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ब्रांडेड दवाएं महंगी और जेनरिक दवाएं सस्ती क्यों होती हैं? समझिये इसके पीछे का खेल
जब तक कोई दवा सिर्फ एक कंपनी बेच रही होती है तो वो उसके दाम अपने हिसाब से रखती है, क्योंकि उसके मुकाबले कोई दूसरी कंपनी उस दवा को नहीं बेच रही होती है
बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago
नई दिल्ली: कभी आपने सोचा है कि ब्रांडेड दवाएं इतनी महंगी क्यों होती हैं, और वहीं दवाएं जब जेनरिक हो जाती हैं तो इतनी सस्ती क्यों मिलती हैं. मतलब एक ही दवा, एक ही सॉल्ट और कीमतों में कम से कम दोगुने से भी ज्यादा का अंतर. क्या ब्रांडेड दवाएं ज्यादा अच्छी होती हैं और जेनरिक दवाएं कम असरदार. क्या इन दोनों की क्वालिटी में कोई फर्क होता है. चलिये आज इसी गुत्थी को सुलझाते हैं.
ब्रांडेड दवाएं क्यों महंगी होती हैं?
अमेरिका की Food and Drug Administration यानी FDA के मुताबिक जेनरिक दवाएं आमतौर पर ब्रांडेड दवाओं के मुकाबले करीब 85 परसेंट तक सस्ती हो सकती हैं. ब्रांडेड दवाएं क्यों महंगी होती हैं, इसकी पीछे कई कारण हैं. इसको एक-एक करके समझते हैं.
1. रिसर्च पर भारी भरकम खर्च
जब भी किसी बीमारी की दवा खोजी जाती है, उसके लिये कई सालों तक रिसर्च होती है, कई क्लीनिकल शोध होते हैं, जानवरों पर टेस्टिंग होती है, जिसकी लागत करोड़ों डॉलर में होती है. इसलिये जब भी कोई कंपनी इतनी भारी लागत के बाद कोई दवा बनाती है तो उसे पेटेंट करवाती है, उसको बनाने और बेचने का अधिकार कई सालों तक अपने पास रखती है ताकि उस दवा पर किये गए रिसर्च का खर्चा निकाल सके. एक जानकारी के मुताबिक किसी दवा को बनाने में 2.6 बिलियन डॉलर तक का खर्च आता है. इतना पैसा खर्च करने के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं होती है कि दवा मंजूर हो जाएगी, क्योंकि दवा के एक गलत असर से सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है करोड़ डॉलर बर्बाद हो सकते हैं. इसलिये जब भी कोई दवा मंजूर होती है तो कंपनी उस दवा को पेटेंट करवाती है और आने वाली 20 सालों तक उस दवा को बेचने का एकाधिकार रखती है. इसके बाद ही दवा को दूसरी कंपनियों को बनाने की इजाजत होती है, लेकिन वो काफी सस्ती इसीलिए होती हैं क्योंकि उन्होंने इस दवा को बनाने में रिसर्च या टेस्टिंग पर कोई पैसा खर्च नहीं किया होता है, उन्हें फॉर्मूला पता है, सॉल्ट पता है और वो इसे आसानी से सिर्फ बनाकर बेच रही हैं और मुनाफा कमा रही हैं.
2. कंपटीशन बढ़ने से जेनरिक दवाएं सस्ती
जब तक कोई दवा सिर्फ एक कंपनी बेच रही होती है तो वो उसके दाम अपने हिसाब से रखती है, क्योंकि उसके मुकाबले कोई दूसरी कंपनी उस दवा को नहीं बेच रही होती है, लेकिन वही दवा जब जेनरिक हो जाती है तो उसे कई कंपनियां बेचती हैं, इससे बाजार में कंपटीशन बढ़ जाता है, और दवाओं के दाम कम हो जाते हैं.
लोगों को ये भी पता होता है कि ये जेनरिक दवा है तो वो उसकी ब्रांडेड दवा लेने की बजाय जेनरिक दवा को खरीदते हैं, क्योंकि वो काफी सस्ती होती है.
3. मार्केटिंग-ब्रांडिंग पर खर्च
बड़ी बड़ी ब्रांडेड कंपनियां अपनी दवाओं की मार्केटिंग और ब्रांडिंग पर बहुत खर्च करती हैं. डॉक्टर्स और केमिस्ट्स के जरिये इन दवाओं को प्रमोट करने पर भी काफी खर्चा करती हैं, जिससे इसकी रिटेल कीमत बढ़ जाती है.
ब्रांडेड दवाएं असरदार या जेनरिक
अब सवाल उठता है कि क्या जेनरिक दवाएं भी ब्रांडेड दवाओं की तुलना में उतनी ही असरदार होती हैं, क्या जेनरिक दवाओं की क्वालिटी में कोई फर्क होता है. इसका जवाब है नहीं. जेनरिक दवाएं और ब्रांडेड दवाओं का फॉर्मूला एक ही होता है, लेकिन उनका आकार रंग, पैकेजिंग अलग हो सकते हैं. ड्रग प्राइस कॉम्पिटिशन एंड पेटेंट टर्म रिस्टोरेशन एक्ट 1984, जिसे हैच-वैक्समैन एक्ट के रूप में भी जाना जाता है, ये पेटेंट की अवधि खत्म होने के बाद कई ब्रांडेड दवाओं की जेनेरिक बिक्री की इजाजत देता है. किसी कंपनी को अगर किसी ब्रांडेड दवा को जेनरिक बिक्री की मंजूरी चाहिये तो ड्रग रेगुलेटर से मंजूरी लेनी होती है, कंपनी को सख्त मानकों का पालन करना होता है. यानी जब किसी ब्रांडेड दवा को जेनरिक की मंजूरी दी जाती है तो इस बात को सुनिश्चित किया जाता है कि उसकी शुद्धता, स्थिरता और क्वालिटी को लेकर किसी तरह का समझौता नहीं किया जाए.
अमेरिकी स्वास्थ्य बीमा दावों के एक तुलनात्मक अध्ययन के दौरान, शोधकर्ताओं ने पाया कि पुरानी शारीरिक स्थितियों के लिए ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं के तुलनीय चिकित्सा परिणाम थे. उन्होंने जिन स्थितियों को देखा उनमें हाइपर टेंशन, डायबिटीज, ऑस्टियोपोरोसिस और मानसिक स्थिति जैसे चिंता और अवसाद शामिल थे.
हालांकि, एक दूसरी रिसर्च में सामने आया है कि जेनेरिक दवाओं का कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों के लिए समान क्लीनिकल असर नहीं हो सकता. शोधकर्ताओं ने वैज्ञानिक डेटाबेस MEDLINE और EMBASE से रिपोर्ट का विश्लेषण किया. उन्होंने पाया कि 60% स्टडीज ने दवाओं के बीच कोई अंतर नहीं बताया, जेनेरिक दवा लेने वाले लोगों में अस्पताल के चक्कर लगाने का रिस्क ज्यादा था. हालांकि ये ध्यान रखना चाहिए कि ये सिर्फ एक को-रिलेशन है, इसका मतलब ये कतई नहीं कि जेनरिक दवाओं की वजह से अस्पतालों के चक्कर ज्यादा लगे.
अब ये कहना कि ब्रांडेड और जेनरिक दवाओं में कौन बेहतर है, इसके लिए अभी और शोध की जरूरत है, क्योंकि ज्यादातर मामलों में दोनों तरह की दवाओं का एकसमान असर देखा गया है. किसी व्यक्ति को जेनरिक दवाएं लेनी चाहिए या ब्रांडेड ये कई बातों पर निर्भर करता है. इसका सही फैसला मरीज की सेहत की स्थिति को देखते हुए हेल्थ प्रोफेशनल या डॉक्टर ही कर सकते हैं. डॉक्टर को दोनों तरह की दवाओं के लेकर चर्चा करनी चाहिये.
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