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BW Class: क्या है 'चीन प्लस वन' पॉलिसी? आखिर क्यों दुनिया की आंखों में चीन चुभने लगा?

दरअसल, ये कोई महीने या साल भर की घटना नहीं है. ये कई सालों की तड़प और घुटन का नतीजा है, जो अबतक सिर्फ किसी विकल्प की अनुपस्थिति की वजह से दबा हुआ था.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago

चीन मैन्यूफैक्चरिंग की दुनिया का वो पहिया है, जो अगर धीमा पड़ता है तो पूरी ग्लोबल अर्थव्यवस्था की गाड़ी थम जाती है. बीते 30 सालों से जो पश्चिमी देश सस्ते लेबर और कम लागत के लालच में चीन में बेतहाशा निवेश कर रहे थे, उनकी यही रणनीति अब गले की हड्डी बन चुकी है, और बीते कई सालों से तलाश शुरू हो चुकी है चीन के अलावा किसी एक और देश की, जो मैन्यूफैक्चरिंग के मामले में चीन का विकल्प बनकर खड़ा हो सके, इसे ही चीन प्लस वन पॉलिसी कहते हैं. 

चीन क्यों बना दुनिया का मैन्यूफैक्चरिंग हब
अब दुनिया की आंखों से चीन के उतरने की वजह क्या है, इसे समझने के लिए पहले ये समझना होगा कि चीन दुनिया की आंखों में चढ़ा कैसे. करीब 25-30 साल पहले तक अमेरिका समेत कई पश्चिमी देश चीन की पॉलिसीज को लेकर काफी उत्साहित रहते थे. चीन ने विदेश कंपनियों को आकर्षित करने के लिये अपनी पॉलिसी को काफी लचीला और आकर्षक बनाया था. जैसे - अगर किसी विदेशी कंपनी को चीन में कोई मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगानी है तो उन्हें सिंगल विंडो क्लीयरेंस की सुविधा मिलती है. फैक्ट्री के लिए जमीन भी आसानी से मुहैया हो जाती है. विदेशी कंपनियों के टैक्स को लेकर काफी छूट मिलती है, कंपनियों को कई साल तक टैक्स फ्री काम करने का मौका मिलता है, इसके बाद भी टैक्स में छूट मिलती रहती है, कॉर्पोरेट टैक्स दूसरे देशों के मुकाबले काफी कम रहता है. 

इसके अलावा चीन की फैक्ट्रियों में काम करने के लिये कामगार भी आसानी से मिलते हैं, जो नॉन स्किल्ड से लेकर हाई स्किल्ड तक होते हैं, जो काफी सस्ते भी होते हैं. इसके अलावा यहां कच्चा माल भी बहुत सस्ती दरों पर मिलता है. ये सारी सुविधायें किसी भी कंपनी को आकर्षित करने के लिए काफी हैं. चीन एक बहुत बड़ा उपभोक्ता भी है, ये विदेशी कंपनियों के लिए काफी फायदे की बात है, क्योंकि वो जो प्रोडक्ट बनाएंगे उनके उपभोक्ता घरेलू मार्केट में मौजूद हैं, साथ ही कंपनिया चीन में सस्ता सामान बनाकर महंगी कीमतों पर दुनिया भर में एक्सपोर्ट करके मोटा मुनाफा कमाती हैं. चीन की सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर पर बहुत फोकस करती है, ताकि जो कंपनियां काम करने के लिये आएं उन्हें एक बेहतर अनुभव मिले और वो सिर्फ अपने कारोबार पर फोकस कर सकें. सड़क, बिजली, पानी और दूसरी तमाम चीजें चीन की सरकार कंपनियों को मुहैया कराती है. 

अब चीन से निकलने को बेताब विदेशी कंपनियां 

अब ऐसा क्या हो गया कि विदेशी कंपनियां चीन से अपने तंबू उखाड़कर कहीं और गाड़ने पर आमादा है, दरअसल, ये कोई महीने या साल भर की घटना नहीं है. ये कई सालों की तड़प और घुटन का नतीजा है, जो अबतक सिर्फ किसी विकल्प की अनुपस्थिति की वजह से दबा हुआ था. चलिये समझते हैं कि वो क्या कारण हैं.  

चीन ने कॉर्पोरेट टैक्स बढ़ाया 

2007 तक चीन में अगर कोई कंपनी अपनी मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगा रही है तो उसे कॉर्पोरेट टैक्स 15 परसेंट देना पड़ता था, जबकि चीन की घरेलू कंपनियों को दोगुने से भी ज्यादा 33 परसेंट कॉर्पोरेट टैक्स देना होता था. लेकिन 2007 के बाद चीन की सरकार ने विदेशी कंपनियों के लिए प्रेफ्रेंशियल पॉलिसीज में बदलाव करना शुरू कर दिया. कॉर्पोरेट टैक्स को चीन और विदेशी कंपनियों के लिए बराबर कर दिया, दोनों ही कंपनियों को अब 25 परसेंट कॉर्पोरेट टैक्स देना होता है. चीन का मकसद अब अपनी घरेलू कंपनियों को बढ़ावा देना है, ये बात अब विदेशी कंपनियों पर भारी पड़ रही है. इसलिये विदेशी कंपनियां चीन से अपना निवेश निकालकर किसी और देश में जाने की सोच रही हैं. उन्हें अब किसी दूसरे एशियाई देश की तलाश है जहां वो अपना बिजनेस जमा सकें, ऐसे देशों में वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, बांग्लादेश और भारत है. 

पर्यावरण टैक्स लगाया 
लचीली पॉलिसी के चलते जब दुनिया भर की कंपनियों ने अपनी फैक्ट्री चीन में लगाई, तो पर्यावरण को लेकर खतरा पैदा होने लगा. शुरुआत में चीन की पॉलिसी में प्रदूषण जैसी चीजों को शामिल नहीं किया गया था, पूरा जोर इस बात पर था कि विदेशी कंपनियां ज्यादा से ज्यादा फैक्ट्रियां लगाएं. लेकिन जब प्रदूषण खतरे के निशान से ऊपर जाता दिखा तो चीन ने इसको रोकने के लिए इन कंपनियों पर पर्यावरण टैक्स लगाना शुरू कर दिया, कई तरह के कानून और शर्तें लागू कर दीं. इन शर्तों का उल्लंघन होने पर कंपनियों को अदालतों के चक्कर भी काटने पड़े. ये भी एक बड़ी वजह है कि चीन में काम कर रही कंपनियों ने कोई दूसरा विकल्प तलाश करना शुरू कर दिया. 

कामगारों का संकट 
जब कंपनियों ने आज से 25 साल पहले अपनी फैक्ट्रियां लगाईं थी, तब एक बड़ी आबादी युवा थी, लेकिन इतने सालों बाद चीन की एक बड़ी आबादी अब बूढ़ी हो चुकी है, जिससे लेबर को लेकर संकट पैदा हो गया है. दूसरी तरफ अब जो नई लेबर मार्केट में आ रही है वो सस्ती नहीं है, उनकी तनख्वाह पहले से ज्यादा है. मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में हर साल 10 परसेंट की सैलरी बढ़ोतरी का अनुमान है, इसके चलते बीते दो दशकों में लेबर दोगुना से ज्यादा महंगे हो चुके हैं. सैलरी बढ़ने से कंपनियों का मुनाफा कम हो रहा है, प्रोडक्ट की लागत बढ़ रही है. ये भी एक बड़ी वजह है कि कंपनियां चीन से अलग एक दूसरे विकल्प की तलाश है.

कोविड का असर 
पूरी दुनिया में कोविड महामारी के लिए चीन को ही जिम्मेदार माना जाता है. क्योंकि पहले तो चीन ने इस बीमारी को लेकर कोई जानकारी नहीं दी, इस बीमारी को छिपाया गया. चीन की इस हरकत से पूरी दुनिया को कोविड महामारी को झेलना पड़ा. दुनिया के सामने चीन की छवि इतनी खराब हो गई कि विदेशी कंपनियों ने अपना बिजनेस वहां से समेटना शुरू कर दिया. कई देशों में चीन को अलग थलग करने की रणनीति भी बनाई जा रही है और चीन प्लस वन पॉलिसी उसी का हिस्सा है. 

क्या भारत बनेगा चीन का विकल्प 
क्या चीन प्लस वन से भारत को फायदा हो सकता है? क्या भारत वो सबकुछ दे सकता है जो चीन से निकलने वाली कंपनियों को चाहिये. तो इसका जवाब है हां, बिल्कुल दे सकता है. दुनिया की जीडीपी पर 40 परसेंट कब्जा रखने वाले देशों के लिए भारत एक बेहद मुफीद जगह हो सकती है, खासतौर पर मैन्यूफैक्चरिंग को लेकर. इसके कई कारण हैं. भारत में Ease Of Doing Business पर काफी तेजी से काम हो रहा है, सिंगल विंडो क्लीयरिंस, आसानी से जमीन अधिग्रहण कुछ ऐसे कदम हैं जो कंपनियों को आकर्षित कर सकते हैं. भारत की ज्यादातर आबादी अंग्रेजी बोलने वाली, टेक्नोलॉजी को समझने वाली है. भारत का ज्यादातर सिस्टम डिजिटल है, जिससे कंपनियों को ज्यादातर मंजूरियां या दूसरे काम ऑनलाइन ही हो जाएंगे. सरकार ने इंफ्रस्कट्रक्चर पर बीते कुछ सालों में शानदार काम किया है. 

सबसे जरूरी बात भारत में अब भी दुनिया की सबसे युवा आबादी है, 130 करोड़ आबादी वाले देश में आधे से ज्यादा आबादी 25 साल से कम उम्र की है. दो तिहाई आबादी 35 साल से कम है. साल 2027 तक भारत दुनिया का सबसे बड़ा वर्कफोर्स बन जाएगा. इसके साथ ही भारत उपभोक्ता के लिहाज से भी एक बड़ा मार्केट है. जो कंपनियों के लिए फायदेमंद है. आपको बता दें कि इस साल जुलाई के अंत में, भारत, अमेरिका और यूरोपीय संघ सहित 18 अर्थव्यवस्थाओं के एक समूह ने सामूहिक सप्लाई स्थापित करने के लिए एक रोडमैप को पेश किया, जो लंबी अवधि में ललीचा होगा. रोडमैप में सप्लाई चेन की निर्भरता और कमजोरियों का मुकाबला करने के लिए कदम भी शामिल हैं. इसे चीन-प्लस-वन रणनीति के हिस्से के रूप में देखा जा सकता है. 

 

 

 


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