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BW Class: क्या होती है डीलिस्टिंग, निवेशकों पर इसका क्या असर होता है, समझिए आसान भाषा में

जब कोई कंपनी डीलिस्ट होती है, तो उसके शेयरों की खरीद फरोख्त नहीं होती, सिर्फ कंपनी या उसके प्रमोटर की उसके शेयरों को खरीद सकते हैं.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो 1 year ago

कई बार आप सुनते होंगे कि किसी कंपनी ने खुद को डीलिस्ट करवा लिया है, इसका क्या मतलब है, क्योंकि लिस्टिंग तो समझ आती है, लेकिन डीलिस्टिंग से क्या होता है और कंपनियां आखिर ऐसा करती क्यों हैं, इससे उन निवेशकों के ऊपर क्या असर पड़ता है जिनके पास उस कंपनी के शेयर मौजूद होते हैं. 

क्या होती है डीलिस्टिंग?
सबसे पहले तो समझते हैं कि डीलिस्टिंग क्या होती है, लिस्टिंग का ठीक उल्टा होता है डीलिस्टिंग. जैसे लिस्टिंग में कोई कंपनी IPO लाती है और शेयर बाजार में लिस्ट होती है. उसके बाद उस कंपनी के शेयरों में ट्रेड शुरू होती है. यानी जब कोई कंपनी लिस्ट हो जाती है तो वो कंपनी निजी कंपनी से पब्लिक लिस्टेड कंपनी बन जाती है, यानी पब्लिक उस कंपनी की बिजनेस ग्रोथ में हिस्सेदारी ले सकती है. लेकिन डीलिस्टंग में इसके ठीक उल्टा होता है. जब कोई कंपनी पब्लिक लिस्टेग कंपनी ने वापस प्राइवेट कंपनी बनाया जाए तो उसे ही डीलिस्टिंग कहते हैं. जब कंपनी डीलिस्ट हो जाती है तो उसके शेयरों में ट्रेडिंग भी नहीं सकती.

डीलिस्टिंग भी दो तरह से होती है. 
1- Involuntary Delisting- इसका मतलब है कि कंपनी की इच्छा डीलिस्टिंग की नहीं है लेकिन हालात ऐसे बन जाते हैं कि उसे मजबूरी में आकर डीलिस्ट करना पड़ता है. जैसे कंपनी दिवालिया हो जाए, उसका किसी और कंपनी में विलय हो जाए और कंपनी इसको डीलिस्ट करा दे. अगर कंपनी सेबी या एक्सचेंज की लिस्टिंग गाइडलाइंस पर खरा नहीं उतरे तो सेबी इस कंपनी को डीलिस्ट कर सकता है. 

2- Voluntary Delisting - इसमें कंपनी खुद ही डीलिस्ट होकर वापस से प्राइवेट कंपनी बनना चाहती है. ऐसा इसलिए हो सकता है कि उस कंपनी को प्राइवेट होने में ज्यादा फायदा दिख रहा है, पब्लिक लिस्टेड कंपनी होने की वजह से वो काफी दायरों में बंध जाती है. पब्लिक लिस्टेड कंपनी के लिए कंप्लायंस ज्यादा होते हैं, मुनाफे, डिविडेंड में सभी की हिस्सेदारी होती है. अगर कंपनी नहीं चाहती कि वो अपनी ग्रोथ की हिस्सेदारी किसी को दे तो वो खुद को डीलिस्ट कराने की सोचती है

डीलिस्टिंग में निवेशकों का क्या होता है 
जब कोई कंपनी डीलिस्ट होती है, तो उसके शेयरों की खरीद फरोख्त नहीं होती, सिर्फ कंपनी या उसके प्रमोटर की उसके शेयरों को खरीद सकते हैं, इस प्रक्रिया को रिवर्स बुक बिल्डिंग कहते हैं. डीलिस्टिंग के लिए कंपनी एक फ्लोर प्राइस तय करती है, फिर एक बिडिंग अवधि रखी जाती है, जिसके अंदर ही निवेशकों को फ्लोर प्राइस पर बिडिंग करनी होती है. जब सभी निवेशक अपनी बोलियां लगा लेते हैं तो प्राइस डिस्कवरी होती है, ठीक वैसे ही जैसे IPO लाते समय बुक बिल्डिंग प्रक्रिया के तहत किया जाता है लेकिन यहां उसे रिवर्स बुक बिल्डिंग कहते हैं. इसके बाद कंपनी एक फाइनल प्राइस का ऐलान करती है. अगर कंपनी का ये ऑफर प्राइस निवेशकों को पसंद आता है तो वो अपने शेयर कंपनी को बेच देते हैं. 10 दिन के अंदर कंपनी की जिम्मेदारी होती है कि वो सभी निवेशकों जिन्होंने डीलिस्टिंग प्रोसेस में हिस्सा लिया था उनका पेमेंट कर दे. 

अगर बिडिंग प्रक्रिया से चूक गए
मगर मान लीजिए कि इस बिडिंग अवधि के दौरान कुछ निवेशकों जिन्होंने इस बिडिंग प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लिया, तो उनका क्या होा, क्या उनके शेयर बेकार हो जाएंगे. जी नहीं- ऐसे निवेशक जिनके पास कंपनी के शेयर पड़े हैं उनके पास 1 साल का वक्त होता है कि वो अपने शेयर फाइनल एक्जिट ऑफर प्राइस पर अपने शेयरों को बेच दें.

 


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