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ओवर कॉन्फिडेंस की बदौलत अडानी ग्रुप पर हुई सर्जिकल स्ट्राइक?

अडानी ग्रुप और हिंडनबर्ग की कहानी के बाद अब सवाल ये है कि क्या हम हिम्मत इकठ्ठा करके सच का सामना कर पायेंगे या फिर सिस्टम में PN जैसे लूप होल्स बने रहेंगे?

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago

मुझे, (प्रबल बासु रॉय, डायरेक्टर एवं एडवाइजर चेयरमैन कॉर्पोरेट बोर्ड्स को) लगा पिछले दो हफ्तों में हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद से मचे शोर और बेकार के राजनीतिक विचारों को शांत हो जाने देना चाहिए. इतनी गंभीर हालत के बारे में बहुत सी भावनाओं को परे रखकर आवश्यक बात कहना, इसके बाद ही ठीक होगा. मुझे लगता है इस पूरे घटनाक्रम में पांच केंद्रीय समस्याएं हैं. बेहतर होगा कि हम एक उद्यमी के जोश और जोखिम लेने के उसके दृष्टिकोण को ठगी के साथ न मिलाएं. इसीलिए मैं सबसे उचित मुद्दों को बिजनेस मॉडल रिस्क, कैपिटल एफिशिएंसी, स्टॉक मैनीपुलेशन, संस्थागत गवर्नेंस, कॉर्पोरेट गवर्नेंस और घोर पूंजीवाद में बांट रहा हूं.


पिछले तीन सालों में शानदार परफोर्मेंस की ये है वजह


रिपोर्ट में उठाये गए बहुत से पॉइंट्स कंपनी के बिजनेस मॉडल की जोखिम धारणा और हाई लेवेरेज पर इसकी अत्यधिक निर्भरता के बारे में हैं. हालांकि जोखिम के दृष्टिकोण से इंफ्रास्ट्रक्चर कम्पनीज के लिए 1 से नीचे का करंट रेशो असामान्य नहीं है लेकिन यह किसी भी तरह से ठगी से जुड़ा हुआ नहीं है. गिरते हुए ऑपरेटिंग मार्जिन्स (7% से 3.6%) के साथ काफी हाई रेवेन्यु ग्रोथ (25% से 110%) और गिरती हुई कैपिटल एफिशिएंसी (15% से 3%) कम करंट रेशो के खतरे को काफी बढ़ा देते हैं. प्रोजेक्ट्स हासिल करने के लिए विरोधियों से कम कीमतें बताना और सेल में एसेट्स को जल्दी खरीदने के लिए ज्यादा कीमत अदा करना, पिछले कुछ सालों से कंपनी की ग्रोथ के पीछे का कारण हो सकते हैं. 
एक ऐसा बिजनेस मॉडल तब तक आर्थिक ताकत पर असर डालता है जब तक वह कैपिटल की बड़ी मात्रा हासिल करना शुरू नहीं कर देता और पेबैक का समय नहीं बढ़ जाता. ज्यादा लम्बे समय तक उसके फाइनेंशियल सर्वाइवल के लिए यही सबसे जरूरी होता है. ऐसे बिजनेस मॉडल को खतरनाक कहा जा सकता है लेकिन ढोंगी नहीं कहा जा सकता. इस बारे में थोड़ी और बात करने पर पता चलता है कि कंपनी का मार्केट कैपिटल पिछले तीन सालों में 800% से ज्यादा बढ़ा है जिसका रिजल्ट हमें 20000 करोड़ की कीमत वाले FPO के रूप में देखने को मिला था. इस सबके पीछे कंपनी द्वारा कैपिटल इकठ्ठा करने के लिए ध्यानपूर्वक बनायी गयी रणनीति थी. 


देश की व्यवस्था में हैं लूपहोल्स


यह फैक्ट कि कंपनी की ग्रोथ में मजबूत होती वित्तीय स्थिति शामिल नहीं थी और बहुत सी ग्लोबल कम्पनीज के विपरीत इसे ग्रोथ मिली, एक बहुत ही छोटे ग्रुप द्वारा इन्वेस्टमेंट से कपनी के शेयर्स की ट्रेडिंग बहुत ही कम मात्रा में होना, कंपनी पर स्टॉक मैनीपुलेशन के सवाल खड़ा करता है. इस कहानी में फ्रॉड की संभावना को समझने के लिए हमें ग्लोबल फाइनेंशियल मार्केट्स के मैकेनिज्म और उपकरणों के साथ साथ हमारे रेगुलेशंस में लूपहोल्स को भी समझना होगा. जैसा हमने 2008 की ग्लोबल फाइनेंशियल क्राइसिस के समय पर देखा था, स्ट्रक्चर्ड उत्पादों के डेरिवेटिव्स को दुनिया भर में बहुत सी थीम्स, एसेट क्लासेज, और टोटल रिटर्न स्वैप्स जैसी रणनीतियों समेत, अंतर्राष्ट्रीय बैंकों और ब्रोकरेज के द्वारा ज्यादा बड़ी HNI (हाई नेट इनकम) के लिए बेचा जाता है. इन केसों में असली मालिक की पहचान अस्पष्ट ही रहती है. हमारी मार्केट्स में ऐसे उपकरणों को बहुत ही आराम से लाया जा सकता है जिसके लिए हमारे देश में PN (पार्टिसिपेटरी नोट्स) जैसी व्यवस्था बहुत ही आरामदायक है और इसे कई दशकों से मंजूरी मिली हुई है.


FPI कैसे है लूपहोल


इस तरह भारत में PN व्यवस्था होने की वजह से FPI (फॉरेन पोर्टफोलियो इन्वेस्टमेंट) का रास्ता अभी भी खुला हुआ है और यह एक ऐसा लूपहोल है जिसका इस्तेमाल दुनिया भर के इन्वेस्टर्स  मार्केट को ऊपर ले जाने या नीचे लाने के लिए करते रहते हैं. अगर मान लिया जाए कि FPO लाने से पहले कैपिटल इकठ्ठा करने के लिए अडानी ग्रुप ऑफ कम्पनीज के स्टॉक्स को जानबूझकर ऊपर ले जाया गया था तो मॉरिशस के रास्ते मल्टी-लेयर्ड इन्वेस्टमेंट स्ट्रक्चर लाने कि बजाय बहुत आराम से PN का इस्तेमाल किया जा सकता था. साल 2000 की शुरुआत से की गयी PN इन्वेस्टमेंट्स की वजह से पैदा हुई विकृतियों के मुकाबले इस मामले में सिर्फ स्केल (3 सालों में 800% से ज्यादा) ही बाकी मामलों की तुलना में बहुत ज्यादा है, लेकिन फिर छोटा सोचना तो अडानी के DNA में ही नहीं है. इसी तरह यह भी माना जा सकता है कि कंपनी के शेयर्स को नीचे लाने के लिए भी इसी तकनीक का इस्तेमाल किया गया होगा और हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को ट्रिगर के रूप में इस्तेमाल किया गया होगा. 


SEBI और RBI के क्षेत्रों में भी हैं समस्याएं

लेकिन बदकिस्मती से एक फ्री मार्केट में ऐसा ही होता है. कैपिटल इकठ्ठा करने के बारे में सोचने के दौरान अडानी ग्रुप ने इस जोखिम के बारे में नहीं सोचा होगा कि PN फ्लोस दोनों ही तरफ काम करते हैं. और क्योंकि 75% शेयर्स के मालिक खुद अडानी ही हैं (दोस्तों, एसोसिएट्स, और LIC जैसी निष्क्रिय संस्थाओं द्वारा 10% से 15% अतिरिक्त शेयर्स भी इन के पास ही हैं) तो ऐसी स्थिति में सबसे लॉजिकल अनुमान यही लगता है कि PN द्वारा विदेशी पार्टिसिपेंट्स की मदद से ग्रुप पर हमला किया गया होगा. इंडिया में PN द्वारा इतनी बड़ी शॉर्ट सेलिंग पहले कभी नहीं देखि गयी है. इसके अलावा स्टॉक्स की शॉर्ट सेलिंग की मांग करने वाली एक्टिविस्ट एनालिस्ट रिपोर्टें भी अनूठी नहीं हैं, लेकिन इन रिपोर्टों से असली कीमत पर तब तक असर नहीं पड़ता जब तक उनके रिलीज होने की टाइमिंग को मार्केट में भाग लेने वालों के द्वारा की जा रही शॉर्ट सेलिंग की बड़ी मांगों के साथ बिलकुल परफेक्ट तरीके से मैच न किया जाए. मार्केट में भाग लेने वाले ये लोग कौन हो सकते हैं, ये करोड़ों खरबों रुपये का सवाल है. साथ ही, इंडियन मार्केट्स में स्टॉक्स की लिक्विडिटी को देखते हुए, फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट्स, पुट ऑप्शंस और डीप आउट ऑफ द मनी पुट ऑप्शंस ऐसे डोमेस्टिक उपकरण हैं जिनका इस्तेमाल इन ब्रोकरेज को विदेशी प्रभाव से बचाने और इनके प्रॉफिट के लिए किया जाता रहा है. इनके और इनके लाभकारी मालिकों के बारे में आसानी से जानकारी मिल सकती है. ये सभी समस्याएं SEBI और RBI के क्षेत्रों में आती हैं इसलिए हमें इनसे जवाब की उम्मीद बनाकर रखनी चाहिए. 


रेगुलेशंस में हैं ये समस्याएं


अब हम बात करेंगे रेगुलेशंस से जुड़ी समस्याओं के बारे में. अडानी ग्रुप के स्टॉक्स को इतनी ज्यादा ऊंचाई तक ले जाने वाले मुख्य कारणों में से एक इंडिया में स्टॉक डेरिवेटिव्स के अलावा स्टॉक्स की शॉर्ट सेलिंग को अनुमति न देना है. इंडिया में स्टॉक की शॉर्ट सेलिंग के लिए केवल सिक्योरिटीज बोर्रोविंग एंड लेंडिंग मैकेनिज्म SLB है, जिसे बहुत ही ध्यान से इस्तेमाल करना पड़ता है और यह बहुत ही भारी मैकेनिज्म है. ज्यादातर के लिए इंडिया केवल एक ‘लॉन्ग ओनली मार्केट’ है. शोर्ट सेलर्स के लिए हमारे दिलों में जो गुस्सा और नफरत है वह गलत है. हमें इस बात को समझना चाहिए कि शोर्ट सेलर्स ऐसे हालातों में फाइनेंशियल मार्केट्स को बैलेंस करने का काम करते हैं. इसीलिए, मुझे लगता है कि जो भी हुआ वो हमारे रेगुलेशंस के बीच स्थित स्ट्रक्चरल गैप की वजह से हुआ. न तो अडानी और न ही विदेशी इन्वेस्टर्स अपने फायदे के लिए इन लूपहोल्स का ढंग से इस्तेमाल कर पाए. जहां अडानी ने कैपिटल इकठ्ठा करने के लिए अपने स्टॉक की कीमतों को बढ़ाया. वहीं, विदेशी इन्वेस्टर्स ने अडानी द्वारा इंडियन मार्केट में शेयर्स की ओवर-प्राइसिंग की मदद से ऊपर उठाये गए आरबिट्रेज को खराब कर दिया, हां इस सबकी कीमत कुछ इंडियन इन्वेस्टर्स को भी चुकानी पड़ी. 


कम फ्लोटिंग स्टॉक्स और अस्थिर सिक्योरिटीज

स्ट्रक्चर के अनुसार भी अडानी ग्रुप ने इस तबाही को एक परफेक्ट मौके के रूप में पेश किया था. अडानी के पास बहुत ही कम फ्लोटिंग स्टॉक्स हैं क्योंकि सीमेंट जुड़वा (ACC और अम्बुजा) के अलावा 70% से 74% तक स्टॉक्स आधिकारिक रूप से प्रमोटर्स की होल्डिंग्स हैं. एक ठीक ठाक अंदाजा लगाएं, तो पता चलता है कि दोस्तों और एसोसिएट्स के पास 5% से 7% और LIC जैसी निष्क्रिय संस्था के पास लगभग 5% शेयर्स होंगे जिसके बाद मार्केट में एक्टिव ट्रेडिंग के लिए केवल 10% से 15% हिस्सा ही बचता है. कुछ ही लिस्टेड एंटिटीज वाला यह कैपिटल स्ट्रक्चर, अधिग्रहण की स्थिति में प्रमोटर्स के लिए एक सुरक्षा कवच साबित होता है. लेकिन साथ ही यह सिक्योरिटीज कम फ्लोटिंग स्टॉक्स की वजह से बहुत ही अस्थिर भी होती हैं. इंटरेस्टेड और कॉनसनट्रेटेड खरीदी या बिक्री होने पर इन सिक्योरिटीज के ऊपर स्टॉक मैनीपुलेशन के आरोप भी लगाए जा सकते हैं. हिंडनबर्ग ने अडानी के स्टॉक्स पर बढ़ते हुए यही आरोप लगाया था और जब स्टॉक में एक बड़ी गिरावट देखने को मिली तब उसका मूल कारण भी यही होना चाहिए था. मुख्य पॉइंट यही है कि स्टॉक्स में ऐसी मूवमेंट के दौरान हमें एक व्यक्ति चाहिए होता है जिसे मार्केट की बोलचाल में ‘जॉकी’ कहा जाता है. यह व्यक्ति शुरूआती गति को बनाये रखता है और स्टॉक्स के ऊपर जाने या नीचे आने पर उनकी गति को संतुलित करता है. यह सब अपने आप नहीं हो सकता. इस मामले में प्रमुख सामजिक कम्पनीज का उदाहरण देखा जा सकता है जिनकी गवर्नेंस बेदाग और शुद्ध है. विप्रो जैसी कंपनी, जिसके 85% से 90% स्टॉक्स प्रमोटर्स, एसोसिएट्स, और ट्रस्ट्स के पास हैं लेकिन फिर भी उसके स्टॉक्स ने कभी उपर जाते हुए या नीचे उतरते हुए बहुत वाइल्ड घुमाव नहीं देखा है. इसके पीछे एक ही प्रमुख कारण है और वो है प्रमोटर्स की विश्वसनीयता और फाइनेंशियल स्टेटमेंट्स में अटूट विश्वास. 


सर्जिकल स्ट्राइक में पकड़ा गया अडानी ग्रुप

इस स्ट्राइक की सीक्रेसी और सुनिश्चितता को देखते हुए इसे एक मिलिट्री ऑपरेशन से कम नहीं कहा जा सकता. बहुत ही सुव्यवस्थित तरीके से प्लान्ड, जबरदस्त टाइमिंग, और शानदार ढंग से लागू किये गए इस Kamikaze Attack में अगर कोई अडानी को ऑफ गार्ड पकड़ सकता था तो वो यह फैक्ट था कि इंडिया में इस ग्रुप के सामने खड़े होने की कोई हिम्मत नहीं करेगा. और आगे चलकर इसी बेशर्मी या कहें ओवर कॉन्फिडेंस की बदौलत विदेशी किनारों से हुई सर्जिकल स्ट्राइक में अडानी ग्रुप को नींद के दौरान ही दबोच लिया गया. जॉकी कौन था यह जानना बहुत ही जरूरी है लेकिन इस घटना ने इंडिया की फाइनेंशियल मार्केट्स को इन फैसलों से पैदा हुए खतरों से इंट्रोड्यूस किया है और साथ ही आने वाले समय में समान लक्षणों वाली ऐसी और अधिक एन्टिटीज के लिए संभावनाओं को भी खोला है. इसीलिए PN व्यवस्था पर रेगुलेशन को एलिमिनेट न सही पर कसने की जरूरत तो है ही. इसके साथ साथ रेगुलेटर्स द्वारा कहानी के फेज 1 को तीन सालों तक भरी रोशनी में चलाने की अनुमति देने पर उनकी जवाबदेही को भी कसना होगा.


डेमोक्रेसी में जरूरी है जवाबदेही 

मुझे देश के लेवल पर किसी कॉर्पोरेट गवर्नेंस के मुद्दे से कोई परेशानी नहीं है. बहुत अच्छे तरीके से नियंत्रित किए जाने वाले US और यूरोप के बाजारों ने भी बिजनेसों को सिस्टम के साथ खिलवाड़ करते देखा है. Enron (एनरोन) से लेकर बर्नी मैडऑफ (Bernie Madoff), Theranos (थेरानोस) और Wirecard (वायरकार्ड) जैसे नामों से बनी यह लिस्ट बहुत ही लम्बी है. लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान यह होने के बाद जो चीज सबसे जरूरी रही है वह है लूपहोल्स को बंद करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति और जवाबदेही को ठीक करना. संसद में अडानी स्टॉक की कीमतों को अप्राकृतिक बढ़ावा दिए जाने पर लगातार सवाल उठते रहे हैं. इसके साथ ही जोश से भरी हमारी MP (सांसद) महुआ मोइत्रा द्वारा SEBI, CVC और ED जैसी एजेंसिस को बार बार लिखे गए पत्रों को साल 2019 से ही इग्नोर किया जा रहा है. महुआ मोइत्रा ने वही काम किया जो सभी सांसदों को करना तो चाहिए लेकिन ज्यादातर कर नहीं पाते. ऐसा एक डेमोक्रेसी में संभव है यह कमेन्ट बहुत ही परेशान करने वाला है और साथ ही जवाबदेही के लिए हमारे संसद के सिस्टम की प्रधानता पर भी सवाल उठाता है. अडानी बोर्ड और CFO/CEO द्वारा रिलेटेड पार्टी ट्रांजेक्शन की तरफ से इग्नोरेंस और इन्वेस्टर्स की अस्पष्टता वाली बात मानना थोड़ा मुश्किल है हालांकि तकनीकी तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि बोर्ड और CFO/CEO अनुपालन नहीं कर रहे हैं.


अडानी के लिए भविष्य की यात्रा होगी मुश्किल

घोर कैपिटलिज्म की बात करें तो इस घटना पर अभी संसद चुप है और बेहतर यही होगा कि इस समस्या का समाधान वहीं हो. लेकिन हिंडनबर्ग एपिसोड से नुक्सान हो चुका है. इससे अडानी को विश्व भर में इक्विटी और डेब्ट के रूप में कैपिटल इकठ्ठा करने में मुश्किल होगी क्योंकि क्रेडिट एजेंसिस ने कंपनी को डाउनग्रेड कर दिया है और MSCI जैसे निष्क्रिय सूचकांकों से भी कंपनी को बाहर कर दिया गया है. और कंपनी के बिजनेस मॉडल को देखते हुए कैपिटल के फ्लो पर इसकी निर्भरता, भविष्य में इसकी ग्रोथ और रिटर्न्स की उम्मीदों में बदलाव करने होंगे. कंपनी के लिए अच्छी बात है कि उसके पास कैश फ्लो के पॉजिटिव बिजनेस और जमीनी स्तर पर एसेट्स हैं. आगे की मुश्किल यात्रा में सबसे जरूरी चीज कंपनी की मैनेजमेंट एफिशिएंसी है. कंपनी के स्टॉक्स की कीमतों में बीच टर्म में देखने को मिलेगा कि वह हिंडनबर्ग रिपोर्ट के आने से पहले वाले लेवल के मुकाबले कम पर ही सेटल हो जायेंगी. 


देश की राजनीति पर क्या होगा असर?

राजनीति के सम्बन्ध में बात करें तो इस घटना से राजनीतिक आउटकम पर किसी भी प्रकार का असर नहीं पड़ेगा क्योंकि मोदी सरकार ने मुश्किल समय में फॉरेन पॉलिसी डेब्ट की हैंडलिंग, गरीबों और वंचितों के उत्थान के लिए इकॉनोमिक और सामाजिक पॉलिसी में बदलाव जैसे अनेक क्षेत्रों में शानदार परफॉर्म किया है. पूरी मार्केट पर इस घटना का गहरा असर पड़ेगा खासकर बीच टर्म में जब PN व्यवस्था को हटाया जाएगा या उसको बदला जाएगा. हमारे हाई वैल्यूएशन और कैपिटल की कीमतों में होती वृद्धि की बदौलत यह तीसरी बार होगा जब मार्केट में तेजी को रोका जाएगा. लेकिन मैं मानता हूं कि जिस देश में कानूनी तौर पर धारक बांड्स का इस्तेमाल राजनीतिक पार्टियों को फण्ड करने के लिए किया जाता है वहां PN जैसे अस्पष्ट उपकरणों पर प्रतिबन्ध लगाने या उन्हें रोकने के लिए कोई खास बड़े फैसले नहीं लिए जायेंगे. बुल मार्केट्स में हमारे राजनीतिक और कॉर्पोरेट स्टेक के चलते आने वाले समय में हमें शॉर्ट सेलिंग की अनुमति नहीं मिलेगी. इसीलिए हमारी मार्केट्स में उपलब्ध ये कैसिनो ऐसे ही चलते रहेंगे क्योंकि हम सच जानते तो हैं लेकिन उसको संभाल पाने में असमर्थ हैं या कहें उसे समझना नहीं चाहते. 


साफ इमेज और भ्रष्टाचार मिटाने के नारे को बनाये रखने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को अपने स्टाइल के अनुसार दृढ़ निश्चय करते हुए दिखना होगा. और मुझे आने वाले कुछ हफ्तों में सरकार और रेगुलेटर्स से ठोस एक्शन की उम्मीद है. क्या हमें हमारे खोखले हो चुके संस्थानों पर विश्वास करना चाहिए या नहीं इस सवाल का जवाब वक्त ही देगा. ये इस बात पर भी निर्भर करेगा कि क्या हम इस घटना से कुछ सीख पाए या नहीं और क्या हमने हिम्मत करके हकीकत से डील किया या नहीं. तब तक एक से ज्यादा तरीकों में हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बम अडानी पर मंडराते रहेंगे.


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