच गया. स्पष्ट है, अप्रैल-अक्टूबर, 2022 में व्यापार घाटा 173.46 अरब डॉलर रहेगा. पिछले साल अप्रैल-अक्टूबर, 2021 में यह 94.16 अरब डॉलर था. मंत्रालय के मुताबिक, पिछले साल अक्टूबर में व्यापार घाटा 17.91 अरब डॉलर था और 2020 के नवंबर में निर्यात में 8.74 फीसदी की गिरावट आई थी.

सावधानी बरतने की जरूरत
सरकार को लगातार बढ़ रही वैश्विक अनिश्चितता के नकारात्मक दबाव को भारत में सीमित करने के लिए कई स्तरों पर नीतिगत व्यवस्थाएं करने की आवश्यकता है. विकसित देशों में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए दरों में तेज इजाफा और वित्तीय हालात पर वहां के केंद्रीय बैंक सख्त कदम उठा रही हैं. महामारी से पैदा हुई उथल-पुथल से निपटने के लिए आर्थिक सुधार की प्रक्रिया कमजोर पड़ी है. नतीजतन वैश्विक विकास दर धीमी पड़ी है. ये हालात भारत जैसे विकासशील देश की अर्थव्यवस्थाओं को काफी प्रभावित करते हैं. सख्त मौद्रिक हालात पूंजी प्रवाह पर भी प्रभाव डालते हैं. व्यापार संबंधी ताजा आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि बाहरी क्षेत्र के प्रबंधन में सावधानी बरती जाए. भारत का वाणिज्यिक व्यापार घाटा लगातार बढ़ना चिंताजन है. इसके साथ ही रुपए की लगातार गिरती साख और उससे उत्पन्न होने वाले खतरे पर भी गौर करने की जरूरत है. क्योंकि वैश्विक आर्थिक बदहाली के दौर में भी भारतीय मुद्रा का लगातार गिरना कई तरह से अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी से उतारेगा. 

नकली नोटों का चलन बढ़ा
वहीं, भारतीय मुद्रा में नकली नोटों का भारी चलन भी चिंता बढ़ा रहा है. बाजार से सवा चार लाख करोड़ कीमत के 2000 के नोट गायब हैं. इसकी जगह नकली नोट बाजार में बढ़े हैं, जो अर्थव्यवस्था को कुल 8,25,93,560 रुपए की चपत लगा चुके हैं. वहीं, नकारात्मक आर्थिक माहौल के बावजूद सितंबर माह में कोर क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ा है, जो उत्पादन 7.9 फीसदी रहा, जो एक उम्मीद की किरण के रूप में देखा जा सकता है मगर यह भी सच है कि चूंकि त्योहारी मौसम था, इसलिए कोर सेक्टर में मांग काफी बढ़ी थी. हालांकि, उसकी खपत उम्मीद के मुताबिक नहीं रही. ऐसी स्थिति में इसे स्थाई वृद्धि नहीं माना जा सकता. महंगाई के कारण उपभोक्ताओं की खरीद क्षमता अच्छी नहीं होने के कारण ऐसी स्थिति है. बेरोजगारी अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा संकट है. कूटनीति और आर्थिक सहयोग के मंच जी-20 की अध्यक्षता भारत को मिलने से तमाम लाभ की संभावनाओं के द्वार खुले हैं. इन स्थितियों में अगर भारत इस एक साल में नीतिगत फैसलों के जरिए आमजन को समर्थ और आत्मनिर्भार बनाये. उनकी क्षमताओं का दोहन करके अर्थव्यवस्था को सकारात्मक बनाने में लगाये, तो अच्छे परिणाम आ सकते हैं. इससे वास्तविक खरीद क्षमता बढ़ेगी, जिससे उत्पादन भी बढ़ेगा और सरकार के खजाने को अधिक प्रत्यक्ष और परोक्ष कर भी.

ठोस नीतिगत योजना की कमी
एक राहत भरी बात भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कही. उन्होंने आरबीआई के डिपार्टमेंट ऑफ इकनॉमिक एंड पॉलिसी रिसर्च (डीईपीआर) के सालाना सम्मलेन में कहा कि भारत की स्थिति दुनिया के विकसित और विकासशील देशों से काफी अलग है, जिससे यहां मंदी की आशंका नहीं है. उनकी दलील है कि महंगाई घटाने के लिए दुनिया के केंद्रीय बैकों ने ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है. जो आर्थिक गतिविधियों के लिए कर्ज देने के लिए जरूरी नकदी उपलब्ध नहीं करा पा रही है, जो मंदी की आशंका बढ़ा रहा है. उन्होंने कहा कि विकसित अर्थव्यस्थाओं में महंगाई लगातार बनी हुई है. अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के ब्याज दरों में भारी वृद्धि से डॉलर मजबूत हुआ है, जिससे हमारी मुद्रा भी प्रभावित हुई है. महंगाई को काबू करने के लिए सरकार के साथ मिलकर आरबीआई काम कर रहा है. अमेरिका, यूरोप, जापान और चीन की अर्थव्यवस्थाएं नीचे आ रही हैं. ऐसे में यह स्थिति आने वाले महीनों में वैश्विक अर्थव्यवस्था को मंदी की ओर ले जा सकती है. अच्छी बात यह है कि भारत में मंदी की ऐसी कोई आशंका नहीं है. बावजूद इसके आरबीआई और केंद्र सरकार अब तक कोई ऐसी ठोस नीतिगत योजना देश को नहीं दे पाई है, जिससे उनकी बात प्रमाणित हो सके. पिछले एक साल से वो महंगाई और मंदी से निपटने की जितने दावे कर चुके, सभी कोरे पाए गये हैं.   

स्थानीय उद्योगों को प्रोत्साहन
नीति निर्माताओं को यह बात स्पष्ट रूप से समझनी पड़ेगी कि हम वैश्विक खुले बाजार की दुनिया में हैं. ऐसे में, हमारे देश के स्थानीय उत्पादों की गुणवत्ता और उसकी कीमत में सामंजस्य बनाकर उसे वैश्विक बाजार के योग्य बनाएं. सरकार का जोर स्थानीय उद्योगों को प्रोत्साहन देकर आत्मनिर्भर भारत अभियान में तेजी लानी चाहिए. जब हम विशिष्ट और गुणवत्तायुक्त वाजिब कीमत के उत्पाद बाजार में लाएंगे तो तय है कि व्यापार घाटे में भी कमी आएगी. इसके साथ ही खर्च और आमदनी में मितव्यता बरतने की जरूरत है. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के पास बड़ा तेल भंडार है, उससे वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की मौजूदा कीमतों की अपेक्षा काफी कम लागत पर कच्चा तेल उत्पादित किया जा सकता है. इसके लिए ओएनजीसी सहित सार्वजनिक तेल कंपनियों की मदद ली जा सकती है. प्राकृतिक उर्जा और इलेक्ट्रिक उपकरणों-वाहनों के प्रयोग में तेजी लाकर हालात सुधारे जा सकते हैं. खाद्य तेल का आयात तिलहन का उत्पादन बढ़ाकर किया जा सकता है. इसके लिए किसानों को प्रत्यक्ष मदद और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. 

ऐसे तेजी से घूमेगी चेन
जरूरत सरकार को गंभीरता से आर्थिक दशा और उसकी दिशा सुधारने की होनी चाहिए. निजी पूंजीपतियों और विदेशी कंपनियों के हितों से पहले देशवासियों के हितों को साधने की जरूरत है, क्योंकि जब नागरिक स्वस्थ और कुशल होंगे, तभी वो बेहतर नतीजे दे सकेंगे. जब उनके हाथ में नोट होंगे, तभी वो कुछ खरीद सकेंगे और जब उनके हाथ में रोजगार होगा, तभी नोट होंगे. जब खरीद बढ़ेगी तो उत्पादन भी बढ़ेगा और फिर चेन तेजी से घूमेगी.


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