चीन चिढ़ा, तुर्की नाराज, ऐसा क्या है इस Economic Corridor में, भारत को कैसे मिलेगा फायदा? 

भारत-अमेरिका-यूरोपीय यूनियन और सऊदी अरब के बीच जिस इकॉनोमिक कॉरिडोर पर सहमति बनी है, उससे चीन के साथ-साथ तुर्की को भी मिर्ची लग रही है.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो by
Published - Wednesday, 13 September, 2023
Last Modified:
Wednesday, 13 September, 2023
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दुनिया के सबसे शक्तिशाली समूह G-20 के शिखर सम्मेलन की मेजबानी करके भारत ने बहुत कुछ हासिल किया है. कूटनीतिक, रणनीतिक और कारोबार के लिहाज से आने वाले समय में भारत को बड़े फायदे मिलने वाले हैं. इस दौरान, भारत-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकनॉमिक कॉरिडोर (India Middle East Europe Economic Corridor) पर बनी सहमति को देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है. भारत, यूरोपियन यूनियन (EU), अमेरिका और सऊदी अरब ने G-20 समिट के इतर इस महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट पर सहमति जताते हुए एक एमओयू पर दस्तखत किए थे. इस प्रोजेक्ट में कुल 8 देश शामिल हैं.

कुल कितना आएगा खर्चा?
माना जा रहा है कि ये आर्थिक गलियारा यूरोप से एशिया तक दोनों महाद्वीपों में आर्थिक विकास को गति देगा. अमेरिका इस इकनॉमिक कॉरिडोर से बेहद खुश है और उसका कहना है कि इससे यूरोप से एशिया तक संपर्क के नए युग की शुरुआत होगी. इस कॉरिडोर के अमल में आने के बाद रेल और जहाज से भारत से यूरोप तक पहुंचा जा सकेगा. इसे चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का जवाब माना जा रहा. इस इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पर कितना खर्च आएगा, फिलहाल इसकी कोई जानकारी नहीं है, लेकिन अनुमान है कि इसकी लागत 20 अरब डॉलर के आसपास होगी. जानकारी के अनुसार, इस कॉरिडोर के दो हिस्से होंगे. पहला- ईस्टर्न कॉरिडोर, जो भारत को खाड़ी देशों से जोड़ेगा और दूसरा- नॉर्दर्न कॉरिडोर, जो खाड़ी देशों को यूरोप से जोड़ेगा.  इस कॉरिडोर में केवल रेल नेटवर्क ही नहीं होगा, बल्कि इसके साथ-साथ शिपिंग नेटवर्क भी होगा. 

चीन के बाद तुर्की का फूला मुंह
भारत की इस उपलब्धि से चीन तो चिढ़ा ही है, तुर्की को भी मिर्ची लग रही है. दरअसल, इकनॉमिक कॉरिडोर को आकार देने के लिए कुल 8 देश आगे आए हैं, इनमें भारत, UAE, सऊदी अरब, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इटली और EU शामिल हैं. हालांकि, इस प्रोजेक्ट का फायदा इस्राइल और जॉर्डन को भी मिलेगा, लेकिन ये कॉरिडोर तुर्की को बायपास करता है. इसी को लेकर तुर्की के राष्ट्रपति नाराज हैं. उनका यहां तक कहना है कि तुर्की के बिना कोई गलियारा नहीं हो सकता. क्योंकि पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाले ट्रैफिक को तुर्की से होकर गुजरना होगा. तुर्की उत्पादन और व्यापार का महत्वपूर्ण आधार है.

शिपिंग टाइम हो जाएगा काफी कम 
माना जा रहा है कि इस प्रोजेक्ट इकनॉमिक कॉरिडोर के अमल में आने के बाद शिपिंग टाइम 40% तक कम हो सकता है. जिसका सीधा मतलब है कि समय और पैसे की बचत. भारत से निकला सामान यूरोप कम समय में पहुंच सकेगा. इससे व्यापार बढ़ने की संभावनाएं भी उत्पन्न होंगी. एक रिपोर्ट के अनुसार, मौजूदा समय में भारत से समुद्री रास्ते से जर्मनी तक सामान पहुंचने में एक महीना लगता है, लेकिन कॉरिडोर बनने के बाद सामान महज दो हफ्ते में पहुंच जाएगा. फिलहाल, मुंबई से निकलने वाले कार्गो कंटनेर स्वेज नहर के रास्ते यूरोप पहुंचते हैं. कॉरिडोर बनने के बाद ये कंटेनर दुबई से इजरायल के हाइफा पोर्ट तक ट्रेन से जा सकेंगे. 

कारोबार नहीं होगा प्रभावित
स्वेज नहर एशिया को यूरोप से और यूरोप को एशिया से जोड़ती है. तेल का अधिकतर कारोबार इसी नहर के रास्ते होता है. ऐसे में यदि इस रूट पर कोई दिक्कत आती है, जैसे कि 2021 में एक बड़े जहाज के फंसने से हुई थी, तो कॉरिडोर के रूप में एक विकल्प भी होगा और किसी भी सूरत में अंतरराष्ट्रीय कारोबार प्रभावित नहीं होगा. एक्सपर्ट्स मानते हैं कि इस कॉरिडोर के जरिए भारत से लेकर मिडिल ईस्ट और फिर यूरोप तक कारोबार करना तो आसान होगा ही, साथ ही एनर्जी रिसोर्सेस के ट्रांसपोर्ट और डिजिटल कनेक्टिविटी में भी मजबूती आएगी.


फेस्टिव सीजन में तगड़ी खरीदारी के मूड में भारतीय, ऑफर के लालच से होते हैं प्रेरित

त्योहारी सीजन को लेकर भारतीय उपभोक्ताओं में आशावाद बना हुआ है. यही कारण है कि भारतीय उपभोक्ता इस त्योहारी सीजन में बड़ी खरीदारी की तैयारी कर रहे हैं.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो by
Published - Monday, 30 September, 2024
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Monday, 30 September, 2024
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Rediffusion विज्ञापन एजेंसी और लखनऊ यूनिवर्सिटी के सहयोग से बने भारत लैब ने दिवाली पल्स 2024 रिपोर्ट पेश की है, जिसमें भारत के हिंदी क्षेत्रों में दिवाली से पहले खरीदारी के रुझान और ग्राहकों की भावनाओं के बारे में बताया गया है. 3,480 लोगों से मिली जानकारी के आधार पर, रिपोर्ट दिखाती है कि महंगाई के बावजूद एक सकारात्मक माहौल बना हुआ है, और अधिकतर लोग अपनी खर्च करने की आदतों को बनाए रखना या बढ़ाना चाहते हैं. फैशन, इलेक्ट्रॉनिक्स, और होम डेकोर जैसी श्रेणियों को कवर करते हुए, रिपोर्ट यह बताती है कि त्योहारों के करीब आते ही भारत की पसंद कैसे बदल रही है.

Rediffusion के चेयरमैन डॉ. संदीप गोयल ने इस अध्ययन के बारे में जानकारी दी, उन्होंने कहा कि हमने पिछले साल त्योहारों से पहले 'मूड ऑफ भारत' अध्ययन शुरू किया था. इस साल का अध्ययन और बड़ा, गहरा और व्यापक है - इसमें मीडिया से जुड़े कई और पहलुओं को भी शामिल किया गया है, जो लोगों की खरीदारी की योजनाओं को प्रभावित करते हैं.

रिपोर्टों में दिखाया गया है कि उपभोक्ताओं का एक बड़ा हिस्सा (36.18%) पिछले साल की तुलना में अपने त्योहारों पर खर्च बढ़ाने की योजना बना रहा है, जबकि 35.02% अपने पिछले खर्च को बनाए रखेंगे. हालांकि, 29.52% बढ़ती लागत के कारण अपने खर्च को कम कर रहे हैं. उपभोक्ता की उम्मीद और सावधानी के बीच यह संतुलन उद्योग के नेताओं द्वारा भी महसूस किया गया है. पीएमजे ज्वेल्स (PMJ Jewels) के प्रबंध निदेशक दिनेश जैन ने कहा कि महामारी के बाद की रिकवरी के कारण उपभोक्ता खर्च बढ़ा है, और पारंपरिक और आधुनिक गहनों की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है.

मुख्य उपभोक्ता रुझान बताते हैं कि फैशन सबसे प्रमुख श्रेणी है, जिसमें 86.35% उत्तरदाता अपने कपड़े नए करने की योजना बना रहे हैं. व्यक्तिगत उपहार (72.84%), होम डेकोर (70.83%), और इलेक्ट्रॉनिक्स (60.92%) इसके बाद आते हैं. स्थिरता का आंदोलन भी बढ़ रहा है, जिसमें 83.36% खरीददार पर्यावरण संबंधी चिंताओं को ध्यान में रखते हैं, खासकर फैशन और इलेक्ट्रॉनिक्स की खरीदारी में.

रिपोर्ट में दिखाया गया है कि 86.35% उपभोक्ता नए कपड़े और एक्सेसरीज़ खरीदने की योजना बना रहे हैं, जिसमें पुरुष थोड़े आगे हैं, 51.75% पुरुष और 47.92% महिलाएं. इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में, पुरुषों का रुझान अधिक है, जहां 55.66% खरीदारी की योजना पुरुषों की है, जबकि महिलाओं की हिस्सेदारी 43.87% है. इसके विपरीत, होम डेकोर श्रेणी में महिलाएं अधिक सक्रिय हैं, जहाँ 73.31% महिलाएं खरीदारी करने की योजना बना रही हैं.

ऑनलाइन शॉपिंग लगातार बढ़ रही है, जहाँ 58% से अधिक उपभोक्ता ऑनलाइन और ऑफलाइन खरीदारी का मिश्रित तरीका पसंद कर रहे हैं. मिलेनियल्स और जनरेशन Z इस डिजिटल बदलाव का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसमें 85% से अधिक लोग ऑनलाइन खरीदारी को चुन रहे हैं. इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग भी अहम भूमिका निभा रही है, जहाँ 53.69% उपभोक्ता सोशल मीडिया से प्रभावित हैं, खासकर फैशन और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसी श्रेणियों में.

त्योहारी सीजन के दौरान निवेश की योजनाएं भी बढ़ रही हैं, जहां लगभग आधे उत्तरदाता पारंपरिक संपत्तियों जैसे सोना (55.26%) और रियल एस्टेट (40.74%) में निवेश करने की योजना बना रहे हैं. ये रुझान वित्तीय सुरक्षा पर बढ़ते ध्यान को दर्शाते हैं, जैसा कि लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आलोक के. राय ने बताया कि भारत इस दीवाली खुश और खर्च करने को तैयार नजर आ रहा है. उपभोक्ता शायद बढ़ते शेयर बाजार और सरकार व अर्थव्यवस्था की स्थिरता से प्रोत्साहित हैं.

महंगाई एक चिंता का विषय होने के बावजूद, यह पूरी तरह से लोगों के उत्साह को कम नहीं कर रही है. 70% से अधिक उपभोक्ता बताते हैं कि महंगाई उनके खर्च के फैसलों को ज्यादा प्रभावित नहीं करेगी. वास्तव में, 30.42% लोग अपने बजट को 25-50% तक बढ़ाने की योजना बना रहे हैं ताकि बढ़ती कीमतों के साथ तालमेल बैठा सकें, जो उपभोक्ता व्यवहार में लचीलापन दिखाता है. पारले के सीनियर कैटेगरी हेड, कृष्णाराव बुद्धा ने कहा कि हम त्योहारी सीजन के दौरान 25% से अधिक की वृद्धि की उम्मीद कर रहे हैं, और इस मांग को पूरा करने के लिए हम विभिन्न गिफ्टिंग विकल्प लॉन्च कर रहे हैं. 

इसके अलावा, लगभग 50% उपभोक्ता त्योहारी सीजन के दौरान यात्रा करने की योजना बना रहे हैं, जिसमें 54.12% यात्रा परिवार के साथ होगी. यह रुझान दिखाता है कि लोग दीवाली के दौरान परंपरा और अवकाश के बीच संतुलन बना रहे हैं. जैसे-जैसे त्योहार करीब आता है, ब्रांड्स और व्यवसायों के पास उपभोक्ताओं की उम्मीदों को भुनाने का अच्छा मौका है, खासकर छूट, डिजिटल जुड़ाव और स्थायी विकल्पों के माध्यम से.
 


फेविकोल जैसी मजबूत जोड़ी में कैसे आई दरार, क्या है IndiGo से गंगवाल की जुदाई की कहानी?

राकेश गंगवाल ने हाल ही में एक बड़ी ब्लॉक डील के जरिए देश की सबसे बड़ी एयरलाइन इंडिगो में अपनी पूरी हिस्सेदारी बेच दी है.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो by
Published - Saturday, 31 August, 2024
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Saturday, 31 August, 2024
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ऐसे समय में जब एविएशन सेक्टर में एंट्री एयर टर्बुलेंस में फंसे विमान जितनी ही जोखिमभरी थी, राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल ने इंडिगो को लॉन्च किया.  अपने अनुभव और रणनीति की बदौलत उन्होंने इंडिगो की सफलता की कहानी लिखी. दोनों के बीच गज़ब का तालमेल था. मार्केट की ज़रूरत के अनुसार खुद को ढालने की क्षमता और बाजार की चुनौतियों को हर हाल में मात देने के जुनून ने इस जोड़ी को सफल लीडर के रूप में पेश किया. फिर अचानक फेविकोल सी मजबूत नज़र आने वाले इस रिश्ते में दरार आ गई.  राकेश गंगवाल इंडिगो का कॉकपिट छोड़कर बाहर आ गए. 

11,000 करोड़ के शेयर बेचे
साल 2022 की शुरुआत में राकेश गंगवाल ने कंपनी के बोर्ड से इस्तीफा दे दिया और धीरे-धीरे कंपनी में अपनी हिस्सेदारी बेचने की घोषणा कर डाली. यानी उन्होंने इंडिगो को हमेशा के लिए अलविदा कहना का मन बना लिया था. इसके बाद वह बीच-बीच में अपनी हिस्सेदारी घटाते चले गए और अभी हाल ही में उन्होंने ब्लॉक डील के जरिए लगभग 11,000 करोड़ रुपए शेयर बेच दिए. बताया जा रहा है कि अब राकेश गंगवाल की इंडिगो में कोई हिस्सेदारी शेष नहीं है. जून 2024 के आंकड़ों के मुताबिक, राकेश गंगवाल के पास कंपनी की लगभग 6 प्रतिशत इक्विटी थी. जबकि उनके फैमिली ट्रस्ट द चिंकरपू फैमिली ट्रस्ट के पास 13.49% हिस्सेदारी थी.

2006 में हुई थी शुरुआत 
इंडिगो की शुरुआत साल 2006 में राहुल भाटिया ने राकेश गंगवाल के साथ मिलकर की थी. आज के समय में यह देश की सबसे बड़ी एयरलाइन है. एविएशन सेक्टर में इंडिगो की बाजार हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से ज्यादा है. राहुल भाटिया दिल्ली के रहने वाले हैं, जबकि राकेश गंगवाल अमेरिका में रहते हैं. बिज़नेस की डोर दोनों को करीब लेकर आई थी. गंगवाल कई बड़ी एयरवेज कंपनियों में काम कर चुके थे. उन्हें एविएशन सेक्टर की काफी नॉलेज थी. लिहाजा, भाटिया ने उनके सामने एयरलाइन शुरू करने का प्रस्ताव रखा. दोनों ने तमाम चुनौतियों के बावजूद इस दिशा में कदम बढ़ाया. इंडिगो को 2004 में ही लाइसेंस मिल गया था, लेकिन इसकी सेवाएं 2006 तक शुरू हो सकीं क्योंकि उसके पास विमान नहीं थे.

गंगवाल की बदौलत मिले प्लेन 
राकेश गंगवाल ने अपने कांटेक्ट और अनुभव का इस्तेमाल करते हुए एयरबस से उधार पर 100 विमान हासिल किए और इस तरह चार अगस्त 2006 को इंडिगो ने अपनी पहली उड़ान भरी. हालांकि, नई-नवेली इंडिगो के सामने चुनौतियों का अंबार था. उसे ज्यादा से ज्यादा यात्रियों को अपनी तरफ आकर्षित करना था, ताकि आकाश में मौजूद दूसरी दिग्गज कंपनियों के बीच खुद को बचाए रखा जाए. नई एयरलाइन पर भरोसा एकदम से नहीं होता, इसलिए इसकी संभावना ज्यादा नहीं थी कि अमीर यात्री इंडिगो के लिए अपनी फेवरेट एयरलाइन से नाता तोड़ेंगे. ये वो दौर था जब हवाई सफर आज जितना आसान नहीं था. इसकी सबसे बड़ी वजह थी किराया. इसलिए इसे अमीरों का साधन करार दे दिया गया था. इसी को ध्यान में रखते हुए IndiGo ने पहले आम यात्रियों पर फोकस का निर्णय लिया.

काम कर गया दांव 
कहने का मतलब है कि इंडिगो ने सस्ते हवाई टिकट पर जोर दिया. महंगे पेशे में सस्ते की पेशकश जोखिम भरा काम तो था, लेकिन राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल ने दांव खेला और उनका ये दांव काम कर गया. इंडिगो के टिकट हाथों बिकने लगे और कंपनी जोखिम की आशंका को दूर छोड़ती हुई आगे निकल गई. इंडिगो ने बड़ी छलांग लगाने के लिए छोटे-छोटे मुद्दों पर भी गौर किया. उदाहरण के तौर पर कंपनी ने अपने टर्नअराउंड समय को कम करने के लिए कई ऐसे कदम उठाए, जिनकी बदौलत उसके विमानों के फेरे बढ़ गए. जाहिर है जब फेरे बढ़ेंगे तो मुनाफा भी होगा. इस तरह, कंपनी देश की सबसे बड़ी एयरलाइन बन पाई. 

मनमुटाव और मनभेद
अक्सर सफलता की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद अपनों में मनमुटाव और मनभेद उजागर हो जाते हैं. इंडिगो के मामले में भी ऐसा हुआ. राकेश और राहुल की सफल जोड़ी में पहले वाली अंडरस्टैंडिंग  का अभाव नज़र आने लगा. उनके बीच मुद्दों पर असहमति आम हो गई. दोनों में इस बात को लेकर झगड़ा हुआ कि एयरलाइन को कौन और कैसे चलाएगा. 2022 की शुरुआत में जब इंडिगो ने राहुल भाटिया को प्रबंध निदेशक के रूप में नामित किया, तब गंगवाल ने निदेशक पद इस्तीफे से दे दिया. बताया जाता है कि गंगवाल ने कंपनी के आर्टिकल ऑफ एसोसिएशन के नियमों में बदलाव की मांग की थी, लेकिन उनकी मांगों को स्वीकार नहीं किया गया. गंगवाल इससे इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने इंडिगो से पूरी तरह नाता तोड़ने का ऐलान कर डाला. हाल ही में कंपनी में अपनी पूरी हिस्सेदारी बेचने के साथ ही उन्होंने बाकायदा ऐसा कर दिखाया है. 


बांग्लादेश संकट के बीच पीएम मोदी का क्या होगा अगला कदम? इस रिपोर्ट में जानिए

राजनीतिक के इस शतरंज के खेल में, पीएम मोदी जो वर्तमान में एक गठबंधन सरकार चला रहे हैं, धीरे-धीरे अपने कदम उठा रहे हैं.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो by
Published - Wednesday, 21 August, 2024
Last Modified:
Wednesday, 21 August, 2024
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राजनीति और शतरंज में, पहले से सोच समझकर चाल चलने से ही खेल का अंत तय होता है. सुब्रमण्यम स्वामी की दिल्ली हाई कोर्ट में कांग्रेस पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री (PM) पद के दावेदार राहुल गांधी के खिलाफ दायर याचिका बहुत सही समय पर आई है, लेकिन इस कहानी के बारे में बाद में और बात करेंगे.

बांग्लादेश में शेख हसीना के सत्ता से बेदखल के बाद वैश्विक राजनीति में गर्मी बढ़ गई है. पीएम मोदी की वजह से, हसीना एक बर्बर हमले से बच गईं, जब उग्रवादियों ने उनके आधिकारिक निवास को लूट लिया. हसीना उन लोगों को कभी नहीं भूलेंगी जिन्होंने उनके गिराने की साजिश की. हसीना ने अमेरिका पर निशाना साधा है, उन्होंने एक मीडिया साक्षात्कार में कहा कि वर्तमान अमेरिकी प्रशासन ने उनकी गिरावट को अंजाम दिया, क्योंकि वे सेंट मार्टिन का द्वीप, जो बांग्लादेश के नियंत्रण में है, अमेरिका को एक सैन्य अड्डे के लिए देने से इनकार कर रही थीं.

हसीना ने पहले भी कहा था कि एक अमेरिकी अधिकारी ने उन्हें सेंट मार्टिन के आधार पर सुचारू पुन: चुनाव की पेशकश की थी. सेंट मार्टिन के नियंत्रण में होने से, अमेरिका महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग, "मलक्का की खाड़ी" पर प्रभाव डाल सकेगा और युद्ध के समय में चीन और अन्य एशियाई देशों को काट सकेगा. शांतिपूर्ण समय में, यह चीन को म्यांमार सीमा के पास होने से परेशान कर सकता है. इस प्रकार, हसीना के खुलासे एशिया की वैश्विक राजनीति में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी को उजागर करते हैं, दूसरा खिलाड़ी भारत है.

भारत के कदम उठाने का समय

बांग्लादेश में फिलहाल भारत के खिलाफ माहौल है. वहां के कट्टरपंथी हिंदुओं की हत्या कर रहे हैं जबकि हसीना के राजनीतिक विरोधी खुलकर भारत की आलोचना कर रहे हैं. लेकिन क्या बांग्लादेश लंबे समय तक भारत को नाराज कर सकता है? जब तक भारत में एक दाएं पंथ की सरकार है, बांग्लादेश पाकिस्तानी तरीके से जीने लगेगा (यानी भिक्षाटन के रास्ते पर चलेगा), अगर वह जल्दी सही रास्ते पर नहीं आता, कैसे?

अमेरिका, जो बांग्लादेश से हजारों मील दूर है और सेंट मार्टिन पर केवल जमीन का नियंत्रण रखता है, बांग्लादेश को विकास, व्यापार और कारोबार की ज़रूरतें पूरी नहीं कर सकता. बांग्लादेश के विदेशी मुद्रा भंडार पर भारी दबाव है क्योंकि उसका चीन के साथ व्यापार घाटा बहुत बड़ा है, जिसका नकारात्मक प्रभाव आम बांग्लादेशियों की ज़िंदगी पर पड़ रहा है. 2023 में, बांग्लादेश का द्विपक्षीय व्यापार 168.4 बिलियन युआन (23.6 बिलियन डॉलर) तक पहुंच गया, जिसमें चीन से बांग्लादेश को निर्यात 161.1 बिलियन युआन था. सीधे शब्दों में कहें, जैसे चीन ने पाकिस्तान के साथ किया, वैसे ही चीन ने बांग्लादेश को भी 96 प्रतिशत निर्यात और केवल 4 प्रतिशत आयात के साथ निचोड़ लिया है.

बांग्लादेश अकेले चीन की उपनिवेशी रणनीतियों या उसकी आर्थिक ताकत का सामना नहीं कर सकता, बिना भारत की मदद के. इसके अलावा, अधिकांश बांग्लादेशी मुस्लिम हैं और उन्हें समझ में आएगा कि चीन के कम्युनिस्ट शासन द्वारा उइगर मुस्लिमों को कुचलने के तरीकों का क्या हाल है. केवल वही लोग, जो बांग्लादेश के नेताओं की तरह मूर्ख हैं, या फिर अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस जैसे लोग जो देश का नेतृत्व कर रहे हैं, ही नहीं देख पाएंगे कि कोरोना महामारी के बाद दुनिया ने चीन के विस्तारवादी दृष्टिकोण और व्यापार साझेदार के रूप में उपनिवेशी खेल को कैसे समझा.

भारत के कदम और बांग्लादेश की स्थिति

काफी समय पहले, दुनिया ने देखा था कि चीन ने तिब्बत को कैसे दमनकारी और खूनी तरीके से अपने नियंत्रण में लिया. दक्षिण एशिया में भारत के महत्व का हालिया उदाहरण प्रधानमंत्री मोदी की मालदीव नीति में स्पष्ट है. मालदीव के प्रधानमंत्री मोहम्मद मुइज्जू और अन्य अधिकारियों ने, जो भारत को छोटे समुद्री देश से निकालने की कोशिश कर रहे थे और चीन के प्रभाव में थे, अब भारत की दोस्ती के लिए मोहताज हो गए हैं. हाल ही में, मालदीव ने भारत को विभिन्न परियोजनाओं के लिए 28 द्वीप सौंपे हैं. अगर इन उदाहरणों को देखा जाए, तो बांग्लादेश का कोई भी नया शासन, चाहे वह कितना भी कट्टरपंथी क्यों न हो, मौजूदा परिस्थितियों में भारत को एक महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार के रूप में देखेगा.

भारत ने बांग्लादेशियों के समझने के लिए पहला बड़ा कदम उठाया है. भारत में 2018 के नियम के अनुसार, घरेलू पावर कंपनियों को पड़ोसी देशों को आवंटित पूरी बिजली की आपूर्ति करनी थी. 12 अगस्त को, सरकार ने इस नियम को संशोधित किया और पावर कंपनियों को पड़ोसी देशों के लिए आवंटित पूरी बिजली भारत में बेचने की अनुमति दे दी.

बांग्लादेश पहले से ही ऊर्जा संकट से जूझ रहा है, जिसमें बड़ी मात्रा में बिजली की कमी और पावर कट्स ने कई क्षेत्रों, जैसे कृषि और निर्माण को प्रभावित किया है. देश की रेडी-मेड गारमेंट (RMG) उद्योग ने पिछले साल में कम से कम 50 प्रतिशत उत्पादन में गिरावट देखी है, जो देश की कुल निर्यात आय का 80 प्रतिशत से अधिक है. बांग्लादेश व्यापार में गिरावट के साथ ईंधन आयात बिल चुकाने में संघर्ष कर रहा है, और इसके राष्ट्रीय ग्रिड, जिसकी 23,482 मेगावाट उत्पादन क्षमता है, केवल 14,000 मेगावाट तक ही आपूर्ति कर सकता है, जबकि दैनिक मांग 16,000 मेगावाट है. इस कमी के कारण पूरे देश में कई बार 2,500 मेगावाट की 'लोड शेडिंग' होती है. पावर कट्स बांग्लादेशियों को दिन में कई बार भारत की याद दिलाएंगे, क्योंकि बांग्लादेश-चीन पावर कंपनी द्वारा 2018 में स्थापित 1,320 मेगावाट प्लांट का पहला यूनिट 25 मई 2023 को बंद हो गया था.

बांग्लादेश की ऊर्जा और राजनीति की चुनौतियां

बांग्लादेश का एकमात्र संसाधन, प्राकृतिक गैस, केवल 2033 तक ही देश की ज़रूरतें पूरी कर पाएगा. इसके कारण, ढाका महंगे सौदों की बातचीत कर रहा है ताकि जापान, ओमान, और कतर से तरलीकृत प्राकृतिक गैस आयात कर सके, जैसे कि इसका पावर सिस्टम मास्टर प्लान 2016 का उद्देश्य है. बांग्लादेश ने भारत, चीन, और रूस के साथ गैर-नवीकरणीय ऊर्जा सौदे भी किए हैं. बांग्लादेश जल्द ही महसूस करेगा कि अमेरिका को अपनी ज़मीन पर आने देने की कीमत क्या होगी, जब चीन और रूस इसे नवीकरणीय ऊर्जा सौदों पर घेरेंगे. इससे बांग्लादेशी फैक्ट्री मालिकों को उत्पादन लागत बढ़ाने या गारमेंट व्यवसाय की आउटपुट घटाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जो मुख्य रूप से सस्ते श्रम पर निर्भर है. बिजली संकट के कारण RMG उत्पादन पहले ही प्रभावित हो चुका है और इसके वैश्विक साझेदार अब भारत या चीन से अधिक सस्ता सामान मांग रहे हैं.

जैसे-जैसे भू-राजनीति गर्म हो रही है, बांग्लादेश को भारत के खिलाफ अपने रुख की कीमत समझ में आएगी, क्योंकि मोदी सरकार बिजली के अलावा कई अन्य क्षेत्रों में कदम उठा रही है, क्योंकि बांग्लादेश मुख्य रूप से भारत पर कई मूलभूत ज़रूरतों के लिए निर्भर है. जैसे-जैसे भारत का रुख सख्त होता जाएगा, बांग्लादेश, पाकिस्तान की तरह, केवल भीख मांगने की स्थिति में रह जाएगा या पूरी तरह से अमेरिका पर दान और फंड के लिए निर्भर हो जाएगा - एक ऐसा बुरा चक्र जिसमें पाकिस्तान कभी नहीं निकला. भारत की दया के बिना, बांग्लादेश एक और दुखी देश बन जाएगा जहां विदेशी रिश्वत पर जी रहे अमीर सेना जनरल और राजनेता ही दिखेंगे.

भारत में खेल

मोदी सरकार पश्चिमी दबाव, जैसे कि रूस से कच्चे तेल की खरीद और अन्य हथियार सौदों पर, झुकती नहीं दिखती है, और साथ ही भारत चीन, अमेरिका (खासकर डेमोक्रेट्स के तहत) और अन्य पश्चिमी देशों के साथ अपनी खुद की दिशा तय कर रहा है, जिससे ये देश निराश महसूस कर रहे हैं.

अमेरिकी राजनयिकों को स्पष्ट है कि भारत की सॉफ्ट पावर रणनीतियाँ बांग्लादेश को बिना टैंक और सेना भेजे ही अपनी ओर मोड़ सकती हैं. इसलिए, बांग्लादेश में हिंदुओं की हत्या और बलात्कार की खबरों के बीच, जिसने भारत में गहरी भावनाएँ भड़काई थीं, अमेरिका ने अपने कांसुल जनरल जेनिफर लार्सन को हैदराबाद भेजा. लार्सन ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू से मुलाकात की. लार्सन की नायडू के साथ बैठक को सोशल मीडिया पर काफी ध्यान मिला, लेकिन इसका राजनीतिक महत्व भी है. यह एक खुला राज है कि नायडू जून में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे और उन्होंने मोदी सरकार को समर्थन दिया था, जो बहुमत से थोड़ी सी कमी पर गिर गई थी. अगर अमेरिका नायडू को समय पर अपनी ओर कर सकता है और वह अपने 16 सांसदों का समर्थन वापस ले लेता है, तो मोदी सरकार गिर सकती है (जैसे हसीना की सरकार बांग्लादेश में गिरी थी) - अमेरिका ने भू-राजनीति और शासन परिवर्तन के संकेत देने की कला में माहिर हो चुका है.

यह स्पष्ट नहीं है कि लार्सन से मुलाकात के पहले या बाद में नायडू ने मोदी सरकार के वक्फ बिल का विरोध करने का निर्णय लिया. लेकिन कुछ दिन पहले, नायडू ने हाल ही में संसद में पेश किए गए "यूनिफाइड वक्फ प्रबंधन, सशक्तिकरण, दक्षता और विकास अधिनियम" का विरोध किया. भाजपा-समर्थित बिल वक्फ बोर्ड द्वारा प्रबंधित संपत्तियों को नियंत्रित करने की कोशिश करता है, जो मुख्य रूप से इस्लामी संस्थानों द्वारा संचालित होती हैं और भारत में किसी भी भूमि पर अपना अधिकार स्थापित कर सकती हैं. वक्फ भारत के सरकारी कंपनियों और सशस्त्र बलों के बाद तीसरे सबसे बड़े भूमि मालिक हैं. नायडू के बिल के विरोध के बाद, भाजपा ने इसे संसद समिति को समीक्षा के लिए भेजा, जहां विपक्षी दलों की भी राय होती है, इससे मोदी सरकार को समय मिल जाएगा.

अमेरिका के कदम और रूस की राय

रूस के सरकारी मीडिया स्पूतनिक ने अमेरिका की रणनीति के बारे में एक दिलचस्प टिप्पणी की है. स्पूतनिक का कहना है कि रूसी खुफिया जानकारी के अनुसार, "अमेरिका आंध्र बैपटिस्ट चर्च का इस्तेमाल चंद्रबाबू नायडू पर दबाव डालने के लिए कर सकता है. आंध्र बैपटिस्ट चर्च, जो अमेरिकी बैपटिस्ट चर्च की देखरेख और वित्तीय समर्थन के तहत है, सीआईए का एक बड़ा औजार है जिसे नायडू के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है."

यह भी एक खुला राज है कि भारत में कई मुस्लिम कट्टरपंथी मौजूदा भाजपा सरकार को सत्ता से हटाना चाहते हैं. इस संदर्भ में, स्पूतनिक का कहना है, "एक अन्य खुफिया स्रोत ने लार्सन-ओवैसी की मुलाकात पर अलग नजरिया पेश किया: विदेशी गणमान्य व्यक्तियों का भारतीय विपक्षी नेताओं से मिलना एक स्थापित राजनीतिक परंपरा है. भारत में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम जनसंख्या है और ओवैसी उस समुदाय की आवाज हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि एक अमेरिकी राजनयिक उनसे मिलना चाहेगा." असदुद्दीन और उनके भाई अकबरुद्दीन ओवैसी के पास विरोध प्रदर्शन को सड़क पर लाने की कला है.

भारतीय थिंक टैंक उसनास फाउंडेशन के संस्थापक और निदेशक अभिनव पांडे ने स्पूतनिक से कहा कि अमेरिका द्वारा "अशांति फैलाने वाली ताकतों" के समर्थन के प्रति "वास्तविक आशंकाएं" हैं. पांडे का कहना है, "भाजपा-आरएसएस के दायरे में यह एक 'मजबूत धारणा' है कि अमेरिका ने लोकसभा चुनावों के दौरान गंभीर हस्तक्षेप किया, प्रधानमंत्री मोदी की परिपक्व विदेश नीति के कारण उनकी हार की कोशिश की."

अमेरिका ने हमेशा भारत के मामलों में हस्तक्षेप करने के किसी भी दावे को नकारा है और हसीना सरकार के गिरने के पीछे अमेरिका की भूमिका के सभी आरोपों को भी खारिज किया है. लेकिन लार्सन और डोनाल्ड लू जैसे पात्र अमेरिका द्वारा शासन परिवर्तन की थ्योरी को रंग देते हैं. इसके अलावा, बांग्लादेश में शासन परिवर्तन की थ्योरी और अफवाहें पिछले साल से शुरू हुईं, जब तब के अमेरिकी राजदूत पीटर हास ने बांग्लादेश के विपक्षी नेताओं से मुलाकात की थी. हास पर आरोप था कि वे चुनावों का बहिष्कार करने वाली विपक्षी पार्टियों का समर्थन कर रहे थे.

लार्सन और डोनाल्ड लू से डर क्यों?

जब लार्सन 2009-2010 के बीच काहिरा, मिस्र में अमेरिकी दूतावास में आर्थिक सलाहकार के रूप में कार्यरत थीं, तो मिस्र में श्रमिक हड़तालें, युवा विरोध और विभिन्न क्षेत्रों में असंतोष बढ़ने लगे, जिसने अंततः ARAB SPRING विद्रोह को जन्म दिया. लार्सन 2010 से 2012 तक बेनगाजी, लीबिया में अमेरिकी कांसुल जनरल रहीं और उनके कार्यकाल के दौरान स्थानीय नेताओं के साथ संबंध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, 2011 में लीबियाई क्रांति हुई. इसके अलावा, लार्सन ने नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में अमेरिकी दूतावास में कार्यकारी उप सहायक सचिव के रूप में भी काम किया. बांग्लादेश से पहले, श्रीलंका में एक विद्रोह हुआ और राष्ट्रपति गोतबया राजपक्षे को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा और देश छोड़ना पड़ा. उनके भाई महिंदा राजपक्षे को भी प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा.

अमेरिकी सीनेट की सुनवाई में, दक्षिण और मध्य एशिया मामलों के सहायक सचिव डोनाल्ड लू से पूछा गया कि क्या उन्होंने तब के पाकिस्तानी राजदूत को वॉशिंगटन में एक चेतावनी दी थी. लू ने कथित तौर पर सुझाव दिया कि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को पद से हटाना वॉशिंगटन और इस्लामाबाद के बीच संबंधों को सुधारने में मदद करेगा. यह विवाद पहली बार 27 मार्च 2022 को उभरा. इमरान खान ने एक सार्वजनिक रैली के दौरान एक पत्र लहराया, जिसमें दावा किया गया था कि यह एक विदेशी राष्ट्र से एक सायफर था. पत्र में उनके राजनीतिक विरोधियों के साथ एक साजिश का आरोप था, जो PTI सरकार को गिराने के लिए थी. उन्होंने आरोप लगाया कि अमेरिकी सांसद डोनाल्ड लू ने उनकी हटाने की मांग की थी, लू ने आरोपों को खारिज किया और उन्हें साजिश का सिद्धांत बताया.

इस साल मई में, स्पूतनिक ने रिपोर्ट किया कि डोनाल्ड लू ने भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश (हसीना की सत्ता में वापसी के बाद बांग्लादेश की दूसरी यात्रा) की यात्रा की. डोनाल्ड लू की यात्राओं के एक महीने से भी कम समय में, कट्टरपंथी तत्व जो छात्र प्रदर्शनकारियों के रूप में छिपे हुए थे, ने हसीना सरकार के खिलाफ अपने आक्रमणों को तेज कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उनकी सरकार गिर गई.

डोनाल्ड लू को लेकर भारतीय मीडिया की राय

भारतीय दक्षिणपंथी मीडिया ने डोनाल्ड लू को अमेरिकी 'चाइनीज वुल्फ वॉरियर' के समान करार दिया है, जो अक्सर भारत में मानवाधिकार मुद्दों और मोदी सरकार के तहत मुसलमानों के हाशिए पर होने की चिंता व्यक्त करते रहे हैं. भारत के राष्ट्रीय चुनावों के समय, रिपोर्ट्स के अनुसार, डोनाल्ड लू चेन्नई पहुंचे, जो तमिलनाडु की राजधानी है और जहां भाजपा कमजोर मानी जाती है. तमिलनाडु की DMK पार्टी अक्सर एक अलग देश 'द्रविड़ा नाडू' की मांग करती रही है. इस संदर्भ में, जब अमेरिका ने विवादास्पद प्रेस रिलीज जारी किया जिसमें कहा गया कि डोनाल्ड लू ने दक्षिण भारत के साथ द्विपक्षीय संबंध मजबूत करने के लिए चेन्नई की यात्रा की, तो इस पर सवाल उठे.

रिपोर्ट्स के अनुसार, यह आरोप है कि डोनाल्ड लू ने पिछले साल राहुल गांधी की मेज़बानी की थी जब वह अमेरिका गए थे. जब लू मार्च 2023 में अमेरिकी 'सेनेट फॉरेन अफेयर्स कमिटी' के सामने पेश हुए, तो उन्होंने भारत में विशेष रूप से कश्मीर में मानवाधिकार मुद्दों पर चिंता व्यक्त की.

सुब्रमण्यम स्वामी की नई राजनीतिक चाल और अमेरिकी चुनाव

भारत में कोई भी राजनीति के शौकीन व्यक्ति शायद नहीं भूलेगा कि कैसे सुब्रमण्यम स्वामी ने 2004 में सोनिया गांधी की भारत की प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं को खत्म कर दिया था. सोनिया गांधी जब राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के निवास पर प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन पत्र लेकर पहुंचने वाली थीं, स्वामी ने राष्ट्रपति भवन में 'बुरी' सबूत के साथ पहुंचकर यह साबित किया कि गांधी अब भी एक विदेशी नागरिक थीं और प्रधानमंत्री पद का दावा नहीं कर सकती थीं. इसके बाद स्वामी ने कहा कि कलाम ने गांधी को निमंत्रण रद्द कर दिया क्योंकि कानूनी राय उनके खिलाफ गई थी, और इस तरह से 'रबर स्टांप' पीएम मनमोहन सिंह आए.

हाल ही में, स्वामी ने दिल्ली उच्च न्यायालय में राहुल गांधी की विदेशी नागरिकता के मुद्दे पर याचिका दायर की है. स्वामी के अनुसार, राहुल गांधी के पास एक ब्रिटिश पासपोर्ट है. अगर यह सही है, तो गांधी को न केवल संसद में विपक्ष के नेता के पद से हटा दिया जाएगा, बल्कि कांग्रेस पार्टी में भी उनका पद छिन सकता है. स्वामी ने दावा किया कि पूर्व भाजपा गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी राहुल गांधी को उनकी विदेशी नागरिकता के बारे में नोटिस जारी किया था, लेकिन मामला बिना किसी निष्कर्ष के खत्म हो गया था. स्वामी के हमले के अलावा, बांग्लादेशी पत्रकार सलाहुद्दीन शोएब चौधरी (वीकली ब्लिट्ज) द्वारा राहुल गांधी के विदेशी मामलों की जानकारी भी स्थिति को और अधिक गरम कर रही है - अब तक, गांधी ने इनमें से किसी का भी जवाब नहीं दिया है.

राजनीतिक के इस शतरंज के खेल में, पीएम मोदी जो वर्तमान में एक गठबंधन सरकार चला रहे हैं, धीरे-धीरे अपने कदम उठा रहे हैं. लेकिन खेल नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के बाद और भी तेज हो सकता है. अगर डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में रिपब्लिकन सत्ता में लौटते हैं, जैसा कि उम्मीद की जा रही है, तो भारत-अमेरिका संबंध बदल सकते हैं. रिपब्लिकन और भाजपा एक-दूसरे पर ज्यादा भरोसा करते हैं, जबकि डेमोक्रेट्स वर्तमान में विपक्षी पार्टियों में एक अनुकूल साझेदार देख सकते हैं. ट्रंप की वापसी के बाद अमेरिका चीन के साथ टैरिफ युद्ध में अधिक व्यस्त रहेगा - ट्रंप ने पहले ही 60 प्रतिशत टैरिफ का संकेत दिया है.

(लेखक- पलक शाह, BW रिपोर्टर. पलक शाह ने "द मार्केट माफिया-क्रॉनिकल ऑफ इंडिया हाई-टेक स्टॉक मार्केट स्कैंडल एंड द कबाल दैट वेंट स्कॉट-फ्री" नामक पुस्तक लिखी है. पलक लगभग दो दशकों से मुंबई में पत्रकारिता कर रहे हैं, उन्होंने द इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड, द फाइनेंशियल एक्सप्रेस और द हिंदू बिजनेस लाइन जैसी प्रमुख वित्तीय अखबारों के लिए काम किया है).


भारत की आर्थिक सेहत के लिए ठीक नहीं है Iran-Israel संघर्ष, ऐसे प्रभावित होंगे हमारे हित!

ईरान ने इजरायल के खिलाफ एक खतरनाक योजना तैयार की है, जिसके बाद युद्ध की आशंका और भी ज्यादा बढ़ गई है.

बिजनेस वर्ल्ड ब्यूरो by
Published - Saturday, 03 August, 2024
Last Modified:
Saturday, 03 August, 2024
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ईरान और इजरायल के बीच तनाव (Iran-Israel Tension) चरम पर पहुंच गया है. हमास सुप्रीमो इस्‍माइल हानिया की हत्या का बदला लेने के लिए ईरान इजरायल पर बड़ा हमला करने की तैयारी कर रहा है. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें, तो ईरान ने लेबनान के चरमपंथी संगठन ह‍िज्‍बुल्‍ला और हूती विद्रोहियों के साथ मिलकर इजरायल पर मिसाइल, रॉकेट और विस्‍फोटक ड्रोन से हमला बोलने की योजना बनाई है. हूती विद्रोही इजरायल द्वारा फिलिस्तीन पर किए जा रहे हमलों से नाराज हैं और यह नाराज़गी वह लाल सागर (Red Sea) से गुजरने वाले कमर्शियल जहाजों को निशाना बनाकर पहले भी व्यक्त कर चुके हैं. यदि ईरान अपनी योजना में सफल होता है, तो हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे. 

जारी की है एडवाइजरी
पश्चिम एशिया के इस घटनाक्रम पर भारत करीबी से नजर बनाए हुए है. सरकार ने  इजरायल और लेबनान में रह रहे भारतीयों के लिए एडवाइजरी जारी की है. एक अनुमान के मुताबिक, ईरान, इजरायल और लेबनान में कुल मिलाकर 40 हजार भारतीय रह रहे हैं. भारत की एक टेंशन यह भी है कि अगर हालात जल्द सामान्य होने बजाए बिगड़ जाते हैं, तो उसका व्यापार भी बड़े पैमाने पर प्रभावित होगा. भारत के इन तीनों ही देशों से व्यापारिक रिश्ते हैं.  

इतना रहा है व्यापार
ईरान के साथ हमारे व्यापार में भले ही पहले के मुकाबले कुछ कमी आई है, लेकिन व्यापारिक रिश्ते कायम हैं और उनके प्रभावित होने से हमें आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा. वित्त वर्ष 2019-20 में भारत और ईरान के बीच कुल व्यापार 4.77 बिलियन डॉलर (करीब 40 हजार करोड़ रुपए) का था, जो कि अप्रैल से जुलाई 2023 के बीच 0.66 बिलियन डॉलर (5500 करोड़ रुपए) रह गया. भारत की तरफ ईरान को कई सामान निर्यात किए जाते हैं. इसमें प्रमुख रूप से बासमती चावल, चाय, चीनी, ताजे फल, दवाएं/फार्मास्यूटिकल्स, सॉफ्ट ड्रिंक -शरबत और दालें आदि शामिल हैं. 

ईरान से भारत का इम्पोर्ट
इसी तरह, ईरान से भारत मेथनॉल, पेट्रोलियम बिटुमेन, सेब, लिक्विफाइड प्रोपेन, सूखे खजूर, अकार्बनिक/कार्बनिक कैमिकल, बादाम आदि आयात करता है. युद्ध की स्थिति में आयात-निर्यात के प्रभावित होने से इंकार नहीं किया जा सकता. वहीं, भारत के इजरायल से भी व्यापारिक संबंध हैं. एशिया में इजरायल के लिए भारत तीसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है. भारत के कुल व्यापारिक निर्यात में इजरायल की हिस्सेदारी 1.8% है. इजरायल भारत से लगभग 5.5 से 6 बिलियन डॉलर के परिष्कृत पेट्रोलियम उत्पाद (Refined Petroleum Products) खरीदता है. वित्तवर्ष 23 में, इजराइल को भारत का कुल निर्यात 8.4 बिलियन डॉलर था. जबकि आयात 2.3 बिलियन डॉलर रहा. इस तरह, दोनों देशों के बीच करीब 10 बिलियन डॉलर का कारोबार हुआ है.  

इजरायल से इनका आयात 
इजरायल भारत से परिष्कृत पेट्रोलियम उत्पादों के साथ-साथ ज्लैवरी, कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स और इंजीनियरिंग से जुड़े प्रोडक्ट्स मंगाता है. जबकि भारत मोती, हीरे, डिफेंस मशीनरी, पेट्रोलियम ऑयल्स, फर्टिलाइजर्स और इलेक्ट्रॉनिक्स कंपोनेंट आदि आयात करता है. एक रिपोर्ट बताती है कि अप्रैल 2000 से मार्च 2023 के दौरान, भारत में इजरायल का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी FDI 284.96 मिलियन अमेरिकी डॉलर था. कई भारतीय कंपनियों ने भी इजरायल में बड़ा निवेश किया हुआ है. यदि  हालात बिगड़ते हैं और युद्ध होता है, तो यह तस्वीर काफी हद तक बदल सकती है.

लेबनान से हमारा कारोबार
लेबनान और इजरायल के बीच संघर्ष में तेजी आ सकती है. यदि ईरान की योजना अनुसार ह‍िज्‍बुल्‍ला ने ईरान और हूती विद्रोहियों के साथ मिलकर इजरायल पर धावा बोला तो इजरायली हमले भी तेज हो जाएंगे. ऐसे में भारत के लेबनान से व्यापारिक रिश्तों पर भी असर पड़ेगा. एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022 में भारत ने लेबनान को कुल 308 मिलियन डॉलर का सामान निर्यात किया था. लेबनान भारत से काफी कुछ आयात करता है, इसमें इलेक्ट्रिक बैटरी, रिफाइंड पेट्रोलियम, मांस, मोती और प्लास्टिक आदि का योगदान सबसे ज्यादा है. संघर्ष बढ़ने की स्थिति में इम्पोर्ट और एक्सपोर्ट दोनों प्रभावित होगा. इसलिए दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत भी यही चाहता है कि पश्चिम एशिया में युद्ध का खतरा टल जाए .
 


मौसम के इस मिजाज से आपके लिए आने वाली है मुश्किलों की सुनामी, समझिए पूरा गणित

देश के कई इलाके इस समय पर्याप्त बारिश की कमी का सामना कर रहे है, तो कहीं पर बारिश प्रलय बनकर सामने आई है.

नीरज नैयर by
Published - Friday, 02 August, 2024
Last Modified:
Friday, 02 August, 2024
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मौसम का मिजाज पहेली बनता जा रहा है. एक तरफ जहां आधा मानसून बीतने के बाद भी कई इलाके कम बारिश का सामना कर रहे हैं. वहीं, कुछ जगहों पर 'रहमत' वाली बारिश कहर बनकर टूटी है. खासकर, केरल और हिमाचल में बारिश ने कोहराम मचा दिया है. मौसम के इस दोहरे रूप का खामियाजा आने वाले दिनों में पूरे देशों को अपनी जेब ज्यादा ढीली करके उठाना पड़ सकता है. सीधे शब्दों में कहें तो इस असंतुलित बारिश के चलते महंगाई का चक्का तेजी से घूमने की आशंका उत्पन्न हो गई है. 

अनुमान के उलट नजारा  
मानसून के आने से पहले मौसम विभाग ने 25 राज्यों में सामान्य से ज्यादा बारिश का अनुमान जताया था. इसमें केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना, महाराष्ट्र , गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, चंडीगढ़, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, सिक्किम, मेघालय, बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, पुड्डुचेरी, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, लक्षदीप, दमन-दीव, दादरा और नगर हवेली शामिल थे. जबकि छत्तीसगढ़, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सामान्य बारिश की बात कही थी. जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल के गंगा के मैदानी इलाकों और पूर्वोत्तर के कुछ हिस्सों में बारिश 25 प्रतिशत से कम हुई है. इसी तरह, हरियाणा, पंजाब और जम्मू-कश्मीर भी कम बारिश का सामना कर रहे हैं. यहां कमी का प्रतिशत 35 से 45 तक है.

संतुलित बारिश ज़रूरी
देश में सालभर होने वाली कुल बारिश का 70% पानी मानसून में ही बरसता है. हमारे देश में में 70 से 80 प्रतिशत किसान फसलों की सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर हैं. इसलिए हर साल संतुलित मानसून की उम्मीद लगाई जाती है.भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 20 प्रतिशत है. ऐसे में मानसून का अच्छा रहना अर्थव्यवस्था के लिए भी बेहद जरूरी है. लेकिन अब तक कई राज्यों में बादल झूमकर नहीं बरसे हैं. इसमें वो राज्य भी शामिल हैं, जहां के कृषि उत्पाद पूरे देश का पेट भरते हैं. उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश अपने हिस्से की बारिश से अब तक वंचित है. पूर्वी यूपी में काफी कम बारिश हुई है, जो फसलों के लिए नुकसानदायक है. खासतौर पर धान की खेती के लिए पर्याप्त पानी की ज़रूरत होती है. 

अच्छी बारिश का इंतजार
पंजाब भी कम बारिश का सामना कर रहा है. देश में उत्पादित अनाज में लगभग 12% हिस्सेदारी पंजाब की होती है. यहां गेहूं के साथ-साथ धान, कपास, गन्ना, बाजरा, मक्का, जौ आदि की भी खेती होती है. पंजाब अपने फल-सब्जियों की पैदावार के लिए भी प्रसिद्ध है. जाहिर है ऐसे में पर्याप्त बारिश के अभाव में फसलें प्रभावित होने का खतरा बना रहेगा. इसी तरह, बिहार सब्जियों का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है. यहां आलू , प्याज , बैंगन और फूलगोभी की अच्छी पैदावार होती है. झारखंड में भी चावल की खूब खेती होती है. इन सब पर कम बारिश ने संकट खड़ा कर दिया है. 

ज्यादा बारिश से बुरे हाल
दूसरी तरफ, केरल और हिमाचल के लिए बारिश आफत बन गई है. केरल के वायनाड में बारिश ने तबाही मचाई है. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, मंडी और शिमला में तीन जगहों पर बादल फटने से हालात खराब हो गए हैं. केरल में कई तरह की फसलों की खेती होती है, लेकिन राज्य के लिए सबसे आवश्यक फसल धान है. केरल के विशाल क्षेत्र में धान की 600 किस्में उगाई जाती हैं. बेशक धान यानी चावल के लिए पानी ज्यादा चाहिए, लेकिन उतना भी नहीं जितना केरल में बरस रहा है. जिस वायनाड में कहर मचा है, वहां भी चावल के साथ-साथ  कॉफ़ी, चाय, कोको, काली मिर्च, केला, वेनिला, नारियल, इलायची, चाय और अदरक का काफी उत्पादन होता है. ऐसे में आने वाले समय में इनकी कीमतों में ज़बरदस्त इजाफा संभव है.

और लाल होगा टमाटर
हिमाचल की फल और सब्जियां देश के अधिकांश इलाकों तक पहुंचती हैं. खासतौर पर यहां के टमाटर की 'लाली' सबको आकर्षित करती है, लेकिन भारी बारिश ने टमाटर की फसलों को नुकसान पहुंचाया है. इसके अलावा,  हिमाचल के कई हिस्सों में सड़कें भी बह गई हैं, जिसने आपूर्ति श्रृंखला को बाधित किया है. ऐसे में आने वाले दिनों में टमाटर के दाम रॉकेट की तरह भाग सकते हैं. इस समय दिल्ली-NCR में टमाटर की कीमत 60-70 रुपए प्रति किलो है. मगर हिमाचल में बारिश से हुए नुकसान के चलते यह 100 रुपए के आंकड़े को अगले कुछ दिनों में ही पार कर सकती है. गौरतलब है कि पिछले साल भी भारी बारिश के चलते टमाटर की कीमतें असमान पर पहुंच गई थीं. 

पहले गर्मी ने मारा, अब बारिश
इससे पहले, भीषण गर्मी के चलते महंगाई का चक्का काफी तेजी से घूम चुका है. फल-सब्जियों से लेकर अनाज तक के दामों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है. ऐसे में अब असंतुलित बारिश की वजह से हालात और खराब हो सकते हैं. कुल मिलाकर आने वाला समय आम आदमी के लिए मुश्किलों की सुनामी लेकर आएगा. खाने-पीने पर उसके खर्चों में पहले से ज्यादा इजाफा हो सकता है.


विकास दिव्यकीर्ति और अवध ओझा से नाराज हैं स्टूडेंट्स , इतने बारे में कितना जानते हैं आप?

दिल्ली के कोचिंग हादसे को लेकर स्टूडेंट्स का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा है. छात्र UPSC की तैयारी करवाने वाले विकास दिव्यकीर्ति और अवध ओझा से भी नाराज हैं.

Last Modified:
Tuesday, 30 July, 2024
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दिल्ली में हुए कोचिंग सेंटर हादसे के बाद नगर निगम की नींद खुल गई है. दिल्ली नगर निगम (MCD) ने नियमों का उल्लंघन करने वाले कोचिंग सेंटरों के खिलाफ अभियान चलाते हुए कई सेंटरों को सील कर दिया है. जिन कोचिंग सेंटर्स क खिलाफ कार्रवाई हुई है उसमें विकास दिव्यकीर्ति की दृष्टि आईएएस का नाम भी शामिल है.  मुखर्जी नगर स्थित दृष्टि IAS कोचिंग के बाहर नाराज छात्रों ने प्रदर्शन भी किया है. बता दें कि ओल्ड राजेंद्र नगर स्थित राव IAS स्टडी सर्किल के बेसमेंट में पानी भरने से तीन स्टूडेंट्स की मौत होने के बाद से हड़कंप मचा हुआ है. छात्र लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं. उनमें इस गंभीर मुद्दे पर विकास दिव्यकीर्ति और अवध ओझा जैसे नामी शिक्षकों की खामोशी पर भी गुस्सा है. 

क्यों खामोश हैं दोनों?
सोशल मीडिया पर भी विकास दिव्यकीर्ति और अवध ओझा को निशाना बनाया जा रहा है. उनका कहना है कि पढ़ाते-पढ़ाते खुद ही इथिक्स भूल गए हैं. स्‍टूडेंट्स सवाल पूछ रहे हैं कि बड़ी-बड़ी बातें करने वाले ये दोनों शिक्षक अब कहां हैं? क्यों दोनों इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोल रहे? नाराज छात्रों का कहना है कि सोशल मीडिया पर हमेशा एक्टिव रहने वाले  विकास दिव्यकीर्ति और अवध ओझा स्टूडेंट्स के लिए एक पोस्ट तक नहीं कर पाए हैं. लोगों में इस बात को लेकर भी नाराज़गी है कि मोटीवेशनल बातें करने वाले विकास दिव्‍यकीर्ति भी नियमों के विरुद्ध कोचिंग सेंटर चला रहे हैं.

UPSC किया था क्रैक
चलिए विकास दिव्यकीर्ति और अवध ओझा के बारे मन विस्तार से जानते हैं. डॉ. विकास दिव्यकीर्ति की गिनती देश के सबसे सम्मानित शिक्षकों में होती है. दिव्यकीर्ति के पिता प्रसिद्ध हिंदी साहित्य प्रोफेसर थे और मां भिवानी में एक पीजीटी शिक्षक थीं. विकास दिव्यकीर्ति के दो बड़े भाई हैं. एक अमेरिका में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है और दूसरा सीबीआई में कार्यरत. उन्होंने साल 1996 में यूपीएससी  में AIR 384 रैंक हासिल की थी. इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक गृह मंत्रालय में काम लिया. लेकिन शिक्षण के पति अपने प्रेम के चलते नौकरी छोड़ दी. 1999 में विकास दिव्यकीर्ति ने दिल्ली के मुखर्जी नगर में दृष्टि आईएएस कोचिंग सेंटर की स्थापना की. 

इतने अमीर हैं विकास
सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले अधिकांश स्टूडेंट्स की यही चाहत होती है कि उन्हें विकास दिव्यकीर्ति ट्यूशन दें. इसी वजह से  दृष्टि आईएएस के सभी बैच फुल रहते हैं. दिव्यकीर्ति सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहते हैं. उनका अपना यूट्यूब चैनल है, जहां वे  मोटीवेशनल वीडियो पोस्ट करते रहते हैं. वह कोचिंग सेंटर के साथ-साथ यूट्यूब से भी मोटी कमाई करते हैं. रिपोर्ट्स की मानें तो डॉक्टर विकास दिव्यकीर्ति 25 करोड रुपए की संपत्ति के मालिक हैं. उनकी सालाना इनकम 2 करोड रुपए से भी ज्यादा है और महीने वह लगभग 20 लाख रुपए कमा लेते हैं.

मेंस में रहे गए थे ओझा
इस फील्ड में अवध ओझा भी बड़ा नाम हैं. ओझा सालों से यूपीएससी की कोचिंग देते आ रहे हैं. वह पढ़ाने के अपने अनूठे अंदाज के लिए पहचाने जाते हैं. अवध ओझा भी सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहते हैं और Youtube पर उनके सैकड़ों फॉलोअर्स हैं.  उनके यूट्यूब चैनल का नाम RAY Avadh Ojha है. उन्होंने UPSC का मेंस क्लियर नहीं करने के बाद पढ़ाना शुरू किया था. शुरुआत में उन्हें स्टूडेंट्स को खुद से जोड़े रखने में परेशानी हुई, लेकिन अब छात्र खुद ब खुद उनकी तरफ दौड़े चले आते हैं. अवध ओझा ने 2020 में अपना यूट्यूब चैनल शुरू किया, जो आज काफी लोकप्रिय है. इसके साथ ही उन्‍होंने एक ऑफिशियल ऐप भी लांच किया, जिसका नाम Avadh Ojha है. वह IQRA IAS के संस्थापक भी हैं. 

चुनाव लड़ने की थी चर्चा 
अवध ओझा के लोकसभा चुनाव लड़ने की भी चर्चा थी. माना जा रहा था कि वह भाजपा की टिकट पर अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत कर सकते हैं. मार्च में उनके उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा से मुलाकात के बाद इस चर्चा ने जोर पकड़ लिया था. हालांकि, यह चर्चा केवल चर्चा तक ही सीमित होकर रह गई. ओझा के पास भी करोड़ों की संपत्ति है. सोशल मीडिया से भी उन्हें अच्छी-खासी कमाई हो जाती है. 


कौन हैं मनोज सोनी और उनके इस्तीफे को लेकर क्यों हो रही है इतनी चर्चा?

मनोज सोनी ने बचपन में तमाम परेशानियां झेलीं, लेकिन हिम्मत नहीं हारी, वह पढ़ते गए और सफलता की सीढ़ी चढ़ते गए.

Last Modified:
Saturday, 20 July, 2024
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ट्रेनी IAS अधिकारी पूजा खेडकर विवाद के बीच संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के अध्यक्ष मनोज सोनी (UPSC Chairman Manoj Soni) ने इस्तीफा दे दिया है. हालांकि, सोनी का कहना है कि उन्होंने निजी कारणों से इस्तीफा दिया है. उन्होंने करीब 14 दिन पहले ही अपना इस्तीफा कार्मिक विभाग (DOPT) को भेज दिया था. सोनी अब सामाजिक और धार्मिक कामों पर ध्यान देंगे. बताया जा रहा है कि अभी सोनी का इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ है. उनका कार्यकाल मई 2029 तक है. मनोज सोनी ने 16 मई 2023 को UPSC का अध्यक्ष पद ग्रहण किया था. बता दें कि पूजा खेडकर विवाद को लेकर UPSC पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं.

2 विवादों से उठे सवाल 
मनोज सोनी के कार्यकाल में पूजा खेडकर और IAS अभिषेक सिंह को लेकर UPSC विवाद में रहा है. इन दोनों पर OBC और विकलांग कैटेगरी का गलत फायदा उठाकर सिलेक्शन लेने का आरोप है. अभिषेक सिंह ने संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा विकलांग कैटेगरी से पास की थी. उन्होंने खुद को लोकोमोटिव डिसऑर्डर से पीड़ित बताया था. हालांकि, उनके डांस और जिम में वर्कआउट के वीडियो सामने आने के बाद सिंह के दावे पर गंभीर सवाल खड़े हो गए. अभिषेक ने अपने एक्टिंग करियर के लिए IAS पद से इस्तीफा दे दिया था. वहीं, पूजा खेडकर कई गंभीर आरोपों का सामना कर रही हैं. UPSC ने अपनी जांच के बाद उनके खिलाफ FIR भी दर्ज कराई है. 

संघर्ष भरा है बचपन
मनोज सोनी ने भले ही इस्तीफे के पीछे निजी कारणों का हवाला दिया है, लेकिन माना जा रहा है कि खेडकर विवाद के चलते UPSC की चयन प्रक्रिया पर उठे सवालों के चलते उन्होंने अपना पद छोड़ा है. सोनी का बचपन बेहद संघर्ष में बीता था. एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 17 फरवरी 1965 को जन्मे मनोज सोनी जब पांचवीं क्लास में थे तभी उनके पिता की मौत हो गई थी. उनके पिता मुंबई की गलियों में घूम-घूमकर कपड़े बेचा करते थे. पिता के निधन के बाद मनोज ने परिवार का खर्चा चलाने और अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए घर-घर जाकर अगरबत्तियां बेचीं. लेकिन, तमाम कठनाइयों के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. मनोज सोनी पॉलिटिकल साइंस के स्कॉलर हैं और इंटरनेशनल रिलेशंस में उन्होंने विशेषज्ञता हासिल की है. 1991 से 2016 तक मनोज सोनी ने सरदार पटेल यूनिवर्सिटी में पढ़ाया. उनके नाम सबसे कम उम्र में वाइस चांसलर (VC) बनने का भी रिकॉर्ड है. मात्र 40 साल की उम्र में वह बड़ौदा की महाराज सयाजीराव यूनिवर्सिटी के VC चुने गए थे. 1978 में मनोज अपनी मां के साथ मुंबई से गुजरात के आणंद चली गए थे. 

क्या है UPSC की जिम्मेदारी?
UPSC की बात करें, तो भारत के संविधान के तहत यह एक संवैधानिक निकाय है. UPSC केंद्र सरकार की ओर से कई परीक्षाएं आयोजित करता है. इसके द्वारा हर साल सिविल सेवा परीक्षाएं (IAS), भारतीय विदेश सेवा (IFS), भारतीय पुलिस सेवा (IPS) और केंद्रीय सेवाओं- जैसे कि ग्रुप A और ग्रुप B में नियुक्ति के लिए एग्जाम आयोजित करवाए जाते हैं. गौरतलब है कि आयोग में अध्यक्ष के अलावा 10 सदस्य गवर्निंग बॉडी में होते हैं. पहले पूजा खेडकर और फिर अभिषेक सिंह विवाद को लेकर UPSC सवालों के घेरे में है. उनकी चयन प्रक्रिया और पारदर्शिता को लगातार कठघरे में खड़ा किया जा रहा है. 
 


कारोबार बन चुके पेपर लीक पर लगाम मुश्किल, लगातार असफल NTA को अभयदान क्यों?

नीट पेपर लीक के बाद सरकार और उसकी नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (NTA) की भूमिका सवालों के घेरे में है.

Last Modified:
Saturday, 22 June, 2024
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नीट पेपर लीक (NEET Paper Leak) ने कई गंभीर सवालों को जन्म दिया है, जिसमें सबसे प्रमुख तो यही है कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? क्या पेपर हासिल करने वाला अनुराग यादव या पेपर की व्यवस्था करवाने वाला उसका फूफा सिंकदर यादवेंदु ही असली गुनाहगार हैं? पुलिस मामले जांच कर रही है और संभव है आने वाले दिनों में वो किसी नतीजे पर भी पहुंच जाए, लेकिन क्या इस अवैध सिस्टम की पूरी चेन को तोड़ने में वह सक्षम होगी? क्या इसके बाद कोई पेपर लीक नहीं होगा? यह पहली बार नहीं है जब कोई पेपर लीक हुआ है और संभवतः आखिरी भी नहीं होगा. क्योंकि पेपर लीक अब एक कारोबार का रूप अख्तियार कर चुका है. एक-एक पेपर लाखों में बिकता है. जितना बड़ा पेपर, उतनी बड़ी रकम. नीट का पेपर 30 से 32 लाख में बिका था. 

5 साल में 41 लीक 
पेपर लीक को अंजाम देने के लिए बाकायदा एक सिस्टम काम करता है, जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक कई मोहरे होते हैं. सिंकदर यादवेंदु तो महज एक मोहरा है, जिसने अपने भतीजे के लिए नीट पेपर की सेटिंग कराई. असल गुनाहगार तो वह हैं, जिन्होंने आंखें मूंदकर पेपर लीक होने दिया. जब तक ऐसे लोगों के चेहरे सामने नहीं आते, कुछ बदलने वाला नहीं है. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार, झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, असम, अरुणाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर में पिछले 5 साल में 41 भर्ती परीक्षाओं के पेपर लीक हुए हैं. हर बार कुछ देर के लिए शोर मचता है और फिर खामोशी छा जाती है. 

बहुत गहरी हैं जड़ें
केवल प्रतियोगी परीक्षाएं ही नहीं, निचले स्तर पर भी पेपर लीक महामारी बना हुआ है. चूंकि नीट बड़ी परीक्षा है, इसलिए मामला भी इतना बड़ा हो गया है. इस साल के शुरुआती महीने में यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा में बड़ी गड़बड़ी सामने आई थी. इसके बाद लगातार परीक्षाओं में गड़बड़ी के मामले सामने आ रहे हैं. नीट मामले की जांच में यह भी सामने आया है कि यादवेंदु यादव एक रैकेट के संपर्क में था, जिसने ना केवल NEET बल्कि बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) और संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) परीक्षाओं के प्रश्न पत्र भी लीक किए थे. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पेपर लीक के कारोबार की जड़ें कितनी गहरी हैं.

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सवालों में NTA
नीट मामले में सरकार और उसकी एजेंसी NTA सवालों के घेरे में हैं. नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (NTA) का गठन इसलिए किया गया था, ताकि प्रवेश परीक्षाओं को पूरी पारदर्शिता के साथ कराया जा सके, NTA इस काम में लगातार विफल रही है. बीते 9 दिन में NTA की तीन बड़ी परीक्षाएं रद्द या स्थगित हो चुकी हैं. नेशनल कॉमन एंट्रेंस टेस्ट की परीक्षा 12 जून को दोपहर में हुई थी. शाम को इसे रद्द कर दी. इसी तरह, UGC-NET की 18 जून को परीक्षा ली गई थी और 19 जून को रद्द कर दी गई. सीएसआईआर-यूजीसी-नेट का एग्जाम 25 जून से होना था, लेकिन इसे टाल दिया गया है. यह दर्शाता है कि NTA अपने काम को लेकर कितना सजग और सतर्क है.

कब बनी NTA? 
NTA नवंबर 2017 में अस्तित्व में आया था. दरअसल, मानव संसाधन विकास मंत्रालय उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए एकल, स्वायत्त और स्वतंत्र एजेंसी चाहता था, ताकि प्रवेश परीक्षाओं को दोषमुक्त बनाया जा सके. इसी के तहत नेशनल टेस्टिंग एजेंसी को अमल में लाया गया. हालांकि, शुरुआत से ही यह संस्था सवालों में रही. वर्ष 2019 में JEE मेंन्स के दौरान छात्रों को परेशान होना पड़ा. वजह थी सर्वर में खराबी. कुछ जगहों पर प्रश्न पत्र देरी से मिलने की भी शिकायतें की गईं. इसी तरह, NEET अंडरग्रेजुएट मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम 2020 को लेकर भी NTA पर सवाल उठे. अनियमितताओं की शिकायतें सामने आने के बाद एग्जाम को कई बार स्थगित करना पड़ा. इस साल नीट का पेपर लीक हो गया. जबकि UGC-NET की परीक्षा भी रद्द की जा चुकी है. 

Edutest पर विश्वास? 
NTA की स्थापना से अब तक केवल 2 बार यानी 2018 और 2023 में पेपरलीक और गड़बड़ी जैसी शिकायतें नहीं मिलीं. वरना हर साल कुछ न कुछ सामने आता रहा. इसके बावजूद भी सरकार का NTA को लेकर कोई सख्त कदम न उठाना उसकी भूमिका को भी कठघरे में खड़ा करता है. यहां एक गौर करने वाली बात यह भी है कि NTA के अस्तित्व में होने के बावजूद एजूटेस्ट (Edutest) जैसी प्राइवेट कंपनी को परीक्षा आयोजित करवाने की जिम्मेदारी क्यों दी जाती रही है. यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा इसी कंपनी ने आयोजित करवाई थी. क्या इसका ये मतलब निकाला जाए कि यूपी सरकार को केंद्र की इस एजेंसी का भरोसा नहीं है या फिर उसे एजूटेस्ट इस काम के लिए ज्यादा काबिल लगी?

कई एग्जाम करवाए
पुलिस भर्ती परीक्षा का पेपर लीक हो गया था, जिसमें Edutest की भूमिका सवालों के घेरे में थी. यूपी एसटीएफ की कई महीनों की जांच के बाद योगी सरकार ने अहमदाबाद की एजूटेस्ट (EDUTEST) को ब्‍लैक लिस्‍ट कर दिया. यानी एजूटेस्ट को अब प्रदेश में दोबारा किसी भी विभाग की भर्ती परीक्षा कराने का जिम्‍मा नहीं दिया जाएगा. एसटीएफ ने एजूटेस्ट कंपनी के संचालक विनीत आर्या को चार बार नोटिस भेजकर बयान देने के लिए बुलाया, लेकिन वह एक बार भी नहीं आया. बताया जा रहा है कि वो अमेरिका चला गया है. एजुटेस्ट की स्थापना 1982 में की गई थी. कंपनी UPSSSC PET और CAT जैसे कई एग्जाम करा चुकी है. एजुटेस्‍ट सॉल्‍यूशंस ने UPSSSC PET 2022 के लिए पेपर तैयार किया था. कंपनी का दावा है कि वो हर साल 50 मिलियन से ज्‍यादा परीक्षाएं आयोजित करवाती है.


हमारे योग से दुनिया के कई देशों की आर्थिक सेहत में आ रहा निखार, आखिर कितना बड़ा है बाजार?

2014 में संयुक्त राष्ट्र ने भारत की पहल पर 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया था. तब से हर साल मनाया जाता आ रहा है. इस साल के लिए योग दिवस की थीम 'योगा फॉर सेल्फ एंड सोसाइटी' है.

Last Modified:
Friday, 21 June, 2024
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योग (Yoga) दुनिया को भारत की देन है. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाले योग को लोग बड़े पैमाने पर अपना रहे हैं. केवल भारत ही नहीं अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, जर्मनी और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में इसने पिछले कुछ सालों में ज़बरदस्त लोकप्रियता हासिल की है. आज यानी 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (International Yoga Day 2024) के मौके पर दुनिया के कई देशों के लोग योग करते नजर आए. योग के प्रति लोगों के लगातार बढ़ते रुझान ने इसे एक इंडस्ट्री में तब्दील कर दिया है और सेहत को दुरुस्त रखने वाला योग अब देश की इकॉनमी को स्वस्थ रहने का भी काम कर रहा है. 

रोजी-रोटी का जरिया योग
हर साल 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के तौर पर मनाया जाता है. आज से करीब 10 साल पहले 2014 में संयुक्त राष्ट्र ने भारत की पहल पर 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया था. तब से इसे लगातार अलग-अलग थीम पर योग दिवस सेलिब्रेट किया जाता आ रहा है. इस साल यानी 2024 के लिए योग दिवस की थीम 'योगा फॉर सेल्फ एंड सोसाइटी' है. योग आज सैकड़ों लोगों की रोजी-रोटी का जरिया बन गया है. इसमें एक सामान्य योग ट्रेनर से लेकर योग का सामान बनाने वालीं बड़ी-बड़ी कंपनियां तक शामिल हैं.

इतना है ग्लोबल मार्केट  
इन 10 सालों में योग न केवल भारत बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा बाजार बन गया है, जिसके आने वाले सालों में बेहद तेजी से बढ़ने की संभावना है. यह कहना गलत नहीं होगा कि योग न केवल बीमारियों से दूर रखने में मदद कर रहा है, बल्कि अर्थव्यवस्था को धक्का लगाने में भी अहम भूमिका निभा रहा है. एक रिपोर्ट बताती है कि योग का ग्लोबल मार्केट साइज करीब 115.43 अरब डॉलर का है. इसमें यदि कपड़े, मैट आदि योग से जुड़े समान को जोड़ दिया जाए तो ये आंकड़ा 140 अरब डॉलर तक पहुंच जाता है. वहीं, 2025 तक इसके तेजी से बढ़ते हुए 215 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है.

भारत में इतनी बड़ी है इंडस्ट्री  
योग दुनिया को भारत की देन है, लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में ये ज्यादा लोकप्रिय हो गया है. हालांकि, भारत में भी इसके प्रति रुचि में इजाफा हुआ है, लेकिन दूसरे देशों के मुकाबले गति अभी भी धीमी है. भारत में योग इंडस्ट्री का आकार करीब 80 अरब डॉलर का है. कोरोना महामारी के बाद इसमें 154% तक की ग्रोथ दर्ज की गई है. वहीं, देश की योग क्लासेस की इंडस्ट्री का रिवेन्यु साइज लगभग 2.6 अरब डॉलर का है.  वेलनेस सर्विसेज, जिसके तहत योग स्टूडियो आदि आते हैं, की इस बाजार में 40% हिस्सेदारी है. मोदी सरकार भी योग दिवस को प्रमोट करने के लिए काफी खर्चा कर रही है. 2015 से 2019 तक अकेले भारतीय आयुष मंत्रालय ने योग दिवस पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों पर 137 करोड़ रुपए खर्च किए थे.

US में बढ़ रहे योग स्टूडियो   
अमेरिका की बात करें, तो वहां योग कारोबार के तौर पर तेजी से फलफूल रहा है. यूएस में यह 15 अरब डॉलर से अधिक का बाजार बन गया है और सालाना 9.8% की दर से बढ़ रहा है. योग की बदौलत यहां करीब डेढ़ लाख लोगों को रोजगार भी मिला हुआ है. अमेरिका में हर साल योग स्टूडियो की संख्या बढ़ रही है. 2018 में यूएस में 37569 योग स्टूडियो थे, 2019 में 40949, 2020 में 42105, 2021 में 45068, 2022 में 46912 और 2023 में ये संख्या बढ़कर 48547 हो गई. वहीं, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और चीन में भी योग का कारोबार तेजी से बढ़ रहा है.

मैट बेचकर हो रही कमाई
योग के लिए मैट बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होते हैं. खासतौर पर यूके और अमेरिका जैसे देशों में योग मैट इस्तेमाल करने वालों की संख्या काफी ज्यादा है. भारत में भी अब इसके खरीदारों की संख्या में इजाफा हो रहा है. मैट के बढ़ते चलन से इसे बनाने वाली कंपनियों की चांदी हो गई है. एक रिपोर्ट के अनुसार, योग मैट सबसे ज्यादा जर्मनी, US और चीन में बनते हैं. अब Nike और Reboke जैसी दिग्गज कंपनियां भी योग मैट को बेच रही हैं. भारत में ज्यादातर योग मैट चीन से मंगाए जाते हैं. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो पहले अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के लिए चीन से 92 लाख रुपए के योग मैट आयात किए गए थे.


आपको परेशान करने वाली महंगाई, RBI और सरकार का भी छीन लेगी सुकून, समझें क्या है गणित

पिछले कुछ दिनों से महंगाई का मीटर तेजी से घूम रहा है, जो सबके लिए परेशानी वाली बात है.

Last Modified:
Tuesday, 18 June, 2024
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चुनावी मौसम बीतने के बाद महंगाई (Inflation) का मीटर चालू हो गया है. आलू-प्याज से लेकर दाल-आटा और चावल तक सबकुछ महंगा हो गया है. बीते दो हफ्तों में ही आटा, चावल, दाल, सरसों तेल, गुड़ और यहां तक कि नमक के दामों में इजाफा देखने को मिला है. परेशानी वाली बात यह है कि महंगाई का ये मीटर आने वाले दिनों में और तेजी से दौड़ सकता है. महंगाई की रफ्तार न थमने की मार आम जनता पर कई तरह से पड़ेगी. उदाहरण के तौर पर उसका रसोई का बजट बढ़ जाएगा. इसके साथ ही कर्ज सस्ता होने की आस भी टूट जाएगी. 

EMI कम तो नहीं बढ़ जाएगी?  
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) पिछले 8 बार से नीतिगत ब्याज दरों को यथावत रखता आ रहा है. हाल ही में हुई RBI की मौद्रिक नीति समिति की बैठक में रेपो रेट को 6.5 प्रतिशत पर बरकरार रखने का फैसला लिया गया. हालांकि, यह माना जा रहा है कि MPC की अगली बैठक में रेपो रेट में कटौती का ऐलान किया जा सकता है. यानी कर्ज कुछ सस्ता हो सकता है. लेकिन महंगाई इस राह में फिर बाधा बनती नजर आ रही है. यदि महंगाई का पहिया इसी रफ्तार से घूमता रहा, तो रिजर्व बैंक कटौती की आस को तोड़ते हुए नीतिगत ब्याज दरों में इजाफे को मजबूर हो सकता है. यदि ऐसा हुआ, तो फिर आपकी EMI बढ़ने की आशंका भी जन्म ले लेगी.

FMCG उत्पाद भी हुए महंगे
महंगाई हर तरफ से बढ़ रही है. फल-सब्जी के साथ-साथ FMCG कंपनियों के उत्पाद भी महंगे हो गए हैं. बीते दो-तीन महीनों में इन कंपनियों ने फूड और पर्सनल केयर से जुड़े उत्पादों की कीमतों में 2 से 17% तक का इजाफा किया है. कंपनियां इसके पीछे कच्चे माल की कीमतों में बढ़ोतरी का तर्क दे रही हैं. एक रिपोर्ट की मानें तो FMCG कंपनियों ने साबुन-बॉडी वॉश जैसे प्रोडक्ट्स 2-9% महंगे कर दिए हैं. इसी तरह, हेयर ऑयल 8-11% और चुनिंदा फूड आइटम्स 3 से 17% तक महंगे मिल रहे हैं. इतना ही नहीं, ये कंपनियां चालू वित्त वर्ष 2024-25 में अपने उत्पादों के दाम औसतन 1% से 3% तक बढ़ा सकती हैं. यानी आने वाले दिन और भी मुश्किल भरे हो सकते हैं.

RBI को देना पड़ा था स्पष्टीकरण
बढ़ती महंगाई RBI के लिए भी मुश्किल पैदा कर सकती है. चढ़ते दामों के चलते ही उसे 2022-23 में शर्मसार होना पड़ा था. अब तक के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था कि RBI को महंगाई नियंत्रित न करने पाने के लिए सरकार को स्पष्टीकरण देना पड़ा. दरअसल, रिजर्व बैंक अधिनियम के तहत अगर महंगाई के लिए तय लक्ष्य को लगातार तीन तिमाहियों तक हासिल नहीं किया जाता, तो RBI को केंद्र सरकार के समक्ष स्पष्टीकरण देना होता है. उसे बताना होता है कि महंगाई नीचे नहीं आने के क्या कारण है और उसने अब तक क्या कदम उठाए हैं. मौद्रिक नीति रूपरेखा के 2016 में प्रभाव में आने के बाद से यह पहली बार था जब RBI को इस संबंध में केंद्र को रिपोर्ट भेजनी पड़ी.

क्या है RBI की जिम्मेदारी?
आरबीआई को केंद्र की तरफ से खुदरा महंगाई दो प्रतिशत घट-बढ़ के साथ चार प्रतिशत पर बनाए रखने की जिम्मेदारी मिली हुई है. इसी साल मई में खुदरा महंगाई दर 4.75 प्रतिशत दर्ज की गई. मार्च में यह 4.80% थी. जबकि पिछले साल अगस्त में यह 6.83 प्रतिशत थी. सितंबर 2023 के बाद से रिटेल इन्फ्लेशन में नरमी देखने को मिली है, लेकिन अब जिस तरह से लगभग सभी वस्तुओं के दाम बढ़ रहे हैं ये आंकड़ा भी तेजी से बढ़ सकता है. उस स्थिति में RBI महंगाई नियंत्रित करने के नाम पर नीतिगत ब्याज दर यानी रेपो रेट में इजाफा कर सकती है और बैंक इसक भार आम ग्राहकों पर डाल सकते हैं. यानी आपकी किचन के बजट के साथ-साथ EMI का गणित भी गड़बड़ा सकता है. वहीं, सरकार को भी इस मुद्दे पर तीखे सवालों का सामना करना होगा. मोदी सरकार सहयोगियों के कंधों पर सवार है और विपक्ष भी इस बार पहले से ज्यादा मजबूत है. ऐसे में सरकार पहले की तरह महंगाई से पल्ला नहीं झाड़ पाएगी. 

कर्ज और महंगाई का रिश्ता
महंगाई सीधे तौर पर डिमांड और सप्लाई के अंतर की वजह से चढ़ती है और इस अंतर की एक वजह है पर्चेजिंग पावर बढ़ना. यानी आपके हाथ में यदि ज्यादा पैसा होगा, तो आप खुलकर खर्च करेंगे. इस खर्च के चलते डिमांड बढ़ेगी और यदि सप्लाई पूरी नहीं हो पाई तो महंगाई बढ़ेगी. यहीं से RBI की जिम्मेदारी शुरू होती है. ऐसी स्थिति में RBI रेपो रेट बढ़ाकर यह कोशिश करता है कि आपके हाथ में अतिरिक्त पैसा न पहुंचे. जब ज्यादा पैसा नहीं होगा, तो आप ज्यादा खर्च नहीं करेंगे. न डिमांड बढ़ेगी और न मांग और आपूर्ति के बीच अंतर बढ़ेगा. इसे दूसरी तरह से भी समझते हैं. ब्याज दरें कम होने से बाजार में अतिरिक्त लिक्विडिटी बढ़ जाती है. कहने का मतलब है कि लोग बिना ज़रूरत के सामान खरीदने के लिए लोन आदि लेने लगते हैं. इससे डिमांड में एकदम से इजाफा होता है, सप्लाई सीमित होने की वजह यह महंगाई का रूप ले लेता है. रिजर्व बैंक के रेपो रेट बढ़ाने से बैंक कर्ज महंगा करेंगे, जिससे लिक्विडिटी या अतिरिक्त पैसा घटने लगेगा. ऐसे में लोग जो बिना जरूरत के सामान खरीदने लगते हैं, उनकी खरीदारी कम हो जाएगी और महंगाई पर लगाम लग जाएगी.

कारगर नहीं है रणनीति
RBI का मानना है कि बाजार से लिक्विडिटी कम करने से Artificial Demand को कंट्रोल करने में मदद मिलती है. इससे मांग घटती है, जो महंगाई को नियंत्रित करने का काम करती है. वैसे ये फ़ॉर्मूला केवल भारत ही नहीं अमेरिका जैसे देशों में भी अपनाया जाता है. हालांकि, ये बात अलग है कि कई एक्सपर्ट्स इसे ज्यादा कारगर नहीं मानते. उनका कहना है कि पैसे और महंगाई के बीच का ये रिश्ता ऐसा नहीं है, जिसे रेपो रेट में बदलाव से नियंत्रित किया जा सकता है. रिजर्व बैंक के इस तरह के फैसलों से महंगाई रोकने में खास सफलता नहीं मिली है. 

क्या होती है रेपो रेट?
रेपो रेट वह दर होती है जिस पर RBI बैंकों को कर्ज देता है. बैंक इस पैसे से कस्टमर्स को LOAN देते हैं. रेपो रेट बढ़ने का सीधा सा मतलब है कि बैंकों को मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाएगा और इसकी भरपाई वो ग्राहकों से करेंगे. इसीलिए कहा जाता है कि Repo Rate बढ़ने से होम लोन, वाहन लोन आदि की EMI ज्यादा हो सकती है. इसके उलट जब यह दर कम होती है तो बैंक से मिलने वाले कई तरह के कर्ज सस्ते होने की संभावना बढ़ जाती है.

क्या होती है रिवर्स रेपो रेट?
अब बात करते हैं रिवर्स रेपो रेट की. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह रेपो रेट से उलट है. रिवर्स रेपो रेट वो दर होती है जिस पर बैंकों को उनकी ओर से RBI में जमा धन पर ब्याज मिलता है. रिवर्स रेपो रेट मार्केट में कैश-फ्लो को नियंत्रित करने में काम आती है. दूसरे शब्दों में कहें तो बाजार में जब भी बहुत ज्यादा कैश दिखाई देता है, रिजर्व बैंक रिवर्स रेपो रेट बढ़ा देता है, ताकि बैंक ज्यादा ब्याज की चाह में अपना पैसा उसके पास जमा करें. बिल्कुल, वैसे ही जैसे आप अपना पैसा बैंक में रखते हैं.

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