योगी राज में सड़कों का जाल भी तेजी से बिछ रहा है. साथ ही सरकार ने युवाओं को जॉब्स देने की दिशा में भी कई कदम उठाए हैं.
योगी आदित्यनाथ यूपी को देश का नंबर वन राज्य बनाना चाहते हैं और इस दिशा में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं. यूपी में निवेश लाने के लिए जिस तरह से टीम योगी काम कर रही है, उसने विरोधियों को भी प्रभावित किया है. यूपी ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट से पहले प्रदेश सरकार के अधिकारी-मंत्रियों ने घूम-घूमकर निवेशकों को यूपी के विकास से अवगत कराया. CM योगी खुद मॉनिटरिंग करते रहे, जिसका परिणाम यह रहा कि 34 लाख करोड़ के निवेश प्रस्ताव में समिट में मिले.
मिला उम्मीद से कहीं ज्यादा
ऐसा नहीं है कि योगी सरकार से पहले प्रदेश में निवेश लाने के प्रयास नहीं हुए, जरूर हुए, लेकिन उनकी रफ्तार इतनी तेज नहीं रही. डबल इंजन की सरकार में निवेशकों को आकर्षित करने के लिए हर अधिकारी, नेता, मंत्री ने अपना योगदान दिया. पहली बार 25 करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में दुनियाभर के निवेशकों ने इतने बड़े पैमाने पर निवेश की तैयारी दर्शाई. सरकार 20 लाख करोड़ के निवेश की उम्मीद लगाए बैठी थी और झोली में आए 35 लाख करोड़ से ज्यादा के करार.
हर काम फुल स्पीड में
योगी सरकार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से लेकर टेक्सटाइल तक लगभग हर सेक्टर के लिए निवेश हासिल करने में कामयाब रही. अब सरकार निवेश परियोजनाओं के शिलान्यास की तैयारी में भी जुट गई है. लगभग 10 लाख करोड़ के निवेश प्रस्तावों की नींव अगस्त-सितंबर में रखी जाएगी. यानी निवेश जुटाने से लेकर उसे धरातल पर लाने तक का हर काम पूरी स्पीड में हो रहा है.
नौकरियों के खोले दरवाजे
यूपी में कई बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम चल रहा है. उदाहरण के तौर पर अगले साल सितंबर तक यूपी का सबसे लंबा एक्सप्रेसवे तैयार हो जाएगा. जेवर अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे के पहले चरण का कम भी अगले साल पूरा होने की उम्मीद है. योगी राज में सड़कों का जाल भी तेजी से बिछ रहा है. साथ ही सरकार ने युवाओं को जॉब्स देने की दिशा में भी कई कदम उठाए हैं. योगी सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक साल पूरा होने पर यदि सरकारी नौकरियों की बात करें, तो आयोगों और बोर्ड्स द्वारा 36,000 से अधिक युवाओं को सरकारी नौकरी दी गई है. सबसे ज्यादा नौकरियां अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (1200) और पुलिस भर्ती बोर्ड (12000) ने दी हैं.
ऐसे बदल रहा यूपी
सरकार की मानें तो बीजेपी के संकल्प-पत्र के 130 में से 110 वादे या तो पूरे कर दिए गए हैं या उन पर अमल के लिए निर्णय हो चुका है. 33.50 लाख करोड़ के निवेश प्रस्ताव लाने वाले वैश्विक निवेशक सम्मेलन और G-20 समिट ने योगी की छवि वैश्विक स्तर की बना दी है. साथ ही आगरा, लखनऊ, वाराणसी और गौतमबुद्धनगर में G-20 की बैठकों से प्रदेश के विकास, बुनियादी ढांचे, संस्कृति और विरासत को वैश्विक समुदाय के सामने पेश करने का मौका मिला है. प्रदेश के समग्र विकास के लिए 10 मुख्य सेक्टर चिह्नित किए गए हैं और हर सेक्टर की जिम्मेदारी एक अपर मुख्य सचिव स्तर के अधिकारी को सौंपी गई है. लखनऊ-हरदोई के बीच 1000 एकड़ भूमि पर 1200 करोड़ की लागत से पीएम-मित्र टेक्सटाइल पार्क की स्थापना की जानी है. साथ ही गोरखपुर लिंक एक्सप्रेसवे के दोनों ओर औद्योगिक गलियारा विकसित किया जाना है. कुल मिलाकार कहें तो प्रदेश को पूरी तरह बदलने की योजना फास्ट ट्रैक में है और आने वाले समय में योगी UP को एक नई पहचान देने में कामयाब होंगे.
मनोज सोनी ने बचपन में तमाम परेशानियां झेलीं, लेकिन हिम्मत नहीं हारी, वह पढ़ते गए और सफलता की सीढ़ी चढ़ते गए.
ट्रेनी IAS अधिकारी पूजा खेडकर विवाद के बीच संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के अध्यक्ष मनोज सोनी (UPSC Chairman Manoj Soni) ने इस्तीफा दे दिया है. हालांकि, सोनी का कहना है कि उन्होंने निजी कारणों से इस्तीफा दिया है. उन्होंने करीब 14 दिन पहले ही अपना इस्तीफा कार्मिक विभाग (DOPT) को भेज दिया था. सोनी अब सामाजिक और धार्मिक कामों पर ध्यान देंगे. बताया जा रहा है कि अभी सोनी का इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ है. उनका कार्यकाल मई 2029 तक है. मनोज सोनी ने 16 मई 2023 को UPSC का अध्यक्ष पद ग्रहण किया था. बता दें कि पूजा खेडकर विवाद को लेकर UPSC पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं.
2 विवादों से उठे सवाल
मनोज सोनी के कार्यकाल में पूजा खेडकर और IAS अभिषेक सिंह को लेकर UPSC विवाद में रहा है. इन दोनों पर OBC और विकलांग कैटेगरी का गलत फायदा उठाकर सिलेक्शन लेने का आरोप है. अभिषेक सिंह ने संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा विकलांग कैटेगरी से पास की थी. उन्होंने खुद को लोकोमोटिव डिसऑर्डर से पीड़ित बताया था. हालांकि, उनके डांस और जिम में वर्कआउट के वीडियो सामने आने के बाद सिंह के दावे पर गंभीर सवाल खड़े हो गए. अभिषेक ने अपने एक्टिंग करियर के लिए IAS पद से इस्तीफा दे दिया था. वहीं, पूजा खेडकर कई गंभीर आरोपों का सामना कर रही हैं. UPSC ने अपनी जांच के बाद उनके खिलाफ FIR भी दर्ज कराई है.
संघर्ष भरा है बचपन
मनोज सोनी ने भले ही इस्तीफे के पीछे निजी कारणों का हवाला दिया है, लेकिन माना जा रहा है कि खेडकर विवाद के चलते UPSC की चयन प्रक्रिया पर उठे सवालों के चलते उन्होंने अपना पद छोड़ा है. सोनी का बचपन बेहद संघर्ष में बीता था. एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 17 फरवरी 1965 को जन्मे मनोज सोनी जब पांचवीं क्लास में थे तभी उनके पिता की मौत हो गई थी. उनके पिता मुंबई की गलियों में घूम-घूमकर कपड़े बेचा करते थे. पिता के निधन के बाद मनोज ने परिवार का खर्चा चलाने और अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए घर-घर जाकर अगरबत्तियां बेचीं. लेकिन, तमाम कठनाइयों के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. मनोज सोनी पॉलिटिकल साइंस के स्कॉलर हैं और इंटरनेशनल रिलेशंस में उन्होंने विशेषज्ञता हासिल की है. 1991 से 2016 तक मनोज सोनी ने सरदार पटेल यूनिवर्सिटी में पढ़ाया. उनके नाम सबसे कम उम्र में वाइस चांसलर (VC) बनने का भी रिकॉर्ड है. मात्र 40 साल की उम्र में वह बड़ौदा की महाराज सयाजीराव यूनिवर्सिटी के VC चुने गए थे. 1978 में मनोज अपनी मां के साथ मुंबई से गुजरात के आणंद चली गए थे.
क्या है UPSC की जिम्मेदारी?
UPSC की बात करें, तो भारत के संविधान के तहत यह एक संवैधानिक निकाय है. UPSC केंद्र सरकार की ओर से कई परीक्षाएं आयोजित करता है. इसके द्वारा हर साल सिविल सेवा परीक्षाएं (IAS), भारतीय विदेश सेवा (IFS), भारतीय पुलिस सेवा (IPS) और केंद्रीय सेवाओं- जैसे कि ग्रुप A और ग्रुप B में नियुक्ति के लिए एग्जाम आयोजित करवाए जाते हैं. गौरतलब है कि आयोग में अध्यक्ष के अलावा 10 सदस्य गवर्निंग बॉडी में होते हैं. पहले पूजा खेडकर और फिर अभिषेक सिंह विवाद को लेकर UPSC सवालों के घेरे में है. उनकी चयन प्रक्रिया और पारदर्शिता को लगातार कठघरे में खड़ा किया जा रहा है.
नीट पेपर लीक के बाद सरकार और उसकी नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (NTA) की भूमिका सवालों के घेरे में है.
नीट पेपर लीक (NEET Paper Leak) ने कई गंभीर सवालों को जन्म दिया है, जिसमें सबसे प्रमुख तो यही है कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? क्या पेपर हासिल करने वाला अनुराग यादव या पेपर की व्यवस्था करवाने वाला उसका फूफा सिंकदर यादवेंदु ही असली गुनाहगार हैं? पुलिस मामले जांच कर रही है और संभव है आने वाले दिनों में वो किसी नतीजे पर भी पहुंच जाए, लेकिन क्या इस अवैध सिस्टम की पूरी चेन को तोड़ने में वह सक्षम होगी? क्या इसके बाद कोई पेपर लीक नहीं होगा? यह पहली बार नहीं है जब कोई पेपर लीक हुआ है और संभवतः आखिरी भी नहीं होगा. क्योंकि पेपर लीक अब एक कारोबार का रूप अख्तियार कर चुका है. एक-एक पेपर लाखों में बिकता है. जितना बड़ा पेपर, उतनी बड़ी रकम. नीट का पेपर 30 से 32 लाख में बिका था.
5 साल में 41 लीक
पेपर लीक को अंजाम देने के लिए बाकायदा एक सिस्टम काम करता है, जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक कई मोहरे होते हैं. सिंकदर यादवेंदु तो महज एक मोहरा है, जिसने अपने भतीजे के लिए नीट पेपर की सेटिंग कराई. असल गुनाहगार तो वह हैं, जिन्होंने आंखें मूंदकर पेपर लीक होने दिया. जब तक ऐसे लोगों के चेहरे सामने नहीं आते, कुछ बदलने वाला नहीं है. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार, झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, असम, अरुणाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर में पिछले 5 साल में 41 भर्ती परीक्षाओं के पेपर लीक हुए हैं. हर बार कुछ देर के लिए शोर मचता है और फिर खामोशी छा जाती है.
बहुत गहरी हैं जड़ें
केवल प्रतियोगी परीक्षाएं ही नहीं, निचले स्तर पर भी पेपर लीक महामारी बना हुआ है. चूंकि नीट बड़ी परीक्षा है, इसलिए मामला भी इतना बड़ा हो गया है. इस साल के शुरुआती महीने में यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा में बड़ी गड़बड़ी सामने आई थी. इसके बाद लगातार परीक्षाओं में गड़बड़ी के मामले सामने आ रहे हैं. नीट मामले की जांच में यह भी सामने आया है कि यादवेंदु यादव एक रैकेट के संपर्क में था, जिसने ना केवल NEET बल्कि बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) और संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) परीक्षाओं के प्रश्न पत्र भी लीक किए थे. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पेपर लीक के कारोबार की जड़ें कितनी गहरी हैं.
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सवालों में NTA
नीट मामले में सरकार और उसकी एजेंसी NTA सवालों के घेरे में हैं. नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (NTA) का गठन इसलिए किया गया था, ताकि प्रवेश परीक्षाओं को पूरी पारदर्शिता के साथ कराया जा सके, NTA इस काम में लगातार विफल रही है. बीते 9 दिन में NTA की तीन बड़ी परीक्षाएं रद्द या स्थगित हो चुकी हैं. नेशनल कॉमन एंट्रेंस टेस्ट की परीक्षा 12 जून को दोपहर में हुई थी. शाम को इसे रद्द कर दी. इसी तरह, UGC-NET की 18 जून को परीक्षा ली गई थी और 19 जून को रद्द कर दी गई. सीएसआईआर-यूजीसी-नेट का एग्जाम 25 जून से होना था, लेकिन इसे टाल दिया गया है. यह दर्शाता है कि NTA अपने काम को लेकर कितना सजग और सतर्क है.
कब बनी NTA?
NTA नवंबर 2017 में अस्तित्व में आया था. दरअसल, मानव संसाधन विकास मंत्रालय उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए एकल, स्वायत्त और स्वतंत्र एजेंसी चाहता था, ताकि प्रवेश परीक्षाओं को दोषमुक्त बनाया जा सके. इसी के तहत नेशनल टेस्टिंग एजेंसी को अमल में लाया गया. हालांकि, शुरुआत से ही यह संस्था सवालों में रही. वर्ष 2019 में JEE मेंन्स के दौरान छात्रों को परेशान होना पड़ा. वजह थी सर्वर में खराबी. कुछ जगहों पर प्रश्न पत्र देरी से मिलने की भी शिकायतें की गईं. इसी तरह, NEET अंडरग्रेजुएट मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम 2020 को लेकर भी NTA पर सवाल उठे. अनियमितताओं की शिकायतें सामने आने के बाद एग्जाम को कई बार स्थगित करना पड़ा. इस साल नीट का पेपर लीक हो गया. जबकि UGC-NET की परीक्षा भी रद्द की जा चुकी है.
Edutest पर विश्वास?
NTA की स्थापना से अब तक केवल 2 बार यानी 2018 और 2023 में पेपरलीक और गड़बड़ी जैसी शिकायतें नहीं मिलीं. वरना हर साल कुछ न कुछ सामने आता रहा. इसके बावजूद भी सरकार का NTA को लेकर कोई सख्त कदम न उठाना उसकी भूमिका को भी कठघरे में खड़ा करता है. यहां एक गौर करने वाली बात यह भी है कि NTA के अस्तित्व में होने के बावजूद एजूटेस्ट (Edutest) जैसी प्राइवेट कंपनी को परीक्षा आयोजित करवाने की जिम्मेदारी क्यों दी जाती रही है. यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा इसी कंपनी ने आयोजित करवाई थी. क्या इसका ये मतलब निकाला जाए कि यूपी सरकार को केंद्र की इस एजेंसी का भरोसा नहीं है या फिर उसे एजूटेस्ट इस काम के लिए ज्यादा काबिल लगी?
कई एग्जाम करवाए
पुलिस भर्ती परीक्षा का पेपर लीक हो गया था, जिसमें Edutest की भूमिका सवालों के घेरे में थी. यूपी एसटीएफ की कई महीनों की जांच के बाद योगी सरकार ने अहमदाबाद की एजूटेस्ट (EDUTEST) को ब्लैक लिस्ट कर दिया. यानी एजूटेस्ट को अब प्रदेश में दोबारा किसी भी विभाग की भर्ती परीक्षा कराने का जिम्मा नहीं दिया जाएगा. एसटीएफ ने एजूटेस्ट कंपनी के संचालक विनीत आर्या को चार बार नोटिस भेजकर बयान देने के लिए बुलाया, लेकिन वह एक बार भी नहीं आया. बताया जा रहा है कि वो अमेरिका चला गया है. एजुटेस्ट की स्थापना 1982 में की गई थी. कंपनी UPSSSC PET और CAT जैसे कई एग्जाम करा चुकी है. एजुटेस्ट सॉल्यूशंस ने UPSSSC PET 2022 के लिए पेपर तैयार किया था. कंपनी का दावा है कि वो हर साल 50 मिलियन से ज्यादा परीक्षाएं आयोजित करवाती है.
2014 में संयुक्त राष्ट्र ने भारत की पहल पर 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया था. तब से हर साल मनाया जाता आ रहा है. इस साल के लिए योग दिवस की थीम 'योगा फॉर सेल्फ एंड सोसाइटी' है.
योग (Yoga) दुनिया को भारत की देन है. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाले योग को लोग बड़े पैमाने पर अपना रहे हैं. केवल भारत ही नहीं अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, जर्मनी और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में इसने पिछले कुछ सालों में ज़बरदस्त लोकप्रियता हासिल की है. आज यानी 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (International Yoga Day 2024) के मौके पर दुनिया के कई देशों के लोग योग करते नजर आए. योग के प्रति लोगों के लगातार बढ़ते रुझान ने इसे एक इंडस्ट्री में तब्दील कर दिया है और सेहत को दुरुस्त रखने वाला योग अब देश की इकॉनमी को स्वस्थ रहने का भी काम कर रहा है.
रोजी-रोटी का जरिया योग
हर साल 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के तौर पर मनाया जाता है. आज से करीब 10 साल पहले 2014 में संयुक्त राष्ट्र ने भारत की पहल पर 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया था. तब से इसे लगातार अलग-अलग थीम पर योग दिवस सेलिब्रेट किया जाता आ रहा है. इस साल यानी 2024 के लिए योग दिवस की थीम 'योगा फॉर सेल्फ एंड सोसाइटी' है. योग आज सैकड़ों लोगों की रोजी-रोटी का जरिया बन गया है. इसमें एक सामान्य योग ट्रेनर से लेकर योग का सामान बनाने वालीं बड़ी-बड़ी कंपनियां तक शामिल हैं.
इतना है ग्लोबल मार्केट
इन 10 सालों में योग न केवल भारत बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा बाजार बन गया है, जिसके आने वाले सालों में बेहद तेजी से बढ़ने की संभावना है. यह कहना गलत नहीं होगा कि योग न केवल बीमारियों से दूर रखने में मदद कर रहा है, बल्कि अर्थव्यवस्था को धक्का लगाने में भी अहम भूमिका निभा रहा है. एक रिपोर्ट बताती है कि योग का ग्लोबल मार्केट साइज करीब 115.43 अरब डॉलर का है. इसमें यदि कपड़े, मैट आदि योग से जुड़े समान को जोड़ दिया जाए तो ये आंकड़ा 140 अरब डॉलर तक पहुंच जाता है. वहीं, 2025 तक इसके तेजी से बढ़ते हुए 215 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है.
भारत में इतनी बड़ी है इंडस्ट्री
योग दुनिया को भारत की देन है, लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में ये ज्यादा लोकप्रिय हो गया है. हालांकि, भारत में भी इसके प्रति रुचि में इजाफा हुआ है, लेकिन दूसरे देशों के मुकाबले गति अभी भी धीमी है. भारत में योग इंडस्ट्री का आकार करीब 80 अरब डॉलर का है. कोरोना महामारी के बाद इसमें 154% तक की ग्रोथ दर्ज की गई है. वहीं, देश की योग क्लासेस की इंडस्ट्री का रिवेन्यु साइज लगभग 2.6 अरब डॉलर का है. वेलनेस सर्विसेज, जिसके तहत योग स्टूडियो आदि आते हैं, की इस बाजार में 40% हिस्सेदारी है. मोदी सरकार भी योग दिवस को प्रमोट करने के लिए काफी खर्चा कर रही है. 2015 से 2019 तक अकेले भारतीय आयुष मंत्रालय ने योग दिवस पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों पर 137 करोड़ रुपए खर्च किए थे.
US में बढ़ रहे योग स्टूडियो
अमेरिका की बात करें, तो वहां योग कारोबार के तौर पर तेजी से फलफूल रहा है. यूएस में यह 15 अरब डॉलर से अधिक का बाजार बन गया है और सालाना 9.8% की दर से बढ़ रहा है. योग की बदौलत यहां करीब डेढ़ लाख लोगों को रोजगार भी मिला हुआ है. अमेरिका में हर साल योग स्टूडियो की संख्या बढ़ रही है. 2018 में यूएस में 37569 योग स्टूडियो थे, 2019 में 40949, 2020 में 42105, 2021 में 45068, 2022 में 46912 और 2023 में ये संख्या बढ़कर 48547 हो गई. वहीं, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और चीन में भी योग का कारोबार तेजी से बढ़ रहा है.
मैट बेचकर हो रही कमाई
योग के लिए मैट बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होते हैं. खासतौर पर यूके और अमेरिका जैसे देशों में योग मैट इस्तेमाल करने वालों की संख्या काफी ज्यादा है. भारत में भी अब इसके खरीदारों की संख्या में इजाफा हो रहा है. मैट के बढ़ते चलन से इसे बनाने वाली कंपनियों की चांदी हो गई है. एक रिपोर्ट के अनुसार, योग मैट सबसे ज्यादा जर्मनी, US और चीन में बनते हैं. अब Nike और Reboke जैसी दिग्गज कंपनियां भी योग मैट को बेच रही हैं. भारत में ज्यादातर योग मैट चीन से मंगाए जाते हैं. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो पहले अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के लिए चीन से 92 लाख रुपए के योग मैट आयात किए गए थे.
पिछले कुछ दिनों से महंगाई का मीटर तेजी से घूम रहा है, जो सबके लिए परेशानी वाली बात है.
चुनावी मौसम बीतने के बाद महंगाई (Inflation) का मीटर चालू हो गया है. आलू-प्याज से लेकर दाल-आटा और चावल तक सबकुछ महंगा हो गया है. बीते दो हफ्तों में ही आटा, चावल, दाल, सरसों तेल, गुड़ और यहां तक कि नमक के दामों में इजाफा देखने को मिला है. परेशानी वाली बात यह है कि महंगाई का ये मीटर आने वाले दिनों में और तेजी से दौड़ सकता है. महंगाई की रफ्तार न थमने की मार आम जनता पर कई तरह से पड़ेगी. उदाहरण के तौर पर उसका रसोई का बजट बढ़ जाएगा. इसके साथ ही कर्ज सस्ता होने की आस भी टूट जाएगी.
EMI कम तो नहीं बढ़ जाएगी?
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) पिछले 8 बार से नीतिगत ब्याज दरों को यथावत रखता आ रहा है. हाल ही में हुई RBI की मौद्रिक नीति समिति की बैठक में रेपो रेट को 6.5 प्रतिशत पर बरकरार रखने का फैसला लिया गया. हालांकि, यह माना जा रहा है कि MPC की अगली बैठक में रेपो रेट में कटौती का ऐलान किया जा सकता है. यानी कर्ज कुछ सस्ता हो सकता है. लेकिन महंगाई इस राह में फिर बाधा बनती नजर आ रही है. यदि महंगाई का पहिया इसी रफ्तार से घूमता रहा, तो रिजर्व बैंक कटौती की आस को तोड़ते हुए नीतिगत ब्याज दरों में इजाफे को मजबूर हो सकता है. यदि ऐसा हुआ, तो फिर आपकी EMI बढ़ने की आशंका भी जन्म ले लेगी.
FMCG उत्पाद भी हुए महंगे
महंगाई हर तरफ से बढ़ रही है. फल-सब्जी के साथ-साथ FMCG कंपनियों के उत्पाद भी महंगे हो गए हैं. बीते दो-तीन महीनों में इन कंपनियों ने फूड और पर्सनल केयर से जुड़े उत्पादों की कीमतों में 2 से 17% तक का इजाफा किया है. कंपनियां इसके पीछे कच्चे माल की कीमतों में बढ़ोतरी का तर्क दे रही हैं. एक रिपोर्ट की मानें तो FMCG कंपनियों ने साबुन-बॉडी वॉश जैसे प्रोडक्ट्स 2-9% महंगे कर दिए हैं. इसी तरह, हेयर ऑयल 8-11% और चुनिंदा फूड आइटम्स 3 से 17% तक महंगे मिल रहे हैं. इतना ही नहीं, ये कंपनियां चालू वित्त वर्ष 2024-25 में अपने उत्पादों के दाम औसतन 1% से 3% तक बढ़ा सकती हैं. यानी आने वाले दिन और भी मुश्किल भरे हो सकते हैं.
RBI को देना पड़ा था स्पष्टीकरण
बढ़ती महंगाई RBI के लिए भी मुश्किल पैदा कर सकती है. चढ़ते दामों के चलते ही उसे 2022-23 में शर्मसार होना पड़ा था. अब तक के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था कि RBI को महंगाई नियंत्रित न करने पाने के लिए सरकार को स्पष्टीकरण देना पड़ा. दरअसल, रिजर्व बैंक अधिनियम के तहत अगर महंगाई के लिए तय लक्ष्य को लगातार तीन तिमाहियों तक हासिल नहीं किया जाता, तो RBI को केंद्र सरकार के समक्ष स्पष्टीकरण देना होता है. उसे बताना होता है कि महंगाई नीचे नहीं आने के क्या कारण है और उसने अब तक क्या कदम उठाए हैं. मौद्रिक नीति रूपरेखा के 2016 में प्रभाव में आने के बाद से यह पहली बार था जब RBI को इस संबंध में केंद्र को रिपोर्ट भेजनी पड़ी.
क्या है RBI की जिम्मेदारी?
आरबीआई को केंद्र की तरफ से खुदरा महंगाई दो प्रतिशत घट-बढ़ के साथ चार प्रतिशत पर बनाए रखने की जिम्मेदारी मिली हुई है. इसी साल मई में खुदरा महंगाई दर 4.75 प्रतिशत दर्ज की गई. मार्च में यह 4.80% थी. जबकि पिछले साल अगस्त में यह 6.83 प्रतिशत थी. सितंबर 2023 के बाद से रिटेल इन्फ्लेशन में नरमी देखने को मिली है, लेकिन अब जिस तरह से लगभग सभी वस्तुओं के दाम बढ़ रहे हैं ये आंकड़ा भी तेजी से बढ़ सकता है. उस स्थिति में RBI महंगाई नियंत्रित करने के नाम पर नीतिगत ब्याज दर यानी रेपो रेट में इजाफा कर सकती है और बैंक इसक भार आम ग्राहकों पर डाल सकते हैं. यानी आपकी किचन के बजट के साथ-साथ EMI का गणित भी गड़बड़ा सकता है. वहीं, सरकार को भी इस मुद्दे पर तीखे सवालों का सामना करना होगा. मोदी सरकार सहयोगियों के कंधों पर सवार है और विपक्ष भी इस बार पहले से ज्यादा मजबूत है. ऐसे में सरकार पहले की तरह महंगाई से पल्ला नहीं झाड़ पाएगी.
कर्ज और महंगाई का रिश्ता
महंगाई सीधे तौर पर डिमांड और सप्लाई के अंतर की वजह से चढ़ती है और इस अंतर की एक वजह है पर्चेजिंग पावर बढ़ना. यानी आपके हाथ में यदि ज्यादा पैसा होगा, तो आप खुलकर खर्च करेंगे. इस खर्च के चलते डिमांड बढ़ेगी और यदि सप्लाई पूरी नहीं हो पाई तो महंगाई बढ़ेगी. यहीं से RBI की जिम्मेदारी शुरू होती है. ऐसी स्थिति में RBI रेपो रेट बढ़ाकर यह कोशिश करता है कि आपके हाथ में अतिरिक्त पैसा न पहुंचे. जब ज्यादा पैसा नहीं होगा, तो आप ज्यादा खर्च नहीं करेंगे. न डिमांड बढ़ेगी और न मांग और आपूर्ति के बीच अंतर बढ़ेगा. इसे दूसरी तरह से भी समझते हैं. ब्याज दरें कम होने से बाजार में अतिरिक्त लिक्विडिटी बढ़ जाती है. कहने का मतलब है कि लोग बिना ज़रूरत के सामान खरीदने के लिए लोन आदि लेने लगते हैं. इससे डिमांड में एकदम से इजाफा होता है, सप्लाई सीमित होने की वजह यह महंगाई का रूप ले लेता है. रिजर्व बैंक के रेपो रेट बढ़ाने से बैंक कर्ज महंगा करेंगे, जिससे लिक्विडिटी या अतिरिक्त पैसा घटने लगेगा. ऐसे में लोग जो बिना जरूरत के सामान खरीदने लगते हैं, उनकी खरीदारी कम हो जाएगी और महंगाई पर लगाम लग जाएगी.
कारगर नहीं है रणनीति
RBI का मानना है कि बाजार से लिक्विडिटी कम करने से Artificial Demand को कंट्रोल करने में मदद मिलती है. इससे मांग घटती है, जो महंगाई को नियंत्रित करने का काम करती है. वैसे ये फ़ॉर्मूला केवल भारत ही नहीं अमेरिका जैसे देशों में भी अपनाया जाता है. हालांकि, ये बात अलग है कि कई एक्सपर्ट्स इसे ज्यादा कारगर नहीं मानते. उनका कहना है कि पैसे और महंगाई के बीच का ये रिश्ता ऐसा नहीं है, जिसे रेपो रेट में बदलाव से नियंत्रित किया जा सकता है. रिजर्व बैंक के इस तरह के फैसलों से महंगाई रोकने में खास सफलता नहीं मिली है.
क्या होती है रेपो रेट?
रेपो रेट वह दर होती है जिस पर RBI बैंकों को कर्ज देता है. बैंक इस पैसे से कस्टमर्स को LOAN देते हैं. रेपो रेट बढ़ने का सीधा सा मतलब है कि बैंकों को मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाएगा और इसकी भरपाई वो ग्राहकों से करेंगे. इसीलिए कहा जाता है कि Repo Rate बढ़ने से होम लोन, वाहन लोन आदि की EMI ज्यादा हो सकती है. इसके उलट जब यह दर कम होती है तो बैंक से मिलने वाले कई तरह के कर्ज सस्ते होने की संभावना बढ़ जाती है.
क्या होती है रिवर्स रेपो रेट?
अब बात करते हैं रिवर्स रेपो रेट की. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह रेपो रेट से उलट है. रिवर्स रेपो रेट वो दर होती है जिस पर बैंकों को उनकी ओर से RBI में जमा धन पर ब्याज मिलता है. रिवर्स रेपो रेट मार्केट में कैश-फ्लो को नियंत्रित करने में काम आती है. दूसरे शब्दों में कहें तो बाजार में जब भी बहुत ज्यादा कैश दिखाई देता है, रिजर्व बैंक रिवर्स रेपो रेट बढ़ा देता है, ताकि बैंक ज्यादा ब्याज की चाह में अपना पैसा उसके पास जमा करें. बिल्कुल, वैसे ही जैसे आप अपना पैसा बैंक में रखते हैं.
पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी का कहना है कि केंद्र पेट्रोल -डीजल को GST के दायरे में लाने का प्रयास करेगी. यदि ऐसा होता है तो तेल के दाम काफी कम हो जाएंगे.
सहयोगियों के दम पर सत्ता में आई मोदी सरकार (Modi Govt) को शायद अहसास हो गया है कि महंगाई को नजरंदाज करने के चलते लोकसभा चुनाव में मनमाफिक परिणाम नहीं मिले. इसलिए सरकार ने आसमान पर पहुंच चुके पेट्रोल-डीजल के दामों (Petrol-Diesel Price) में कमी के लिए बड़ा कदम उठाने के संकेत दिए हैं. पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने वाले हरदीप सिंह पुरी का कहना है कि केंद्र सरकार का प्रयास होगा कि पेट्रोल-डीजल और नेचुरल गैस जैसे ईंधन को वस्तु एवं सेवा कर (GST) के दायरे में लाया जाए.
पहले बताई थी मजबूरी
हरदीप पुरी ने कहा कि हम पेट्रोल-डीजल और प्राकृतिक गैस को वस्तु एवं सेवा कर (GST) के दायरे में लाने का प्रयास करेंगे. वैसे यह पहली बार नहीं है जब पुरी ने पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की बात कही है. उन्होंने पहले भी इस पर जोर दिया था और यह भी कहा था कि पेट्रोल और डीजल को GST के तहत लाने के लिए राज्यों को सहमत होना होगा. क्योंकि ईंधन और शराब उनके राजस्व का प्रमुख सोर्स हैं. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी पिछले साल नवंबर में कहा था कि पेट्रोल-डीजल को GST के दायरे में लाने से लोगों को फायदा होगा.
केंद्र-राज्य ऐसे भरते हैं जेब
यदि पेट्रोल-डीजल को GST के दायरे में लाने को लेकर मोदी सरकार इस बार गंभीरता दिखाती है, तो इससे तेल की कीमतों से परेशान जनता को राहत मिल सकती है. पेट्रोल-डीजल के महंगा होने के पीछे उस पर लगने वाला भारी-भरकम टैक्स है. केंद्र और राज्य सरकार दोनों इससे अपनी जेब भरती हैं. आंध्र प्रदेश में सबसे पेट्रोल पर ज्यादा 31% टैक्स लगाया जाता है. जबकि कर्नाटक 25.92%, महाराष्ट्र 25% और झारखंड सरकार पेट्रोल पर 22% वैट वसूलती है. इसी तरह, डीजल पर आंध्र प्रदेश में 22%, छत्तीसगढ़ में 23%, झारखंड में 22% और महाराष्ट्र में 21% वैट लगता है. हर राज्य अपने हिसाब से टैक्स वसूलता है, इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम वहां अलग-अलग होते हैं. इसके साथ ही केंद्र सरकार एक्साइज ड्यूटी लगाती है.
60% तो केवल टैक्स है
मोटे तौर पर पेट्रोल-डीजल पर सरकारें 60% से भी ज्यादा टैक्स वसूलती हैं. ऐसे में अगर इसे जीएसटी के दायरे में लाया जाता है, तो इस भारी-भरकम टैक्स की छुट्टी हो जाएगी. पेट्रोल-डीजल पर केवल जीएसटी के हिसाब से टैक्स लगेगा और GST की अधिकतम दर 28% है. इससे पेट्रोल-डीजल के दामों में काफी कमी देखने को मिलेगी. इस राह में समस्या ये है कि सभी राज्यों को इसके लिए तैयार होना होगा. राज्यों की कमाई में सबसे बड़ा योगदान शराब और ईंधन पर टैक्स का है. यदि उन्हें अपनी मनमर्जी के हिसाब से इन पर टैक्स लगाने की छूट नहीं मिलेगी, तो उनकी कमाई कम होगी. GST के दायरे में आने पर जो पैसा राज्यों को पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स से सीधे मिल जाता था, वो केंद्र के पास जाएगा और वहां से राज्यों मिलेगा. यानी इसमें केंद्र की भूमिका मजबूत हो जाएगी.
निकल सकता है बीच का रास्ता
राज्यों का इस विषय पर सहमत होना मुश्किल ज़रूर है, लेकिन आम जनता का हवाला देकर उन्हें तैयार किया जा सकता है. इसके लिए कोई बीच का रास्ता भी निकाला जा सकता है. जीएसटी के तहत अधिकतम टैक्स स्लैब 28% का है. ऐसे में सरकार पेट्रोल-डीजल के लिए जीएसटी के स्लैब में कुछ संशोधन करके एक अलग स्लैब बना सकती है, जो 28 प्रतिशत से ज्यादा का हो. इस तरह से केंद्र और राज्य दोनों के नुकसान को कुछ कम किया जा सकता है. एक रिपोर्ट बताती है कि यदि पेट्रोल को अधिकतम 28 प्रतिशत जीएसटी स्लैब में शामिल किया जाता है, तो एक लीटर पेट्रोल की कीमत 70 रुपए के आसपास हो सकती है.
भारत के लगभग 15 लाख स्कूलों में स्कूली शिक्षा के हर स्तर पर व्यवस्थित तरीके से सुधार करने की जरूरत है.
हाल ही में जारी एनुअल स्टेटस ऑफ एजूकेशन रिपोर्ट (ASER) 2023 में कहा गया है कि स्कूलों में हमारे छात्र सीख नहीं रहे हैं. इस रिपोर्ट से पता चलता है कि एक चौथाई विद्यार्थी वह भी नहीं कर पाते जो कक्षा 2 के बच्चे को करने में सक्षम होना चाहिए. इन आंकड़ों में पिछले एक दशक में नामात्र का सुधार हुआ है. यह रिपोर्ट शिक्षा के उस संकट की ओर इशारा करती है जिसने आज़ादी के बाद से हमारी शिक्षा प्रणाली को जकड़ रखा है.
रातोंरात नहीं बदल सकता है शिक्षा का स्तर
विशेषज्ञों का कहना है कि ASER जैसे अनौपचारिक सर्वेक्षणों से सामने आया खराब शिक्षा स्तर देश में छात्रों की वर्षों की उपेक्षा और बुनियादी दक्षताओं पर ध्यान देने की कमी का नतीजा है. यह कमी स्कूली शिक्षा के शुरुआती दौर में ही शुरू हो जाती है और समय के साथ बढ़ती ही जाती है. अंततः छात्रों में ये कमी तब स्पष्ट होती है जब वे ऊपरी कक्षाओं में पहुंचते हैं या अपनी आजीविका शुरू करते हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत को पिछली शिक्षा नीति को अपग्रेड करने में 37 साल और पाठ्यक्रम की रूपरेखा बनाने में 17 साल लगे हैं. इसका मतलब है कि हम यहां कई दशकों से चल रही गड़बड़ी की बात कर रहे हैं. इस नुकसान की भरपाई कुछ सालों में नहीं की जा सकती. भारत के लगभग 15 लाख स्कूलों में स्कूली शिक्षा के हर स्तर पर व्यवस्थित तरीके से सुधार करने की जरूरत है.
शैक्षिक प्राथमिकताओं की ऐतिहासिक उपेक्षा
भारत की शिक्षा नीतियां और प्राथमिकताएं, वास्तविक शिक्षा के बजाय साक्षरता के प्रसार, नामांकन और स्कूल भवन के बुनियादी ढांचे जैसे मुद्दों पर ज़्यादा केंद्रित रही हैं. पिछली शताब्दी की शिक्षा नीतियां हों या 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE), दोनों ही छात्रों को स्कूलों में दाखिला दिलाने के उद्देश्य पर केंद्रित हैं. शिक्षा की गुणवत्ता और सीखने के तरीकों में सुधारों पर वास्तव में कोई बड़ा काम नहीं हुआ है. भाषा, विज्ञान और गणित जैसे विषयों को विशाल पाठ्यक्रम से बोझिल बना दिया गया है. पाठ्यक्रम और परीक्षाएं रोट लर्निंग को प्राथमिकता देती हैं, जबकि वास्तविक जीवन में आवश्यक 21वीं सदी के कौशलों के विकास को ध्यान में नहीं रखतीं. परीक्षाओं में वास्तविक समझ की बजाय रटने की क्षमता की परीक्षा ली जाती रही है. ऐसे में विशाल पाठ्यक्रम को कवर करने की होड़ में सार्थक शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य पीछे छूट गया.
NEP 2020 के साथ बदलाव की बयार
लेकिन हाल के दिनों में शिक्षा से जुड़ी बहस स्कूली शिक्षा में सीखने के परिणामों पर केंद्रित हो गई है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 की रिलीज ने गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा, आलोचनात्मक सोच और छात्रों के बहुमुखी विकास पर जोर देने के साथ-साथ सीखने पर फिर से ज़ोर दिया गया है. 'पाठ्यक्रम और पाठ्येतर के बीच कोई कठोर अलगाव नहीं', 'वैचारिक समझ पर जोर', 'रचनात्मक और आलोचनात्मक सोच' जैसे शब्द NEP 2020 में एक अपेक्षित और आवश्यक दार्शनिक बदलाव की ओर इशारा करते हैं.
इस पॉलिसी कार्यान्वयन ने पहले से ही निपुण लक्ष्य जैसे प्रारंभिक साक्षरता और गणितीय ज्ञान और ग्रेड 3 में फाउंडेशनल लर्निंग स्टडी (FLS) जैसे मजबूत मानकों के जरिए कुछ आशाजनक लक्ष्य तय कर दिए हैं. 2022-23 में हाल ही में संशोधित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF) पूरी तरह से चरित्र निर्माण पर केंद्रित है. यह करिकुलम कड़े मानकों के आधार पर विषयों और अलग-अलग ग्रेड में अपेक्षित सीखने के परिणामों के लक्ष्य तय करता है. CBSE ने अपने नए SEAS मूल्यांकन पद्धति के जरिए स्ट्रक्चर्ड असेसमेंट फॉर एनालाइजिंग लर्निंग (SAFAL) और एनसीईआरटी/परख (NCERT/PARAKH) जैसी पहल के माध्यम से दक्षता-आधारित प्रश्नों के आधार पर प्रारंभिक वर्षों में वास्तविक अवधारणा की समझ का परीक्षण करने के लिए अपने मूल्यांकन पैटर्न को फिर से तैयार किया है. इसमें 6000 से ज्यादा ब्लॉक के लिए 80 लाख से ज्यादा छात्रों का मूल्यांकन किया गया है. NEP के निर्देशों के मुताबित इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए, स्टेट असेसमेंट सर्वे (SAS) पर भी इन शैक्षणिक लक्ष्यों के लिए विचार किया जा सकता है.
आगे की राह सुधारों को आगे बढ़ाना
शिक्षा विशेषज्ञ उन स्पष्ट साक्ष्य-आधारित सुधारों से खुश हैं जो पिछले साढ़े तीन सालों में भविष्य के दृष्टिकोन से नेशनल एजुकेशन पॉलिसी (NEP) 2020 द्वारा लागू किए गए हैं. हालांकि, काम अभी शुरू हुआ है और इसका सबसे कठिन हिस्सा आगे है. संचालन में सुधार, शिक्षकों के कौशल का विकास और छात्रों के लिए उनकी व्यक्तिगत रुचि के मुताबिक सीखने का माहौल बनाने के लिए ज़रूरी नीतियों को लागू करने के लिए सभी राज्यों में सुधार की गति बनाए रखने की ज़रूरत होगी.
शिक्षा विशेषज्ञों के अनुसार, अधिगम के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा जा रहा है कि NEP 2020 की बयानबाजी अभी तक साक्षरता और संख्यात्मक योग्यता में कोई ठोस सुधार नहीं कर पाई है. हालांकि, हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि शिक्षा के परिणाम (अधिगम का आउटकम) प्रदर्शित होने में विलम्ब होता है, जिसका प्रभाव पूरी तरह से प्रणाली और स्कूलों में परिवर्तन के बाद ही दिखने लगता है. इसमें छात्रों की क्षमताओं में सुधार, शिक्षकों के कौशल में वृद्धि, पाठ्यक्रम का संतुलन, और स्कूलों की गुणवत्ता में समय लगता है. इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद ही हमें छात्रों के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद करनी चाहिए. पिछली शिक्षा नीतियों के विपरीत, NEP 2020 ने अपने निर्धारित व्यापक रोडमैप के अंतर्गत 3.5 सालों में एनसीएफ 2022 के साथ-साथ दक्षता-आधारित मूल्यांकन जैसे सुधारों का प्रभाव दिखाया है.
इसके विपरीत, 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति को 2005 में संशोधित NCF के रूप में सामने आने में 17 साल लग गए थे. आरटीई अधिनियम (RTE Act) को 1986 की शिक्षा नीति आने के बाद लागू होने में कई दशक लग गए. विशेषज्ञों का तर्क है कि नई एनईपी कार्यान्वयन की यह तेज गति दीर्घकालिक लक्ष्यों को हसिल करने के लिए आत्मविश्वास उत्पन्न करती है. हालांकि, सबसे बड़ी चुनौती कई शैक्षणिक चक्रों में इस नीति को लगातार जारी रखने की है.
आगे होने वाले रेग्युलेटरी सुधार
आगे स्कूली शिक्षा प्रणाली में गुणवत्ता और जवाबदेही लाने के लिए और अधिक प्रशासनिक और रेग्युलेटरी सुधारों पर विचार किया जाएगा. राज्यों में मौजूदा प्रणाली में, स्कूल शिक्षा विभाग अपने स्कूल (पब्लिक/सरकारी स्कूल) स्वयं संचालित भी करता है और राज्य भर के सभी स्कूलों को नियंत्रित भी करता है, जिससे वह खिलाड़ी और अंपायर दोनों बन जाता है. NEP 2020 ने एक स्वतंत्र, वैधानिक राज्य स्कूल मानक प्राधिकरण की स्थापना की सिफारिश की है जो सार्वजनिक और सरकारी स्कूलों के लिए 'हल्के लेकिन सख्त' नियम तैयार करेगा, शिक्षा की उपलब्धियों का मूल्यांकन करेगा, स्कूलों को मान्यता प्रदान करेगा, स्कूल-वाइज शिक्षा के परिणामों की सार्वजनिक रिपोर्टिंग करेगा, और गुणवत्ता की मांग को ध्यान में रखते हुए शिक्षण के सर्वोत्तम तरीकों को साझा करेगा. स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए ऐसे स्टेट स्कूल स्टैंडर्ड अथॉरिटी को संवैधानिक? जामा पहनाना जरूरी है. राज्यों को अपने स्कूली शिक्षा परिवेश में सुधार के लिए वर्तमान में लागू प्रतिबंधात्मक अधिनियमों, नियमों और विनियमों की सावधानीपूर्वक समीक्षा करनी चाहिए.
एक नियामक संस्था के रूप में स्टेट स्कूल स्टैंडर्ड अथॉरिटी को शिक्षा प्रणाली में स्कूलों के प्रवेश और निकास की निगरानी करने की जरूरत होगी. शिक्षा प्रणाली में स्कूलों के प्रवेश और निकासी उनके सीखने के प्रतिफल की उपलब्धियों पर आधारित करना होगा. इससे इस प्रक्रिया की कार्यकुशलता और पारदर्शिता को बढ़ावा मिलेगा. जिससे यह प्रक्रिया K-12 स्कूलों के लिए अनुमोदन की वर्तमान प्रणाली की तुलना में ज्यादा तेजी और बेहतर तरीके से काम करेगी.
स्कूल मानकों के लिए ऐसे प्राधिकरण की स्थापना देश में शैक्षिक गुणवत्ता तय करने की दिशा में एक महत्वाकांक्षी लेकिन जरूरी कदम है. हालांकि NEP एक मजबूत ढांचा प्रदान करता है. लेकिन SSSA की सफलता इन चुनौतियों से निपटने और पारदर्शी, कुशल और जवाबदेह स्कूल प्रशासन के लिए लगातार प्रयास करने की ऐसी क्षमता पर निर्भर करती है जो अन्य मापदंडों से ऊपर बच्चों के लिए सीखने को प्राथमिकता देती है. इसके अलावा, सिस्टम में इसकी भूमिका मुख्य रूप से नागरिकों द्वारा तय की जाएगी. विशेष रूप से माता-पिता अब सक्रिय भागीदार के रूप में काम कर सकते हैं. बच्चों के माता-पिता फीडबैक प्रदान करने और स्कूलों को अपने बच्चों की शिक्षा के लिए जवाबदेह बनाने के लिए काम कर सकते हैं. शिक्षा प्राणाली के रेग्युलेशन के लिए इस नए तरीके को अपनाने के साथ हम इनपुट से आउटपुट की ओर बढ़ रहे हैं. ऐसे में शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने से लेकर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अधिकार को हासिल करने की ओर कदम बढ़ाना अनिवार्य हो जाता है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कुछ पुराने कानूनों में संशोधन की जरूरत होगी. इससे वर्तमान जरूरतों के मुताबिक एक ऐसी न्यायसंगत शिक्षा प्रणाली स्थापित करने में सहायता मिलेगी जिसका लक्ष्य छात्रों को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देना है.
एक समान रेग्युलेटरी प्रक्रिया अपनाने का उद्देश्य सरकारी शिक्षा विभाग पर प्रशासनिक भार को कम करना, शिक्षा के व्यावसायीकरण जैसे मुद्दों का समाधान करना और साथ ही माता-पिता और छात्र हितों की रक्षा करना है. स्टेट स्कूल स्टैंडर्ड अथॉरिटी को कानून बना कर लागू करने में कुछ प्रगतिशील राज्यों की बढ़ती रुचि के साथ, एक केंद्रीकृत नियामक और स्कूल मानकों के लिए एक फ्रेमवर्क जल्द ही पेश होने की संभावना है.
अमृत काल में शिक्षा को प्राथमिकता
राष्ट्रीय शिक्षा नीति और स्कूलों के पाठ्यक्रम, शिक्षकों के प्रशिक्षण और सीखने के आकलन पर पड़ने वाले इसके प्रभाव एक नए युग की शुरुआत का प्रतिनिधित्व करते हैं जो हमारे देश के युवा दिमागों के लिए मूलभूत कौशल को प्राथमिकता देते हैं. इसमें सफलता का प्रमाण छात्र शिक्षण मेट्रिक्स पर लक्षित सुधार हासिल करना होगा जिन्हें NIPUN भारत मिशन और इसी तरह के दूसरे कार्यक्रमों में परिभाषित किया गया है.
हमारे बच्चों में इस शिक्षा के परिणाम दिखाई देने से पहले कई शैक्षणिक चक्रों में सुधार की गति को बनाए रखना जरूरी है. यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने बच्चों को पढ़ने, लिखने, सोचने, सवाल करने, सहयोग करने और समाज के संवेदनशील नागरिक बनने के जरूरी कौशल से लैस करें. जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि अमृत काल एक बेहतर शैक्षणिक महौल को पोषित करने के लिए सही रनवे प्रदान करता है जो अंततः गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को एक यथार्थवादी महत्वाकांक्षा बनाता है. अंततः, सुधारवादी नीतियों का महत्व तभी होता है जब वे बेहतर शिक्षा व्यवस्था को आकार देती हैं. इससे हमारे स्कूलों के लगभग 26 करोड़ शिक्षार्थियों का जीवन और भविष्य बनता है.
(लेखक- डॉ. किरीट प्रेमजीभाई सोलंकी, पूर्व लोकसभा सांसद, अहमदाबाद पश्चिम)
कांग्रेस नेता राहुल गांधी को लोकसभा में विपक्ष का नेता बनाए जाने की मांग हो रही है. यह पद पिछले दो बार से खाली पड़ा है.
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस काफी मजबूत बनकर सामने आई है. पार्टी ने पिछले दो चुनावों से बेहतर प्रदर्शन इस बार किया है. राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की अगुवाई में कांग्रेस को अपने दम पर 99 सीटें मिली हैं. जबकि इंडिया गठबंधन के खाते में 234 सीटें आई हैं. भले ही इंडिया गठबंधन सरकार बनाने के लिए बहुमत के आंकड़े से दूर रह गया है, लेकिन विपक्ष के तौर पर उसकी स्थिति मजबूत हुई है. चूंकि इस गठबंधन में कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी बनी है, इसलिए माना जा रहा है कि लोकसभा में विपक्ष का नेता राहुल गांधी को चुना जा सकता है. लीडर ऑफ अपोजिशन का यह पद बेहद महत्वपूर्ण होता है और इस पर काबिज सांसद को कई सुविधाएं भी मिलती हैं.
कैबिनेट मंत्री का होगा रुतबा
लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद पिछली 2 बार से खाली पड़ा है. क्योंकि विपक्षी दल के पास इसे भरने के लिए जरूरी सीटें नहीं थीं. अब स्थिति पूरी तरह से बदल गई है, इसलिए इस पद पर राहुल गांधी को बैठाने की मांग जोर पकड़ रही है. लीडर ऑफ अपोजिशन कैबिनेट स्तर का पद है. शुरुआत में यह कोई औपचारिक पद नहीं था. 1969 में विपक्ष के नेता पर आधिकारिक सहमति बनी और उसके अधिकार तय हुए. इस पद पर बैठे व्यक्ति का रुतबा कैबिनेट मंत्री से कम नहीं होता. उसे कैबिनेट मंत्री के बराबर ही वेतन, भत्ते और बाकी सुविधाएं मिलती हैं. यानी राहुल गांधी यदि विपक्ष के नेता चुने जाते हैं, तो उन्हें मोदी सरकार के मंत्री जैसी ही सुविधाएं मिलेंगी.
अब नियम नहीं आएगा आड़े
लीडर ऑफ अपोजिशन सदन में केवल विपक्ष का चेहरा ही नहीं होता, बल्कि कई अहम समितियों का सदस्य भी होता है. ये समितियां कई केंद्रीय एजेंसियों, जैसे कि ED, CBI, सेंट्रल इंफॉर्मेशन कमीशन और सेंट्रल विजिलेंस कमीशन के प्रमुखों को चुनने का काम करती हैं. इसका मतलब ये हुआ कि विपक्ष के नेता के रूप में राहुल इन एजेंसियों के चीफ के चुनाव में भी भूमिका निभाएंगे. 2014 के बाद से यह महत्वपूर्ण पद खाली पड़ा है. उस समय हुए चुनाव में कांग्रेस को महज 44 सीटें मिली थीं. जबकि पिछले चुनाव में कांग्रेस के पास 52 सीटें आई थीं. नियम के अनुसार, विपक्ष का नेता बनने के लिए किसी पार्टी के पास लोकसभा में 10% सीटें यानी 54 सीटें होनी ही चाहिए. इस बार कांग्रेस की सीटों का आंकड़ा बढ़कर 99 हो गया है. इसलिए विपक्ष के नेता का पद हासिल करने में नियम आड़े नहीं आएगा.
सीधे PM से कर पाएंगे सवाल
राहुल गांधी ने 2004 में राजनीति में एंट्री ली थी. उन्होंने अब तक किसी भी संवैधानिक पद पर काम नहीं किया है. जब उनकी पार्टी सत्ता में थी, तब भी उन्होंने कोई संवैधानिक पद ग्रहण नहीं किया. 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राहुल ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. पिछले साल उन्हें मानहानि के मामले में संसद से निष्कासित कर दिया गया था. प्रधानमंत्री के उपनाम का मजाक उड़ाने को लेकर उन्हें सजा सुनाई गई थी, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट से उन्हें राहत मिली और उनकी सांसदी भी वापस मिल गई. इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन ने राहुल गांधी की क्षमता पर उठते सवालों पर विराम लगा दिया है. यदि विपक्ष के नेता के रूप में राहुल के नाम सहमति बनती है, तो सीधे पीएम मोदी से सवाल करने की भूमिका में आ जाएंगे.
राजधानी दिल्ली जल संकट का सामना कर रही है. पानी की बर्बादी रोकने के लिए कड़े नियम बनाए गए हैं.
धधकती आग का अहसास दिलाने वाली गर्मी के बीच दिल्ली का गला सूख रहा है. राजधानी में पानी की किल्लत (Delhi Water Crisis) विकराल रूप धारण करती जा रही है. दिल्ली सरकार ने पानी की बर्बादी रोकने के लिए कड़ी नियम लागू कर दिए हैं. साथ ही सुप्रीम कोर्ट का भी दरवाजा खटखटाया है. दिल्ली के कई इलाकों में पारा पहले ही 50 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया. ऐसे में पानी की किल्लत ने लोगों की परेशानियों में इजाफा कर दिया है. चलिए समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर दिल्ली की बेंगलुरु वाली स्थिति हुई कैसे?
टैंकर देखते ही लगती है दौड़
इसी साल मार्च में कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु से भीषण जल संकट की खबर सामने आई थी. शहर के कई इलाके पूरी तरह से वॉटर टैंकर्स पर निर्भर हो गए थे और टैंकर ऑपरेटरों ने इस आपदा को अवसर मान लिया था. 1000 लीटर पानी के टैंकर की कीमत पहले 600-800 रुपए के बीच थी, लेकिन मार्च में बढ़कर 2000 रुपए से ज्यादा हो गई थी. अब करीब दो महीने बाद देश की राजधानी दिल्ली से ऐसी खबरें आ रही हैं. पानी के टैंकर देखते ही लोग उसके पीछे दौड़ पड़ते है. लगातार बिगड़ते हालात देखकर केजरीवाल सरकार के भी हाथ-पांव फूल गए हैं.
इस वजह से बिगड़े हालात
दिल्ली में जल संकट कोई नई समस्या नहीं है, लेकिन इस बार स्थिति ज्यादा खराब दिखाई दे रही है. क्योंकि गर्मी इस बार सभी रिकॉर्ड तोड़ने पर अमादा है. गर्मी के चलते पानी की डिमांड बढ़ गई है. दिल्ली में जलापूर्ति पहले से ही कम है, ऐसे में बढ़ती डिमांड ने संकट बढ़ा दिया है. दिल्ली का अपना कोई जल स्रोत नहीं है. इसका मतलब है कि राजधानी पानी के लिए पूरी तरह से पड़ोसी राज्यों पर निर्भर है. गर्मी केवल दिल्ली ही नहीं देश के अधिकांश हिस्से की परेशानी का कारण बनी हुई है. पानी के खपत सभी प्रभावित हिस्सों में बढ़ी है, इसलिए दिल्ली को ज्यादा पानी नहीं मिल रहा है. दिल्ली जल बोर्ड के अनुसार, 2024 में दिल्ली प्रतिदिन करीब 32.1 करोड़ गैलन पानी का सामना कर रही है.
कहां से होती है सप्लाई?
दिल्ली को हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश से पानी मिलता है. हरियाणा सरकार यमुना नदी से, यूपी सरकार गंगा नदी से और पंजाब सरकार भाखरा नांगल से दिल्ली को पानी सप्लाई करती है. सभी जगह से दिल्ली को प्रतिदिन 96.9 करोड़ गैलन पानी मिलता है, जबकि हर दिन 129 करोड़ गैलन पानी की आवश्यकता. यानी दिल्ली को आवश्यकता से कम पानी मिल रहा है. सरकारी स्तर पर जल संकट से निपटने के पूर्व में भी कई दावे किए गए हैं, लेकिन मौजूदा स्थिति उन दावों की असलियत बयां करने के लिए काफी है. अब केजरीवाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई है कि वो पड़ोसी राज्यों से दिल्ली को ज्यादा पानी देने का निर्देश दे. सरकार का कहना है कि हरियाणा द्वारा यमुना में कम पानी छोड़ने के चलते हालात बिगड़े हैं.
देने पड़ सकते हैं ज्यादा दाम
पानी की किल्लत जहां आम जनता के लिए मुसीबत है. वहीं, कुछ लोगों के लिए मुनाफा कमाने का अवसर बन गई है. जल संकट के चलते प्राइवेट टैंकरों की डिमांड बढ़ जाती है. इसके अलावा, RO का पानी भी महंगा हो जाता है. दिल्ली में बड़े पैमाने पर पानी की बोतलें सप्लाई होती हैं, ऐसे में आने वाले दिनों उनकी कीमतों में उछाल आ सकता है. 2021 में जब पूर्वी और उत्तर-पूर्वी दिल्ली के बड़े हिस्से में जल संकट हुआ था, तब ऐसा ही देखने को मिला था. पानी की 20 लीटर वाली बोतल के दाम दोगुने हो गए थे. 40-50 रुपए में मिलने वाली ये बोतल 80 से 100 रुपए में बिक रही थी.
चार जून को आने वाले लोकसभा चुनाव के नतीजे बाजार की चाल निर्धारित करेंगे. यदि नतीजे बाजार की उम्मीद के अनुरूप आते हैं, तो सबकुछ अच्छा रहेगा. अन्यथा मार्केट बड़ी गिरावट से गुजर सकता है.
लोकसभा चुनाव के नतीजों (Lok Sabha Election Results 2024) की घड़ी नजदीक आ गई है. एक जून को आखिरी चरण का मतदान होना है और 4 जून को पता चल जाएगा कि जनता के मन में क्या है. वैसे तो यह लगभग तय मानकर चला जा रहा है कि मोदी सरकार की वापसी होगी. लेकिन चुनाव भी क्रिकेट की तरह है, जहां आखिरी वक्त पर भी पासा पलट सकता है. इसलिए निवेशक शेयर बाजार में पैसा लगाने के बजाए तस्वीर स्पष्ट होने इंतजार कर रहे हैं. दरअसल, तमाम ब्रोकरेज फर्म और एक्सपर्ट्स यह अनुमान जाता चुके हैं कि अगर चुनावी नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं आते, तो बाजार पूरी तरह बिखर सकता है. इस कारण से निवेशक कोई जोखिम मोल लेने के मूड में नहीं हैं.
लौट सकती है पुरानी स्थिति
ग्लोबल ब्रोकरेज फर्म यूबीएस (UBS) का कहना है कि अगर लोकसभा चुनाव के नतीजे में BJP की अगुवाई वाले NDA के पक्ष में नहीं रहते, तो इक्विटी बाजार का वैल्यूएशन 2014 से पहले के स्तर तक जा सकता है. राजनीतिक अस्थितरता और नीतियों से प्रभावित होने की आशंका के कारण निवेशकों का भरोसा डगमगा सकता है, जिससे बाजार NDA कल के पहले वाली स्थिति में जा सकता है. UBS का कहना है कि ऐतिहासिक रूप से जब भी चुनाव रिजल्ट के कारण स्टॉक मार्केट में गिरावट आई है, तो उसकी भरपाई के लिए मीडियम से लॉन्ग टर्म तक इंतजार करना पड़ा है. क्योंकि बाजार और कंपनियों को नई सरकार की नीतियों के अनुरूप ढलने में समय लगता है.
पूरी होगी 400 पार की आशा?
वहीं, कुछ अन्य ब्रोकरेज फर्म का मानना है कि यदि लोकसभा चुनाव में भाजपा 272 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर पाती, तो बाजार में बड़ी बिकवाली को बढ़ावा मिल सकता है. कहने का मतलब है कि रिकॉर्ड हाई पर पहुंच चुका बाजार धड़ाम से नीचे आ सकता है. बीजेपी ने इस बार 400 पार का नारा दिया है. PM मोदी से लेकर पार्टी के तमाम नेता यह विश्वास जाहिर कर चुके हैं कि उन्हें 400 से ज्यादा सीटें मिलेंगी. हालांकि, राजनीति के अधिकांश जानकारों का मत है कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को 300 से ज्यादा और राजग को 330-340 सीटें मिल सकती हैं.
इन 3 पॉइंट में समझें क्या हो सकता है
1. यदि चुनाव परिणाम भाजपा की उम्मीद के अनुरूप रहता है और वो सिंगल-पार्टी मैज्योरिटी बरकरार रखती है, तो बाजार में उछाल देखने को मिलेगा. दरअसल, इससे निवेशकों को यह भरोसा रहेगा कि सरकार की सुधार संबंधी नीतियां जारी रहेंगी. खासकर विनिवेश, लैंड बिल और यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे मुद्दों पर बात आगे बढ़ सकती है. इससे फाइनेंशियल मार्केट का सेंटीमेंट पॉजिटिव बना रहेगा.
2. यदि भाजपा बहुमत हासिल नहीं कर पाती, लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में NDA की सरकार बनती है, तो बाजार में अस्थिरता का माहौल निर्मित हो सकता है. ब्रोकरेज फर्म फिलिप कैपिटल का मानना है कि ऐसी स्थिति में इक्विटी मार्केट में बड़ी बिकवाली हो सकती है. वहीं, अगर एनडीए बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाता और किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलता तो बाजार में अनिश्चितता काफी ज्यादा बढ़ सकती है. इस स्थिति में मार्केट लगातार बड़ा गोता लगा सकता है.
3. यदि INDIA गठबंधन की सरकार बनती है, तो इससे बाजार में अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. क्योंकि ऐसा होने पर नीतियों में बदलाव की संभावना बनी रहेगी. निवेशकों को हमेशा यह डर लगा रहेगा कि नई सरकार पुरानी नीतियों को बदल सकती है. बाजार को नई सरकार के अनुरूप ढलने में समय लगता है, लिहाजा सत्ता परिवर्तन की स्थित में कुछ समय तक मार्केट में नरमी का रुख देखने को मिल सकता है.
गठबंधन सरकार के फायदे और नुकसान
गठबंधन की सरकार बनने पर महंगाई जैसे मुद्दों पर आम जनता को कुछ राहत मिल सकती है. क्योंकि दाम बढ़ाने के लिए सभी सहयोगियों की सहमति आवश्यक हो जाती है. गठबंधन में शामिल पार्टियों को व्यक्तिगत तौर पर भी अपने वोट बैंक की चिंता होती है, ऐसे में महंगाई पर मूक सहमति देकर वह उसके दरकने के जोखिम नहीं उठा सकतीं. 2014 से पहले ऐसा अक्सर देखने को मिलता था. हालांकि, गठबंधन की सरकार का एक नुकसान भी है. सरकार को दबाव में काम करना पड़ता है. आर्थिक सुधारों पर कठोर निर्णय नहीं लेने के चलते राजकोषीय और राजस्व घाटा बढ़ता जाता है, जो लॉन्ग टर्म में बड़ी मुश्किल बन सकता है.
हाल ही में आई टोबैको कंट्रोल रिपोर्ट बताती है कि टीनेजर गर्ल्स में सिगरेट पीने की लत काफी बढ़ गई है.
भारत में 'हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाने' वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. सिगरेट (Cigarette) के कश लगाने वालों में अब लड़कियां भी पीछे नहीं हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की टोबैको कंट्रोल रिपोर्ट बताती है कि टीनेजर गर्ल्स में सिगरेट पीने की लत काफी बढ़ गई है. पिछले 10 साल में इसमें दोगुना वृद्धि हुई है. साल 2009 में सिगरेट पीने वालीं टीनेजर लड़कियों की संख्या 3.8% थी, जो 2019 में बढ़कर 6.2% हो गई. हालांकि, अब भी इस मामले में लड़के लड़कियों से आगे हैं.
घट रहा है जेंडर गैप
रिपोर्ट के अनुसार, 10 साल में टीनेजर लड़कों में सिगरेट पीने ललक तेजी से बढ़ी है. इसमें 2.3% का इजाफा देखने को मिला है. यहां गौर करने वाली बात ये है कि सिगरेट पीने वाले एडल्ट पुरुष और महिलाओं की संख्या में कमी आई है. टोबैको के मामले में जेंडर गैप बहुत कम रह गया है. 2019 में 7.4 फीसदी गर्ल्स टोबैको यूजर्स थीं, जबकि इसका सेवन करने वाले लड़कों की 9.4 फीसदी थी. सिगरेट से कई तरह की बीमारियों का खतरा रहता है. इसके बावजूद इसका नशा बढ़ता जा रहा है.
सबसे ज्यादा लगता है GST
भारत में सिगरेट का कारोबार काफी बड़ा है और इसके आने वाले समय में और बड़ा होने की संभावना है. एक रिपोर्ट बताती है कि देश में सिगरेट का मार्केट साइज 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक का है. इसके 2024 से 2028 के बीच 4.49% की एनुअल ग्रोथ रेट से बढ़ने का अनुमान है. देश में सिगरेट के साथ-साथ बीड़ी का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है. खासकर ग्रामीण इलाकों में बीड़ी की खपत अधिक है. बीड़ी का मार्केट साइज करीब 50,000 करोड़ रुपए का है. सिगरेट जैसे तंबाकू उत्पादों पर देश में सबसे ज्यादा टैक्स लगता है. उन्हें 28% GSTके स्लैब में रखा गया है. GST के अलावा, इन पर कंपनसेशन सेस, बेसिक एक्साइज ड्यूटी और NCCD भी लगता है. इस तरह सिगरेट पर कुल 52.7% टैक्स लगता है. इसलिए सिगरेट काफी महंगी पड़ती है. सिगरेट को महंगा बनाने के पीछे उद्देश्य ये है कि लोग इसे कम खरीदेंगे, लेकिन ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है.
बैन के बावजूद बढ़ रहा चलन
बीते कुछ समय से देश में ई-सिगरेट का चलन भी जोर पकड़ रहा है. वैसे तो सरकार ने कुछ साल पहले इस पर बैन लगा दिया था, लेकिन इसके बावजूद कुछ ऑनलाइन स्टोर्स और लोकल वेंडर्स के माध्यम से यह उपलब्ध हो जाती है. 2019 में जब इस पर बैन लगाया गया था, तब देश में ई-सिगरेट के 460 ब्रांड मौजूद थे, जो 7,700 से भी ज्यादा फ्लेवर की ई-सिगरेट ऑफर कर रहे थे. हाल ही में UGC ने सभी यूनिवर्सिटी और कॉलेजों के समक्ष यह सवाल उठाते हुए पत्र लिखा था कि बैन के बावजूद ई-सिगरेट और ऐसे अन्य प्रोडक्ट्स छात्रों को आसानी से कैसे मिल जाते हैं? UGC ने उच्च शिक्षा संस्थानों को स्पेशल ड्राइव चलाकर औचक निरीक्षण करने को भी कहा था.
कौनसी कंपनी है नंबर 1?
भारत में कई कंपनियां सिगरेट बनाती हैं, लेकिन इस मामले में नंबर 1 है ITC. कंपनी को अपने सिगरेट कारोबार से तकरीबन हर साल बड़ा मुनाफा होता है. ITC के कई सिगरेट ब्रैंड हैं, जिनमें Wills Navy Cut, Gold Flake, Insignia, India Kings, Classic, American Club, Players, Scissors, Capstan, Berkel, Flake, Silk Cut और Duke & Royal प्रमुख हैं. देश की दूसरी बड़ी सिगरेट कंपनी VST Industrie है. वहीं, Godfrey Phillips ने 1936 में भारत में कदम रखा था. 1968 में इस कंपनी को Modi Enterprises ने खरीद लिया. इस कंपनी के Marlboro, Four Square, Cavanders, Red & White, Stellar, North Pole & Tipper जैसे मशहूर सिगरेट ब्रैंड हैं. इसी तरह, Dalmia Group और NTC industries भी सिगरेट के कारोबार में हैं.