IBLF: लाइफ कोच गौर गोपाल दास ने दिया जीवन में खुश रहने का मंत्र

‘BW Business World’ द्वारा ‘इंडिया बिजनेस लिटरेचर फेस्टिवल’ (IBLF) के दूसरे एडिशन में लाइफ कोच और मोटिवेशनल स्पीकर गौर गोपाल दास ने अपने विचार रखे.

Last Modified:
Thursday, 12 January, 2023
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#IBLF देश के प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान ‘BW Business World’ द्वारा ‘इंडिया बिजनेस लिटरेचर फेस्टिवल’ (IBLF) के दूसरे एडिशन का आयोजन गुरुग्राम स्थित The Leela होटल में किया गया. इस कार्यक्रम में देश-विदेश के शीर्ष लेखक, शिक्षाविद, विद्वान और प्रकाशकों ने शिरकत की. इस मौके पर लाइफ कोच और मोटिवेशनल स्पीकर गौर गोपाल दास (GAUR GOPAL DAS) ने भी अपनी किताब Energize Your Mind: A Monk's guide to mindful living के बारे में बताया. साथ ही उन्होंने यह भी समझाया कि लाइफ में खुश कैसे रहा जाए.

खुश रहना विकल्प है
गौर गोपाल दास ने अपने फ्लाइट के खराब अनुभव का जिक्र करते हुए कहा कि मेरे साथ बहुत ऐसा हुआ, जो मुझे अशांत करने की क्षमता रहता था, लेकिन इसके बावजूद मैं शांत रहा और शांति के चलते ही आपके सामने बोलने की स्थिति में हूं. क्योंकि डिस्टर्ब माइंडसेट में आप कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते. उन्होंने कहा – किसी भी परिस्थिति में हमें कैसा रियेक्ट करना है, ये पूरी तरह से हम पर निर्भर करता है. खुश रहिये, जीवन है, परेशानियां आएंगी ही. खुश रहना एक विकल्प है, और हमें वही चुनना है.

इनसे लगता है डर
गौर गोपाल दास ने आगे कहा कि लाइफ में अधिकांश लोग 3 चीजों से डरते हैं: पहला, भीड़ के सामने बोलना, दूसरा – मृत्यु और तीसरा हवाई जहाज में सफर करना. लेकिन इस लिस्ट में आजकल 3 और डर जुड़ गए हैं. मोबाइल फोन की बैटरी का जाना, वाई-फाई का सिग्नल का न मिलना और बफरिंग. लाइफ की परेशानियों की बात करते हुए उन्होंने कहा कि जिस तरह फ्लाइट के टेक ऑफ और लैंडिंग पर हमारा नियंत्रण नहीं होता, उसी तरह परेशानी या समस्या भी हमारे बस में नहीं हैं. हमारे बस में है, तो लेवल इतना ही हम पर कैसे रियेक्ट करते हैं. हम शांत रहने, खुश रहने का विकल्प चुनते हैं या नहीं. 

पीस ऑफ माइंड नहीं
लाइफ कोच ने कहा - हर लाइफ का अंत होता है, सबकी लाइफ में समस्याएं आती हैं. मौत को लोग यूं ही बदनाम करते हैं, वरना तकलीफ जिन्दगी से है. आज सबकी जिंदगी परेशानियों से भरी हुई है. ऑफिस पॉलिटिक्स, आसपास मौजूद टॉक्सिक लोग. वो पैसा कमा रहे हैं, लेकिन पीस ऑफ माइंड नहीं है, उन्हें चैन की नींद नहीं आती. हम इंसान हैं तो हमें दुख भी होगा और खुशी भी, लेकिन हम हर परिस्थिति में कैसे रियेक्ट करते हैं, ये पूरी तरह हम पर होता है. खुश रहने का सोचिये, खुश रहने की कोशिश कीजिये.

किताब में साझा किए अनुभव
गौर गोपाल दास ने कहा कि Energize Your Mind: A Monk's guide to mindful living में उन्होंने अपने अनुभवों को शामिल किया है. वह मानते हैं कि लाइफ एक जर्नी है, और हमें चलते रहना है. कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो, हमें बस चलते रहना है. उन्होंने कहा कि संयास महज संतों जैसे कपड़े धारण करना नहीं, बल्कि माइंडसेट है. जिस दिन आप इस माइंडसेट को क्रैक कर लेंगे, आप भी Monk बन जाएंगे. अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि हमारा दिमाग सबसे शक्तिशाली है, यही स्वर्ग को स्वर्ग और नर्क को नर्क बनाता है. आप जो सोचते हैं, वैसा ही महसूस करते हैं. इसलिए पॉजिटिव अप्रोच रखें, खुश रहना, शांत रहना चुनें.


चिट्ठी आई है से लेकर कई गजलों को आवाज देने वाले पंकज उधास का हुआ निधन…एक युग का हुआ अंत 

हालांकि पंकज उधास ने अपने जीवन काल में गजलें भी बहुत गाई. लेकिन चिट्ठी आई है गीत पंकज उधास की एक बड़ी पहचान बनकर सामने आया. 

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो by
Published - Monday, 26 February, 2024
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Monday, 26 February, 2024
Pankaj Udhas

चिट्ठी आई है गीत गाने वाले पंकज उधास का 72 साल की उम्र में मुंबई में निधन हो गया. उनकी मौत की जानकारी उनकी बेटी नयाब उधास ने इंस्‍टाग्राम के जरिए दी. पंकज उधास लंबे से बीमार थे और उन्‍हें 10 दिन पहले मुंबई के एक अस्‍पताल में भर्ती कराया गया था. पंकज उधास को पद्म श्री से भी सम्‍मानित किया गया था. उनके निधन पर इंडस्‍ट्री के कई मशहूर अभिनेताओं से लेकर गीतकारों ने दुख जताया है और इसे एक युग का अंत बताया है. 

उनकी बेटी ने इंस्‍टाग्राम के जरिए दी जानकारी 

पंकज उधास की बेटी नयाब उधास ने इंस्‍टाग्राम पर एक पोस्‍टर के जरिए जानकारी देते हुए बताया कि बड़े भारी मन से आपको संबोधित करते हुए कहना पड़ रहा है कि पद्ममश्री पंकज उधास का 26 फरवरी को निधन हो गया. वो लंबे समय से बीमारी से ग्रसित थे.  

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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बॉलीवुड के कई फनकारों ने जताया दुख 

मशहूर गजल गायक पंकज उधास के निधन पर बॉलीवुड के गायक सोनू निगम और शंकर महादेवन ने दुख जताया है. इंस्‍टाग्राम पर इस संबंध में शोक जताते हुए लिखा कि मेरे बचपन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा आज खो गया है. पंकज उधास जी, मैं आपको हमेशा याद करूंगा. यह जानकर मेरा दिल रोता है कि आप नहीं रहे. शांति

 


युवाओं के लिए संजीवनी बूटी है फजले गुफरान की किताब ‘मेरे राम सबके राम’!

अगर सच में समाज में ‘राम-राज्य’ लाना है, तो श्रीराम को आध्यात्मिक रूप से देखना और समझना बेहद जरूरी है.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो by
Published - Thursday, 28 September, 2023
Last Modified:
Thursday, 28 September, 2023
Mere ram sabke ram

भारत में किसी से दुआ-सलाम करनी हो तो अक्सर ‘राम-राम’ कह दिया जाता है. इस छोटी सी बात से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ‘राम’ का नाम हमारे जीवन में कितनी गहराई तक बसा हुआ है. लेकिन अक्सर ही ‘राम’ नाम राजनीति के गलियारों में भी गूंजता सुनाई देता है. ऐसे में कभी-कभी लगता है कि आखिर राम हैं किसके? इन्हीं सवालों को तलाशने की कोशिश में हमने कई किताबें पढ़ी और इसी कड़ी में वरिष्ठ पत्रकार और लेखक, फजले गुफरान की किताब ‘मेरे राम सबके राम’ को पढ़ने का मौका मिला.

राम नाम का सच्चा अर्थ 
फजले गुफरान की किताब को पढ़ते हुए राम नाम का सच्चा अर्थ और उसकी व्याख्या तो समझ आते ही हैं साथ ही यह भी समझ आता है कि राम को सिर्फ एक संप्रदाय से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. अगर समाज में ‘राम-राज्य’ लाना है, तो श्रीराम को आध्यात्मिक रूप से देखना और समझना बेहद जरूरी है. किताब में आपको श्रीराम से जुड़े कई सवालों के जवाब तो मिलेंगे ही, साथ ही उनकी वंशावली से लेकर राम मंदिर से जुड़े कई रोचक किस्सों को इस तरह से गढ़ा गया है कि आप इस किताब से आंखें नहीं हटा पाएंगे.

विदेशों में श्रीराम 
वैसे तो श्रीराम का स्वरूप इतना ज्यादा बड़ा है कि आपने उनके कई स्वरूपों के दर्शन किताबों, फिल्मों और नाटकों के जरिए किए ही होंगे. लेकिन असल में राम के आदर्शों, जीवन मूल्यों और उनकी सत्यनिष्ठा से रूबरू कराती इस किताब से हमें विदेशों में ‘राम’ नाम का महत्व जानने का मौका भी मिलता है. किताब पढ़कर गर्व महसूस हुआ कि हमारा देश कितना महान है, जिसके राम दुनिया के हर देश के राम हैं. 

युवाओं के लिए संजीवनी बूटी
'मेरे राम सबके राम' में कई ऐसे सवाल भी उठाए गए हैं कि क्या कलियुग में राम राज्य लाना मुमकिन है? क्या हम श्रीराम की तरह कड़े संघर्षों से गुज़रकर आजीवन आदर्शों का पालन कर सकते हैं? कई ऐसे सवालों के जवाब बहुत ही सरल और सीधे तरीके से दिए गए हैं. इस किताब को पढ़कर लगा कि लेखक ने किताब की हर कथा और कथन को बेहद गहराई से समझाने की कोशिश की है. किताब आज के युवाओं के लिए संजीवनी बूटी है, जिसे पढ़कर वह असल राम की पहचान कर पाएंगें.

भारत और श्रीराम
प्रभात प्रकाशन के सौजन्य से प्रकाशित हुई इस किताब में लेखक फजले गुफरान ने भारतीय संविधान के संदर्भ में भी श्रीराम के आदर्शों को बड़े अच्छे तरीके से उकेरा है. श्रीराम के शासन को भारतीय परिप्रेक्ष्य में जिस तरह से पेश किया है, आम आदमी को उसे समझने की बहुत ज्यादा जरूरत है और किताब में इसे बेहतरीन ढंग से पेश किया गया है. किताब में श्रीराम के पौराणिक किस्से और कहानियों की बजाय उनके इतिहास को साक्ष्यों के आधार पर प्रस्तुत किया है. इसे पढ़कर श्रीराम का इतिहास समझ आता है. 

क्यों किसी एक के नहीं हैं राम?
लेखक फजले गुफरान ने इस किताब में श्रीराम को हर इंसान से जोड़ने की कोशिश की है और किताब का शीर्षक मेरे राम सबके राम इस बात को सिद्ध करता है. वैसे भी राम किसी एक संप्रदाय के हो ही नहीं सकते क्योंकि उनके आदर्शों को पूरी दुनिया मानती है. अगर आप राम को अलग नजरिए से जानना चाहते हैं, तो यह बेहतरीन किताब है, जिसे आपको जरूर पढ़ना चाहिए.
 

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निरंतर बढ़ रही है बिजनेस की दुनिया में 'हिंदी' भाषा की सक्रियता

कुछ अंग्रेजी के दबाव व कुछ अंतर्विरोधों के कारण हिंदी कुछ समय के लिए दबी जरूर रही लेकिन अब हिंदी की स्थिति लगातार बहुत अच्छी होती जा रही है. 

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो by
Published - Thursday, 14 September, 2023
Last Modified:
Thursday, 14 September, 2023
Hindi Diwas

सीमाराम गुप्‍ता मन द्वारा उपचार’ पुस्‍तक के लेखक और कई भाषाओं के जानकार 

कहा जाता है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है. यदि किसी चीज की आवश्यकता ही नहीं होगी तो उसका आविष्कार भी नहीं होगा और आविष्कार हो गया तो वो व्यर्थ जाएगा. समाज को उसका कोई लाभ नहीं होगा. इसी आवश्यकता के अंतर्गत दुनिया में अनेक भाषाओं और भाषा शैलियों का विकास हुआ और अब भी हो रहा है. व्यावसायिक दृष्टि से ये और भी महत्त्वपूर्ण है. यदि हिंदी के संदर्भ में देखें तो यह आज पहले से अधिक महत्त्वपूर्ण व प्रासंगिक हो गया है जिसकी उपेक्षा असंभव है. हिंदी का विकास किसी विवशता के कारण नहीं हुआ. यह स्वाभाविक रूप से स्वतः विकसित एक महत्त्वपूर्ण भाषा है. जब किसी आवश्यकता के लिए किन्हीं नई भाषाओं अथवा भाषा शैलियों का विकास संभव है तो ऐसे में हिंदी जैसी स्थापित भाषा की स्थिति तो पहले से ही अत्यंत सुदृढ़ है.

हिंदी सिर्फ व्‍यवहार की नहीं, बल्कि व्‍यापार की भी भाषा बन चुकी है
कुछ अंग्रेजी के दबाव व कुछ अंतर्विरोधों के कारण हिंदी कुछ समय के लिए दबी जरूर रही लेकिन अब हिंदी की स्थिति लगातार बहुत अच्छी होती जा रही है. यह भारतीय संस्कृति व हिंदी साहित्य के साथ-साथ विश्व व्यापार की भाषा भी बन चुकी है. आज भारत विश्व का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन चुका है. दुनिया के इस सबसे अधिक आबादी वाले देश में हिंदी न केवल सबसे अधिक लोगों द्वारा व्यवहार में लाई जाती है अपितु आपसी संपर्क की भी एकमात्र भाषा है. इसलिए स्वाभाविक रूप से हिंदी का बहुत अधिक महत्त्व है. जब भारत विश्व का सबसे अधिक आबादी वाला देश है तो विश्व व्यापार की दृष्टि से भी बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है. इससे देश की प्रमुख भाषा हिंदी की उपयोगिता स्वतः बढ़ जाती है.

पूरी दुनिया के कारोबारी हिंदी सीखने को उत्‍सुक हैं
भारत एक बड़ा उपभोक्ता और उत्पादक देश है. अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और लाभ के लिए ही सही लेकिन दुनिया के लोग हिंदी को महत्त्व देने लगे हैं जो हिंदी के अधिकाधिक विकास के लिए एक अच्छा अवसर है. हिंदी के विकास के लिए इस अवसर का लाभ उठाना अनुचित नहीं होगा. जिस प्रकार से पिछले एक-डेढ़ दशकों में चीन से सामान लाने वाले व्यापारियों ने चीनी भाषा सीखने और व्यवहार में लाने के प्रयास किए हैं उसी प्रकार से आज पूरी दुनिया के लोग हिंदी सीखने और उसे व्यावहार में लाने के लिए उत्सुक हैं. यदि हिंदी सीखने के लिए इन व्यक्तियों की मदद की जाए तो हिंदी के विकास के लिए ये एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा. इससे हिंदी में क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकते हैं. आज व्यापार में हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है. व्यापार में ही नहीं अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी हिंदी का प्रयोग दुनिया की अन्य भाषाओं की तरह ही किया जा रहा है.

विज्ञापन की दुनिया में हिंदी का है एकाधिकार 
संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी के प्रयोग का बीजारोपण बहुत पहले ही हो चुका है. हमारे देश के प्रधानमंत्री दुनिया में जहां भी जाते हैं हिंदी भाषा ही व्यवहार में लाने का प्रयास करते हैं जो हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ाने के साथ-साथ इसे वैश्विक स्तर पर स्वीकृति दिलवाने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है. जी-20 में जिस स्तर पर हिंदी का प्रयोग किया गया वह हिंदी को व्यवसायिक जगत में महत्त्व दिलाने के लिए पर्याप्त होगा. विज्ञापन व्यावसायिक जगत का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है. विज्ञापन जगत की बात करें तो भारत में हिंदी का एकाधिकार स्थापित हो चुका है. देश-दुनिया के सभी उत्पादों को हम हिंदी में जान सकते हैं. इससे उत्पादों को बड़ा बाज़ार मिलने के साथ-साथ हिंदी का विकास भी हो रहा है. हिंदी की व्यावसयिक जगत में पहुंच बढ़ रही है. हम कह सकते हैं कि व्यावसायिक जगत में हिंदी की सक्रियता व वर्चस्व निरंतर नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं. यह हिंदी भाषा और व्यावसायिक जगत दोनों के लिए प्रसन्नता की बात है.


आजादी के 76 साल बाद भी 'राष्ट्रभाषा' ना बन पाने की टीस को महसूस करती हिंदी

संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषाओं का दर्जा मिला हुआ है, उनमें हिंदी भी एक है. फिलहाल, भारत की कोई 'राष्ट्रभाषा' नहीं है. 

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो by
Published - Thursday, 14 September, 2023
Last Modified:
Thursday, 14 September, 2023
Hindi Diwas

उमेश जोशी "वरिष्‍ठ पत्रकार" की कलम से....

आजादी के 76 साल बाद भी 'राष्ट्रभाषा' ना बन पाने की टीस से बिलबिलाती हिंदी को आज के दिन याद कर सम्मान देने की हम महज रस्म अदायगी करते हैं. इसकी बेहतरी के लिए कोई कोई ठोस उपाय करने की दिशा में सोचा भी नहीं जाता. यही वजह है कि 'भारत' की 'हिंदी', 'हिंदुस्तान' की 'हिंदी' अभी तक 'राजभाषा' या राजकीय भाषा या आधिकारिक भाषा (संविधान में अंग्रेजी में Official Language लिखा हुआ है) ही कहलाती है, 'राष्ट्रभाषा' का दर्जा नहीं मिल पाया. अब तक हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए गंभीर प्रयास ही नहीं किए गए. गंभीर प्रयास के बावजूद 'राष्ट्रभाषा' का दर्जा ना मिले, यह नामुमकिन है. संविधान से अनुच्छेद 370 (जिसे धारा 370 कहते हैं) हटाना नामुमकिन-सा लगता था. जब वो काम मुमकिन हो सकता है तो हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने का काम भी 'नामुमकिन' नहीं होना चाहिए.

अंग्रेजी अखबार के ऊंचे भाव
कई बार लिख चुका हूं कि हिंदी के साथ सिर्फ राजनेता और मीडिया के संस्थान ही सौतेला व्यवहार नहीं करते, रद्दी अखबार खरीदने वाला भी करता है. वो हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी अखबार हमेशा अपेक्षाकृत ऊंचे भाव पर खरीदता है. एक बार मैंने उसे समझाया कि मैं खुद अखबार में काम करता हूं. हिंदी और अंग्रेजी अखबार एक कागज और एक ही स्याही से मशीन पर छपते हैं फिर दोनों में फर्क कैसे हो सकता है! वो कतई मानने को तैयार नहीं था. उसने हमेशा हिंदी अख़बार के कम भाव दिए. उसने परोक्ष रूप से मुझे समझा भी दिया कि हिंदी की 'वैल्यू' अंग्रेजी के मुकाबले कम है. यह सच भी है और इसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं. मेरी हठधर्मिता थी कि रद्दीवाले का ज्ञान स्वीकार नहीं कर रहा था.

राष्ट्रगान है पर राष्ट्रभाषा नहीं
संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषाओं का दर्जा मिला हुआ है उनमें हिंदी भी एक है. फिलहाल, भारत की कोई 'राष्ट्रभाषा' नहीं है. भारत का राष्ट्रीय गान है, राष्ट्रीय ध्वज है, राष्ट्रीय पक्षी है, राष्ट्रीय पशु है, राष्ट्रीय जलीय जीव है, और भी कई राष्ट्रीय प्रतीक हैं लेकिन राष्ट्रीय भाषा नहीं है. अब हिंदी जैसी है, 'वैसी ही हिंदी' की शुभकामनाएं स्वीकार करें. टीवी चैनल के पत्रकारों से विनम्र निवेदन और प्रार्थना करता हूं कि हिंदी पर उपकार करें; उसका स्वरूप बिगाड़ने का 'अपराध' ना करें. किसी भी भाषा का स्वरूप बिगाड़ना 'सांस्कृतिक अपराध' है. दुनिया की कोई भी भाषा हो, उसका एक व्याकरण होता है. उससे हटने का अर्थ है स्वरूप बिगाड़ना. टीवी चैनलों पर इस्तेमाल हिंदी का व्याकरण से कोई नाता नहीं है. घर के नियम बच्चे को अनुशासन सिखाते हैं, वैसे ही व्याकरण भाषा को अनुशासन सिखाती है. अनुशासनहीनता बेहद घातक होती है इसलिए जिम्मेदार ओहदों पर बैठे लोग भाषा को अनुशासनहीन ना खुद बनाएं और ना किसी को बनाने दें.

आज के दिन अवश्य विचार करें
टीवी चैनल के एक संपादक को स्क्रीन पर दिख रहा गलत शब्द दुरुस्त करने का आग्रह किया तो उन्होंने दलील दी कि बिगड़ा हुआ शब्द अब प्रचलन में आ गया है. हम सभी ऐसा ही सोचते हैं. हमने कभी सोचा है कि यह प्रचलन में क्यों आया! इस बात पर कम से कम आज के दिन विचार अवश्य करें.
हिंदी की बात चली है तो एक किस्सा भी सुना देता हूं. हिंदी दिवस से इसका कोई संबंध नहीं है. मैं हमेशा महसूस करता हूं कि कोई जुमला चलन में आ जाता है तो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है. आमजन बिना सोचे समझे उसे इस्तेमाल करता है. पिछले 50 साल से दिल्लीवासियों से हूबहू एक जैसा जुमला सुनता आ रहा हूं; कोई बदलाव नहीं आया. बस से उतरने वाला हर यात्री (50 साल के सुन रहा हूं) ड्राइवर से कहता है- यहां रोक कर चलना. कोई उनसे पूछे कि रोकना और चलना दो विरोधाभासी शब्द हैं. कोई 'रोक कर' कैसे चल सकता है! ड्राइवर भी उसी श्रेणी का है. वह भी बस 'रोक' कर 'चलता' है. मेरा मानना है कि आमजन भी मीडिया से प्रभावित होता है इसलिए मीडिया जिम्मेदारी और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करे.
 


माधोपुर का घर’ एक उपन्‍यास है जो तीन पीढ़ियों की कहानी कहता है: त्रिपुरारी शरण 

माधोपुर का घर एक ऐसा उपन्‍यास है, जिसे नई विधा में लिखा गया है साथ ही इसे बेहद रोचक तरीके से लिखा गया है. ये एक ऐसी कहानी है जिसमें कई दिलचस्‍प किरदार हैं जो कहानी को और मार्मिक बना देते हैं.

Last Modified:
Monday, 14 August, 2023
Tripurari Sharan

समाज में घटित होने वाली घटनाओं को एक नए रोचक तरीके से सामने लाता उपन्‍यास ‘माधोपुर का घर’ एक दिलचस्‍प कहानी है. इस उपन्‍यास को बिहार के पूर्व चीफ सेक्रेट्री और कई अन्‍य महत्‍वपूर्ण पदों पर रहे त्रिपुरारी शरण ने लिखा है. माधोपुर का घर समाज के उन अनछुए पहलुओं को आपके सामने लेकर आता है, जिसे आपने शायद अभी तक नहीं पढ़ा होगा. इस पुस्‍तक पर दिल्‍ली के आईआईसी में एक व्‍याख्‍यान आयोजित किया गया. इस कार्यक्रम में इसके लेखक त्रिपुरारी शरण, साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार से सम्‍मानित लेखिका अनामिका और उपन्‍यासकार वंदना राग मौजूद रहीं. 

लेखक बोले एक नई विधा में लिखी है पुस्‍तक 
‘माधोपुर का घर’ को लेकर त्रिपुरारी शरण कहते हैं कि ये एक ऐसा उपन्‍यास है जो तीन पीढ़ियों के इतिहास को कहता है. इसमें समाज और व्‍यक्ति के इतिहास को मिलाकर अपनी कहानी कहता है. इसे एक नए तरीके से पेश करने की कोशिश की गई है. इसके पात्रों के बारे में बताते हुए वो कहते हैं कि, इसमें एक बाबा हैं, एक दादी हैं और एक लोरा है जो एक डॉग है. जो इसकी मुख्‍य पात्रा है जो कहानी कहती है. अब कहानी में क्‍या गुण है और क्‍या अवगुण है ये आपको कहानी को पढ़ने के बाद ही पता चलेगा. इस पुस्‍तक को लिखने के उद्देश्‍य के बारे में बताते हुए वो कहते हैं कि, जिसे मैंने देखा है, सुना है, उसे अपने पाठकों तक उसे अपनी व्‍याख्‍या और विश्‍लेषण के साथ पहुंचा पांऊ.  उन्‍होंने ये भी कहा कि मैंने इसे इस तरीके से पहुंचाने की कोशिश की है, जिससे पाठक के दिल तक ये बात पहुंच पाए. उन्‍होंने बताया कि इस पुस्‍तक को लिखने में उन्‍हें 2 साल का समय लगा.  

उनकी सबसे बनती है लेकिन घर में नहीं बनती
लेखक अनामिका ‘माधोपुर का घर’ के बारे में अपनी बात रखते हुए कहती हैं कि बड़े किसानों का अपने परिवेश के वंचित किसानों से जो खट्टा-मीठा रिश्‍ता होता है, खासकर मुसलमानों से या नीची जाति के लोगों से एक सौहार्द का रिश्‍ता बन जाता है, जो बातें वो घर पर नहीं कर पाते हैं वो बाहर उनके साथ दिखा देते हैं. अनामिका कहती हैं कि इस पक्ष पर अभी तक कम लिखा गया है. जमींदारों के अन्‍याय की कहानी तो बहुत लिखी गई है, लेकिन ये जो अनदेखा पक्ष है उस पर कम लिखा गया है, किसी प्रधान इलाके में कोई आदमी है वो छोटे-छोटे उद्योग करता है लेकिन बाहर वो विफल होता है, उसकी विफलता का जो इतिहास है उसकी भी एक करुण कहानी है. इस कहानी में जो बाबा है वो कई तरह के उपक्रम करते हैं, कभी गन्‍ना लगाते हैं, कभी डेयरी चलवाते हैं, लेकिन वो फेल होता रहता है, लेकिन उन सबका परिताप उनके घरेलू रिश्‍तों पर पड़ता है. कुत्‍ते को प्‍यार करते हैं, पड़ोस के लोगों को प्‍यार करते हैं लेकिन घर में तनातनी है. ये इस उपन्‍यास का अजीब पहलू है जो दिखाई देता है. 

माधोपुर का घर पर क्‍या कहती है वंदना राग?
मुझे लगता है कि माधोपुर का घर एक रूपक है. ये सिर्फ एक लेखक की कहानी नहीं है, ये टूटते हुए समाज की कहानी है और बाद में पुनर्सृजित होते समाज की कहानी है. परिवार की कहानी उतनी ही है, जितनी देश की कहानी है. लेखक ने एक लंबे समयकाल को इसमें संजोने की कोशिश की है. देश में जितनी भी घटनाएं हुई, जिन्‍होंने हमें तोड़ा, सृजत किया, ये उन सबका आख्‍यान है. उन्‍होंने ये भी कहा कि पुस्‍तक में कई ऐसे पहलुु हैं जो पहली बार पाठकों के सामने आ रहा है.पुस्‍तक आज के मौजूदा समय में एक गंभीर संदेश देती है.  


लर्निग, पब्लिशिंग के क्षेत्र में काम करने वाली हस्तियां को ये संस्‍था करेगी सम्‍मानित 

इस कार्यक्रम के जरिए FICCI लर्निंग, इनोवेशन, रिसर्च के क्षेत्र में बीते लंबे समय से काम कर रहे कई लोगों को संगठन सम्‍मानित करने जा रहा है. 

Last Modified:
Monday, 07 August, 2023
FICCI

फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) पब्लिकॉन 2023 का आयोजन करने जा रहा है. ये FICCI का ये एक प्रतिष्ठित कार्यक्रम है जो लर्निंग, रिसर्च और नोवेशन के क्षेत्र में प्रकाशकों की महत्वपूर्ण भूमिका के लिए पूरी तरह से समर्पित है. यह कार्यक्रम देश की राजधानी दिल्‍ली में 8 अगस्त, 2023  के तानसेन मार्ग स्थित फेडरेशन हाउस में आयोजित किया जाएगा. इसका उद्घाटन केन्‍द्रीय मंत्री स्‍मृति ईरानी करेंगी. 

अवॉर्डस का भी किया जाएगा आयोजन 
FICCI दवारा आयोजित होने वाले पब्लिकॉन 2023 में बहुप्रतीक्षित 'फिक्की पब्लिशिंग अवार्ड्स' शामिल होंगे, जो बिजनेस, ट्रांसलेशन, डिजाइनिंग, फिक्शन, नॉन-फिक्शन और चिल्ड्रन लिटरेचर सहित विभिन्न श्रेणियों में प्रकाशकों के असाधारण योगदान को लेकर दिए जाएंगे. इस कार्यक्रम में, बिना स्‍ट्रेस के पढ़ाई करवाना (leisure reading), भारत के ग्‍लोबल रिसर्च आउटपुट में वैज्ञानिक प्रकाशन की भूमिका, रिसर्च के लिए फंडिंग  में चुनौतियां और उनका रिसर्च आउटपुट और इसके प्रकाशन पर प्रभाव आदि विषयों पर चर्चा होगी. 

कौन-कौन होगा कार्यक्रम में शामिल? 

 इस कार्यक्रम का उद्घाटन महिला एवं बाल, अल्पसंख्यक कार्य मंत्री, भारत सरकार, स्मृति ईरानी करेंगी. जबकि विदेश व शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. राजकुमार रंजन सिंह, दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस प्रतिभा सिंह व जस्टिस जसमीत सिह, भाजपा राष्ट्रीय सचिव सुनील देवधर, संसद सदस्य प्रशांत नंदा, नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक लेफ्टिनेंट कर्नल युवराज मलिक और साहित्य अकादमी सचिव डॉ. के श्रीनिवासन राव सहित अन्य प्रभावशाली हस्तियां इसमें शामिल होंगी. इस कार्यक्रम में साहित्यिक और अकादमिक क्षेत्र की प्रतिष्ठित हस्तियां शामिल होंगी. सम्मानित वक्ताओं में साहित्य अकादमी के सचिव डॉ. के. श्रीनिवासराव, डीएसटी भारत सरकार के वरिष्ठ सलाहकार डॉ. अखिलेश गुप्ता, वैज्ञानिक जी' एंड हेड, सीड भारत सरकार, डॉ. देबप्रिया दत्ता, तथा नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) इंडिया की मुख्य संपादक व शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार की संयुक्त निदेशक नीरा जैन शामिल हैं.

क्‍या बोले पब्लिशिंग कमेटी के चेयरमैन
FICCI पब्लिशिंग कमेटी के चेयरमैन नीरज जैन ने इस कार्यक्रम को लेकर कहा कि हम मानते हैं कि प्रकाशक हमारे बौद्धिक इकोसिस्‍टम को आकार देने में एक अभिन्न भूमिका निभाते हैं. पब्लिकॉन 2023 उनके अमूल्य योगदान का उत्सव मनाने और प्रकाशन उद्योग के भीतर सहयोग और विकास के माहौल को बढ़ावा देने का एक अनूठा अवसर है.

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जीवन में ताकझांक को बखूबी दर्शाता है जयंती रंगनाथन का ‘मैमराजी’

इस उपन्यास की कहानी बहुत रोचक है, ऐसा लगता है जैसे सब कुछ आप अपने आसपास घटित होते हुए देख रहे हों.

Last Modified:
Friday, 21 July, 2023
Jayanti Ranganathan

जयंती रंगनाथन ने हाल के वर्षों में लेखन में जितने प्रयोग किए हैं शायद ही किसी लेखक ने किए हों. उनके नए उपन्यास ‘मैमराजी’ को पढ़ते हुए यह विचार और पुख़्ता हुआ. छोटी सी रोचक कहानी है, लेकिन कस्बाई जीवन की तथाकथित सामाजिकता पर करारा व्यंग्य है. दिल्ली से शशांक नामक एक युवक भिलाई के स्टील प्लांट में इंजीनियर बनकर जाता है और वहां मैमराजी के फेर में आ जाता है. स्वीटी आंटी का किरदार ग़ज़ब गढ़ा है जयंती जी ने. महानगरीय जीवन से एक आदमी भिलाई नामक अलसाये हुए कस्बे में पहुंचता है और जैसे सारे शहर की नींद खुल जाती है. सबको एक नया काम मिल जाता है उस नये कुंवारे इंजीनियर के निजी जीवन में ताकझांक करना. 

निजता का सवाल
मजाक मजाक में ही यह उपन्यास एक इंसान की निजता के सवाल को उठाता है. किस तरह तथाकथित सामाजिकता की आड़ में किसी के निजी जीवन का कोई महत्व ही नहीं रह जाता है - उपन्यास की कथा का यही विमर्श है. बहुत रोचक कहानी, लगता है जैसे सब कुछ आप अपने आसपास घटित होते हुए देख रहे हों. शशांक का जीवन जैसे लाइव शो हो जाता है शहर की मैमराजियों के लिए. बहुत करारा व्यंग्य है. स्वीटी मैम के किरदार में 1990 के दशक के टीवी धारावाहिक ‘हमराही’ की देवकी भौजाई की याद आ जाती है. साथ ही यह हाल में प्रकाशित अनुकृति उपाध्याय के उपन्यास ‘नीना आंटी’ की याद भी दिलाता है. किसी समानता के कारण नहीं बल्कि ये सारे किरदार भी कस्बाई जीवन की जड़ता को तोड़ने वाले हैं. उपन्यास हिन्द युग्म से प्रकाशित है.


Kargil War के दर्द को शब्दों में पिरोकर शिखा सक्सेना ने लिखी Nation First

शिखा सक्सेना ने अपनी किताब में कारगिल युद्ध से जुड़े अनुभवों को साझा किया है. उन्होंने सैनिकों के परिवारों की पीड़ा को भी दर्शाया है.

Last Modified:
Thursday, 22 June, 2023
Nation First

कारगिल युद्ध (Kargil War) के दौरान देश ने कई जवानों को खोया. इन जवानों में किसी का बेटा, किसी का भाई, तो किसी का पति भी शामिल था. पाकिस्तान की तरफ से थोपे गए इस युद्ध की पीड़ा हर उस परिवार ने भी भोगी, जिसका कोई न कोई देश की रक्षा के लिए दुश्मन से दो-दो हाथ कर रहा था. ऐसी ही पीड़ा को शब्दों में पिरोकर शिखा सक्सेना ने किताब की शक्ल में दुनिया के सामने रखा है. शिखा आर्टिलरी ऑफिसर कैप्टन अखिलेश सक्सेना की पत्नी हैं. साथ ही शिखा ने यह भी बताया है कि युद्ध के दौरान जवानों को किस मनोदशा से गुजरना पड़ा था. इस किताब को कारगिल के अनुभवों को बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचाने के लिए सरल भाषा में लिखा गया है.

बहादुरी और भावनाओं का जिक्र
शिखा ने अपनी किताब 'Nation First' में कारगिल युद्ध के दौरान अपने अनुभव और अपने पति अखिलेश सक्सेना के अनुभवों को समेटने की कोशिश की है. अखिलेश Tololing, Hump और Three Pimples को फतह कराने के मिशन में शामिल थे. अपनी किताब में शिखा ने बताया है कि युद्ध के दौरान एक आत्मघाती मिशन की तरफ बढ़ते हुए सैनिक की मनोदशा क्या होती है? कैसे वो गंभीर चोटों के बाद भी दुश्मनों को माकूल जवाब देते हुए देश की रक्षा करता है. इस किताब में भारतीय सैनिकों की बहादुरी के साथ-साथ युद्ध और उसके बाद इन सैनिकों के परिवार द्वारा जिस भावनात्मक ज्वार का सामना किया गया, उसका भी जिक्र है. शिखा के पैरेंट्स डॉक्टर हैं. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत HCL नोएडा में बतौर सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट ट्रेनी के तौर पर की थी. 1999 में उनकी शादी कैप्टन अखिलेश सक्सेना से हुई और शादी के कुछ समय बाद ही कारगिल युद्ध शुरू हो गया.

नए सिरे से शुरू की जिंदगी
Nation First में ऐसी जानकारी है, जो युद्ध में शामिल जवानों की मानसिक स्थिति, उनकी भावनाओं और उनके बीच होने वाली बातचीत को उजागर करती है. शिखा ने अपनी किताब में कारगिल युद्ध से जुड़ी ऐसी बातों का भी जिक्र किया है जिसे जानने के बाद हर भारतीय का सिर हमारे जवानों के सम्मान में झुक जाएगा. दरअसल, शिखा ने अपने पति अखिलेश से युद्ध की चुनौतियों, भारतीय सेना के सामने आई मुश्किलों आदि के बारे में विस्तार से जाना है और उस अनुभव को उन्होंने शब्दों में पिरोकर पाठकों के सामने रख दिया है. कारगिल युद्ध के दौरान शिखा के पति गंभीर रूप से घायल हो गए थे. इसके बाद उन्हें अपनी जिंदगी को नए सिरे से शुरू करना पड़ा. अखिलेश इस समय टाटा कम्युनिकेशन में बतौर वाइस प्रेसिडेंट काम कर रहे हैं. वहीं, शिक्षा Inspiring Mantras की सीईओ हैं.  

युवाओं को प्रेरित करेगी किताब
Hachette India द्वारा प्रकाशित शिखा सक्सेना की 'Nation First' को हर तरफ से सराहना मिल रही है. उन्होंने न केवल सेना के जवानों, उनके परिवार के दर्द, पीड़ा और अनुभव को बयां किया है, बल्कि ये भी बताया है कि भारतीय सेना से क्या-क्या सीखा जा सकता है. मशहूर अभिनेता अनुपम खेर ने भी शिखा की किताब की तारीफ करते हुए कहा है कि उन्होंने कारगिल युद्ध को इस तरह शब्दों में पिरोया है कि पढ़ने वाले की आंखें नम हो जाती हैं. वहीं, BW Business World के चेयरमैन और फाउंडर डॉक्टर अनुराग बत्रा का कहना है कि Nation First युवाओं को सेना से जुड़ने के लिए प्रेरित करेगी. ये किताब सैनिक, उनके परिवारों और युद्ध के प्रभाव को रेखांकित करती है. 

 


'Digital से Books हुई बूस्ट,पब्लिकेशन पर GST असंगत,नेशनल बुक पॉलिसी क्यों जरूरी'

अदिति माहेश्वरी कहती हैं कि आजकल शोध आधारित यानी रिसर्च बेस्ड किताबों का बहुत बोलबाला है. पाठक ऐसी पुस्तकों को ज्यादा पसंद करते हैं.

नीरज नैयर by
Published - Saturday, 20 May, 2023
Last Modified:
Saturday, 20 May, 2023
अदिति माहेश्वरी

वाणी प्रकाशन की सीईओ अदिति माहेश्वरी (Aditi Maheshwari) मानती हैं कि किताबें राष्ट्र का निर्माण करती हैं और प्रकाशक उसमें कारीगर की भूमिका निभाता है. हालांकि, उन्हें यह भी लगता है कि सरकारी स्तर पर प्रकाशन उद्योग के लिए अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है. BW हिंदी से बातचीत में अदिति ने पब्लिशिंग इंडस्ट्री की परेशानी, सरकार से अपेक्षा और कमजोर होते लाइब्रेरी सिस्टम पर खुलकर अपने विचार रखे. 

आज किताबों के कई विकल्प मौजूद
ऐसे समय में जब लोग किताबों से दूर होते जा रहे हैं, तो पब्लिशिंग हाउस चलाना कितना ज्यादा मुश्किल है? इस पर वाणी प्रकाशन की सीईओ अदिति माहेश्वरी (Vani Prakashan CEO Aditi Maheshwari) ने कहा कि ऐसा नहीं है कि युवा पीढ़ी किताबों से दूर हुई है, बल्कि उनके पास आज किताबों के विकल्प काफी हो गए हैं. उदाहरण के तौर पर सोशल मीडिया, इंटरनेट पर OTT कंटेंट आदि. ऑडियो-विजुएल आज किताबों के विकल्प के रूप में उपलब्ध है. मेरा मानना है कि युवा जिस रूप में किताबों को कंज्यूम कर रहे हैं, हमें उसी रूप में उन तक पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए. लिहाजा पब्लिशिंग हाउसेस को किताबों के बारे में नए रूप से सोचने की जरूरत है. क्योंकि केवल छपी हुई पुस्तक ही पुस्तक नहीं होती. जहां तक डिजिटल युग के प्रिंटेड किताबों के बिजनेस को प्रभावित करने का सवाल है, तो मेरी सोच थोड़ी अलग है. मुझे लगता है कि डिजिटल युग में प्रिंटेड किताबों को बूस्ट मिला है. आज किताबें ज्यादा पाठकों तक पहुंच रही हैं. 

आजकल ऐसी किताबें ज्यादा पसंद
पहले की तुलना में अब लेखकों की लेखनी में किस तरह का बदलाव आया है? इस सवाल के जवाब में अदिति माहेश्वरी कहती हैं, 'हर युग में हर प्रकार की पुस्तकें लिखी जाती रही हैं. पहले भी पॉपुलर साहित्य लिखा जा रहा था और अब भी लिखा जा रहा है. हालांकि, आजकल शोध आधारित यानी रिसर्च बेस्ड किताबों का बहुत बोलबाला है. पाठक ऐसी पुस्तकों को ज्यादा पसंद करते हैं'. अदिति ऐसे समय में प्रकाशन की दुनिया का हिस्सा बनीं, जब इस फील्ड में महिलाओं की भूमिका बेहद सीमित थी, ऐसे में जाहिर है उन्हें तमाम तरह की परेशानियों से भी दो-चार होना पड़ा होगा. इस बारे में वह कहती हैं, 'आज भी इस क्षेत्र में महिलाओं की मौजूदगी सीमित ही है. जब आप अल्पसंख्यक की श्रेणी में आते हैं, तो आपको इन्फ्रास्ट्रक्चर के स्तर पर कई तरह की चुनौतियों-परेशानियों का सामना करना पड़ता है'.

महिला होने की परेशानी
उदाहरण के तौर पर 2016 की एक घटना को याद करते हुए उन्होंने कहा - विश्व पुस्तक मेले से एक रात पहले मैं और मेरी छोटी बहन प्रगति मैदान में अपनी स्टॉल की तैयारियों के लिए मौजूद थे. रात के करीब 2 बजे जब मैं वॉशरूम गई, तो देखा कि जेंट्स वॉशरूम खुले थे, लेकिन लेडिज वॉशरूम बंद कर दिए गए थे. इस पूरी घटना के बारे में मैंने सोशल मीडिया पोस्ट लिखा और नेशनल बुक ट्रस्ट के डायरेक्टर के पास व्यक्तिगत रूप से शिकायत दर्ज कराई. इसका असर ये हुआ कि अब पुस्तक मेले से पहले स्टॉल फेब्रिकेशन के लिए रातभर लेडिज वॉशरूम खुले रहते हैं और महिलाओं की सुरक्षा के लिए गार्ड भी मौजूद रहते हैं. यह देखकर अच्छा लगता है कि किसी ने तो आख़िरकार माना कि यहां भी औरतें हैं और काम कर रही हैं. 

लाइब्रेरी कल्चर पर कही ये बात
देश में लाइब्रेरी कल्चर खत्म होता जा रहा है, ये देश के लिए कितना बड़ा नुकसान है? इस पर अदिति माहेश्वरी ने कहा कि राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी, केंद्र और राज्य सरकारों के सहयोग से जगह-जगह लाइब्रेरी खोली गई हैं, लेकिन समस्या ये है कि पिछले कुछ वर्षों में हमारे पुस्तकालयों की कार्यप्रणाली में बदलाव आया है. वो पहले जिस तरह से कार्य करते हैं, अब नहीं कर पा रहे हैं. पहले वो खूब किताबें खरीदते थे और उसे देश के अंतिम नागरिक तक पहुंचाते थे, जो अब कम हुआ है. इसके क्या कारण हैं, ये अभी स्पष्ट नहीं हैं. लेकिन हम सरकार से मांग करते हैं कि पुस्तकालयों को फिर से केंद्र में लाएं, जिस संस्कृति का संचार पुस्तकालयों से होता आया है उसे फिर से जीवित करें. 

GST पर फिर से विचार करे सरकार
पब्लिशिंग इंडस्ट्री की सरकार से अपेक्षा के बारे में बात करते हुए वाणी प्रकाशन की सीईओ कहती हैं कि प्रकाशन उद्योग के लिए GST को लेकर जो नीतियां बनी हैं, उन पर फिर से विचार किया जाना चाहिए. मौजूदा व्यवस्था के तहत किताबों को बनाने में इस्तेमाल होने वाले धागे जैसे कच्चे माल पर GST लगता है, लेकिन पुस्तकों के GST फ्री होने की वजह से हम कच्चे माल पर बढ़ी लागत की भरपाई किसी भी रूप में नहीं कर पा रहे हैं. इसके अलावा, किताबों के डिस्ट्रीब्यूशन के इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी मजबूत करने की जरूरत है, ताकि पाठकों तक सस्ते दामों में किताबें पहुंचाई जा सकें. अदिति का यह भी मानना है कि देश में नेशनल बुक पॉलिसी का होना भी बेहद जरूरी है. वह कहती हैं, हमारी इतनी सारी भाषाएं हैं और उन भाषाओं में सदियों से इतना समृद्ध साहित्य छप रहा है, उसे व्यवस्थित करके अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करने के लिए एक राष्ट्रीय पुस्तक नीति का होना अति आवश्यक है. 

अगली पीढ़ी को इस फील्ड में लाना चाहेंगी?
क्या आप चाहेंगी कि आपकी अगली पीढ़ी भी इस विरासत को आगे बढ़ाए? इस पर अदिति ने कहा - जरूर, इससे सुंदर और नोबल प्रोफेशन कोई नहीं हो सकता. लेकिन ये जरूर है कि मौजूदा समय में जिस तरह का इन्फ्रास्ट्रक्चर या सपोर्ट प्रकाशन इंडस्ट्री को मिल रहा है, उसके चलते यहां काम करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है. केवल पाठकों का प्रेम और लेखकों का समर्थन, सच कहूं तो केवल यही दो औषधियां हैं जो इस दौर में किसी प्रकाशक को प्रोत्साहन देती हैं, इसके अलावा हर चीज निराशावन है. ऐसे में भारतीय भाषाओं का प्रकाशक होना और भी ज्यादा कठिन काम हो जाता है. लिहाजा, सरकार को इस ओर ध्यान देना होगा, तभी युवाओं का रुझान इस फील्ड पर केंद्रित होगा.


अनूठी कला को जीवित रखने वालों की कहानी दिखाती है “थेवा”

दिल्ली के इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में आयोजित की गई थी फिल्म की स्क्रीनिंग.

Last Modified:
Saturday, 22 April, 2023
Thewa

सोने की महीन चादरों को रंगीन कांच पर जोड़कर छोटे उपकरणों की मदद से सोने पर डिजाइन तैयार करने का नाम है “थेवा”, जो कि भारत में सदियों से प्रचलित है. इस कला से अब राजस्थान के केवल 12 परिवार ही जुड़े हुए हैं. इस हुनर पर आधारित चलचित्र “थेवा” का प्रदर्शन दिल्ली में किया गया. डायरेक्टर शिवानी पांडेय द्वारा निर्देंशित चलचित्र ”थेवा“ में उन गुमनाम नायकों को दिखाया है, जो रहस्यमय तरीके से निर्मित कला को जीवित रखे हुए हैं.

बताई फिल्म के पीछे की कहानी
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ऐसे ही कला और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए चलचित्र तैयार करता रहा है. शुक्रवार को केंद्र के समवेत सभागार में सायं चार बजे से मीडिया सेंटर द्वारा फिल्म स्क्रीनिंग का आयोजन किया गया. डायरेक्टर शिवानी पांडेय ने फिल्म के निर्मित होने की कहानी को दर्शकों के साथ साझा किया. दर्शकों ने भी निर्देशक से फिल्म से जुड़े प्रश्न किए. लेखिका मालविका जोशी ने फिल्म की तारीफ करते हुए कहा कि इसमें अनोखी कला के बारे में दिखाया गया है. उन्होंने कहा कि ऐसी फिल्मों के कारण ही कला और संस्कृति का संरक्षण किया जा सकता है. 

ऐसे प्रयासों की जरूरत 
वहीं, सेंसर बोर्ड के पूर्व सदस्य अतुल गंगवार ने कहा कि ऐसे चलचित्र ही हमारी संस्कृति और कला को जीवंत बनाए हुए हैं. इससे अन्य राज्यों की संस्कृति को भी चलचित्र के माध्यम से जनता के सामने लाने का प्रयास किया जाना चाहिए, जिससे हमारे देश की विभिन्न राज्यों की कलाओं और संस्कृति की जानकारी अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हो सके. फिल्म स्क्रीनिंग के दौरान किसान नेता नरेश सिरोही, नियंत्रक अनुराग पुनेठा, उप नियंत्रक श्रुति नागपाल, उमेश पाठक आदि मौजूद रहे.