RBI के अनुसार, बैंकों में 23 मई से 2000 रुपए के नोट बदले और जमा किए जा सकेंगे. लेकिन एक बार में सिर्फ 20,000 रुपए मूल्य के नोट ही बदले जाएंगे.
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने 2000 के नोट बंद करने का ऐलान किया है. शुक्रवार शाम की गई घोषणा को लेकर लोगों के मन में कई तरह के सवाल हैं. एक सवाल ये भी है कि क्या बैंक में 2000 के नोट जमा करने की भी कोई लिमिट या सीमा है? इसका जवाब RBI ने अपनी प्रेस रिलीज में दिया है. रिजर्व बैंक की तरफ से स्पष्ट किया गया है कि कोई भी व्यक्ति अपने बैंक खाते में जितने चाहे उतने दो हजार के नोट जमा करा सकता है. इसके लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है.
30 सितंबर के बाद क्या होगा?
RBI द्वारा जारी प्रेस रिलीज के पॉइंट नंबर 6 में स्पष्ट तौर पर बताया गया है कि 2000 के नोटों को बिना किसी रोक या प्रतिबंध के बैंकों में सामान्य तरीके से जमा किया जा सकता है. यानी आप जितने चाहे, उतने दो हजार के नोट अपने बैंक खाते में जमा करा सकते हैं. हालांकि, आपको KYC सहित अन्य जरूरतों को पूरा करना होगा. इन नोटों को 30 सितंबर तक जमा या बदला जा सकेगा. वैसे, आरबीआई ने ये साफ नहीं किया है कि इसके बाद इन नोटों का क्या होगा. संभावना है कि आरबीआई इस बारे में जल्द कोई नया दिशा-निर्देश जारी करे.
इसलिए किए गए बंद
RBI के अनुसार, बैंकों में 23 मई से 2000 रुपए के नोट बदले और जमा किए जा सकेंगे. लेकिन एक बार में सिर्फ 20,000 रुपए मूल्य के नोट ही बदले जाएंगे. नोट बदलने के लिए कोई अतिरिक्त शुल्क या फीस नहीं वसूली जाएगी. बता दें कि 2 हजार के नोट को RBI एक्ट 1934 के सेक्शन 24 (1) के तहत लाया गया था. पुराने 500 और 1000 के नोट बंद होने के बाद करेंसी संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए RBI ने 2000 का नोट जारी किया था. दरअसल, दो हजार के नोट को लाने का उद्देश्य अब खत्म हो गया है, क्योंकि दूसरे नोट पर्याप्त मात्रा में बाजार में हैं, इसलिए इसे बंद किया जा रहा है. RBI ने 2000 के बैंकनोट की प्रिंटिंग 2018-19 में बंद कर दी थी.
कालेधन पर चोट?
एक्सपर्ट्स का कहना है कि RBI के इस कदम का मकसद उच्च मूल्य वाले नोट पर निर्भरता को कम करना और डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने है. 2000 के आधे नोट पहले ही वित्तीय व्यवस्था से बाहर हो चुके हैं. उनका यह भी कहना है कि उच्च मूल्य वाले नोट का इस्तेमाल काला धन जमा करने में किए जाने संबंधी चिंताओं को ध्यान में रखते हुए भी ये कदम उठाया गया है. गौरतलब है कि मार्च, 2018 में 6.73 लाख करोड़ रुपए मूल्य के 2000 के नोट चलन में थे, लेकिन मार्च, 2023 में इनकी संख्या घटकर 3.62 लाख करोड़ रुपए रह गई.
ब्लॉकचेन टेक्नोलॉजी फाइनेंसिंग के नए स्त्रोतों को उपलब्ध करवाती है और साथ ही विश्वसनीय सप्लाई चेन का निर्माण भी करती है.
किसी भी चीज को ज्यादा टिकाऊ बनाने में टेक्नोलॉजी बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इसके साथ ही टेक्नोलॉजी ESG यानी इकॉनोमिक, सोशल और गवर्नेंस से संबंधित चुनौतियों का मुकाबला करने में भी काफी अनिवार्य भूमिका निभाती है. बढ़ती हुई जागरूकता के बावजूद भी बहुत सी संस्थाएं ऐसी हैं जो अभी पूरी तरह उन तरीकों का इस्तेमाल नहीं कर रही हैं जो पर्यावरण के अनुकूल हों. इसलिए अब एक नए फ्रेमवर्क को बनाना बहुत ही ज्यादा जरूरी है जिससे इस्तेमाल की जा रही टेक्नोलॉजी की क्षमता को बढ़ाया जा सके और एनालिटिक्स, AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और रिन्यूएबल एनर्जी के माध्यम से चीजों को ज्यादा टिकाऊ बनाया जा सके.
एमिशन मापने वाले उपकरणों का उठाएं फायदा
अपने नेट-जीरो कार्बन के लक्ष्य को बढ़ावा देते हुए कंपनियों को अपनी ग्रीनहाउस गैसों को मापना चाहिए और अपने ग्रीनहाउस गैस एमिशन्स को कम करना चाहिए. अब कंपनियां ऐसे उपकरणों का इस्तेमाल करती हैं जो उन्हें किसी प्रोजेक्ट से उत्पन्न होने वाले कार्बन उत्सर्जन और उसके प्रभाव को माप सकते हैं. ये उपकरण बिजनेस ट्रेवल, रिमोट वर्क, कम्यूटिंग, ऑफिस में इस्तेमाल होने वाली एनर्जी और डिजिटल डाटा या फिर डाटा सेंटर फुटप्रिंट के इस्तेमाल से किसी प्रोजेक्ट की एमिशन कम करने की क्षमता को मापते हैं. इसके साथ ही ये उपकरण प्रोजेक्ट की डिलीवरी से संबंधित कार्बन के प्रभाव की भी जांच करते हैं. इन उपकरणों के इस्तेमाल से कंपनियों को अपने काम करने के तरीके से संबंधित कार्बन के प्रभावों के बारे में पता चलता है और नेट-जीरो कार्बन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वह बेहतर फैसले ले सकती हैं.
ब्लॉकचेन सक्रिय करने वाली टिकाऊ टेक्नोलॉजी
ब्लॉकचेन टेक्नोलॉजी फाइनेंसिंग के नए स्त्रोतों को उपलब्ध करवाती है और साथ ही विश्वसनीय सप्लाई चेन का निर्माण भी करती है. ब्लॉकचेन का लक्ष्य इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट की कीमतों को कम करना, लिक्विडिटी में बढ़ोत्तरी करना, पारदर्शिता बेहतर करना और फाइनेंस तक पहुंच बढ़ाना होता है. इसके साथ ही यह टेक्नोलॉजी, नए मार्केट मॉडल्स के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध करवाने, संस्थाओं को प्रोत्साहित करने और लॉन्ग-टर्म में चीजों को टिकाऊ बनाने में कंज्यूमर्स के योगदान जैसी चीजों के लिए ट्रांजेक्शन के रूप में भी काम करती है.
ग्रीन हाइड्रोजन की अहम भूमिका
हालांकि वैकल्पिक और कम कार्बन वाले फ्यूल के तौर पर ग्रीन हाइड्रोजन काफी प्रसिद्ध है लेकिन बड़े स्तर पर अपनाए जाने और उपयोग करने के लिए इसे AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस), ML (मशीन लर्निंग), IoT (इन्टरनेट ऑफ थिंग्स) और डिजिटल ट्विन्स जैसी तकनीकों की जरूरत है. प्रगतिशील सोल्यूशंस के विकास के लिए संसाधन और विशेषता प्रदान करने, इंडस्ट्री पार्टनर्स के साथ सहयोग करने और पॉलिसी सपोर्ट के लिए वकील प्रदान करने में टेक्नोलॉजी काफी अहम भूमिका निभाती है. इसीलिए ग्रीन हाइड्रोजन टेक्नोलॉजी की रिसर्च और डेवलपमेंट में इन्वेस्ट करना ही काफी महत्त्वपूर्ण है.
टिकाऊ IT इंफ्रास्ट्रक्चर
जैसे-जैसे पर्यावरणीय नियम सख्त हो रहे हैं और टिकाऊ बिल्डिंग्स, इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रोडक्ट्स और सर्विसेज की मांग में बढ़ोत्तरी देखने को मिल रही है, वैसे-वैसे कंपनियां खुद को असमंजस की स्थिति में पा रही हैं. कंपनियों को इन उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए अपने काम करने के तरीके में बदलाव करना होगा. इस वक्त सभी कंज्यूमर्स चाहते हैं कि कंपनियां अपने बिजनेस के लक्ष्यों को ESG की चुनौतियों के साथ मिला लें और यहीं कंपनी के ब्रैंड इमेज को बेहतर बनाने और कर्मचारी की वफादारी प्राप्त करने के लिए टिकाऊ IT (इन्फोर्मेशन एंड टेक्नोलॉजी) सोल्यूशंस का उपयोग किया जा सकता है. टिकाऊ IT के अपने फाइनेंशियल फायदे भी हैं.
इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत
आज कंपनियों के पास टेक्नोलॉजी की ताकत प्राप्त करके ESG की चुनौतियों से निपटने के लिए भरपूर मौके उपलब्ध हैं. डाटा एनालिटिक्स का इस्तेमाल करके, टिकाऊ IT इंफ्रास्ट्रक्चर को डिजाईन करके और पर्यावरण के अनुकूल रणनीतियों को लागू करके विभिन्न बिजनेस क्लाइंट्स, इन्वेस्टर्स और रेगुलेटर्स की मांगों को पूरा कर सकते हैं. पर्यावरण के अनुकूल नतीजे डिलीवर करने के लिए IT की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है. संस्थाओं को इस बात का बहुत ज्यादा ध्यान रखना चाहिए कि ये तकीनकी एडवांसमेंट्स लॉन्ग टर्म में उनके बिजनेस के लक्ष्यों के साथ किस तरह काम में आ सकती हैं. एक टिकाऊ भविष्य के लिए यह समझना बहुत ही ज्यादा जरूरी है कि स्थिरता एक चुनौती है और यह किसी एक संस्था से बड़ी है. इसके साथ ही टेक कंपनियों, क्लाइंट्स, और विभिन्न क्षेत्रों के बीच सामंजस्य भी बेहद जरूरी है.
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क्या अब सरकारें हर बार सत्ता बदलने पर एक अलग ‘सेंगोल’ स्थापित करेंगी? यह भी अपने आप में एक बहुत ही दिलचस्प कहानी होगी.
Dr SS Mantha, Former Chairman AICTE
तमिल का ‘सेंगोल’ जिसे अंग्रेजी में Sceptre या फिर Staff भी कहा जाता है, पिछले कुछ समय से खबरों में बना हुआ है और आने वाले समय में भी यह चर्चा का विषय बना रहेगा क्योंकि यह सत्ता, संप्रभुता और न्याय का प्रतीक है. दुनिया भर में मौजूद बहुत सी संसदों में एक औपचारिक छड़ी मौजूद होती है जिसे संसदीय सत्रों के दौरान सत्ता के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. संसद में मौजूद यह छड़ी, विधायिका की शक्ति को दर्शाती है और अक्सर इसे स्पीकर या फिर पीठासीन अधिकारी के सामने ही रखा जाता है. अब सवाल उठता है कि ‘सेंगोल’ की स्थापना होने पर आखिर इतनी ज्यादा चीख-पुकार क्यों मची हुई है? क्या यह लोकतंत्र की ताकत को नहीं दर्शाता? क्या यह सालों पहले खत्म हो चुकी तानशाही का डर है या फिर ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि शायद लोगों को लगता है कि ‘सेंगोल’ की स्थापना से इतिहास बदल जाएगा या नया इतिहास लिखा जाएगा.
इस वक्त ही क्यों मशहूर हुआ ‘सेंगोल’?
‘सेंगोल’ ने अचानक आम आदमी का ध्यान तब खींचा है जब रूलिंग पार्टी के द्वारा इसे सम्मान दिया गया, इसकी प्रशंसा की गयी और इसे सत्ता हस्तांतरण के चिन्ह के रूप में अपना लिया गया. इतिहास और पौराणिक कथाओं के अनुसार बहुत सी संस्कृतियों में राजदंड को सत्ता के चिन्ह, नेतृत्व और अलौकिक सत्ता के रूप में सम्मान दिया जाता रहा है. वह ऐसी बहुत सी आकर्षक कहानियां सुनाते हैं जो उनके समय के राजदंडों की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक प्रसंगों से जुड़ी हुई हैं. इतिहास को गौर से देखने पर पता चलता है कि क्यों हमारे ‘सेंगोल’ को उसकी उचित जगह और सम्मान मिलना चाहिए.
ब्रिटिश शासन से मिस्त्र की कहानियों तक
ब्रिटिश शासक के पास भी एक औपचारिक राजदंड है जिसे ‘Sceptre With The Cross’ कहा जाता है और इसे पारंपरिक तौर पर राज्याभिषेक के दौरान ही इस्तेमाल किया जाता है. यह ब्रिटेन के ताज से जुडी ज्वेलरी में से एक है और यह शासक की लौकिक सत्ता का प्रतीक माना जाता है. इसके अलावा आयरिश पौराणिक कथाओं में भी सोने के राजदंड के बारे में पढ़ने को मिलता है और यह Bolg लोगों द्वारा आयरलैंड लाया गया था. इसकी कथित जादुई शक्तियों की मदद से ही आयरिश राजाओं ने अपने लिए अधिकारों और वैधता की मांग की थी. इसी तरह मिस्त्र की पौराणिक कहानियों में अनूबिस, मृतकों के देवता, और पुनर्जन्म के देवता Osiris को भी राजदंडों के साथ दिखाया गया है, जो एक लम्बी छड़ी होती है और इस पर किसी न किसी जानवर का सिर लगा हुआ होता था. यह राजदंड अलौकिक सत्ता और सुरक्षा के प्रतीक के रूप में जाने जाते थे.
ग्रीक से लेकर जापान तक
पौराणिक ग्रीक कथाओं में सुनने को मिलता है कि दवाओं और उपचार के देवता Asclepius के पास भी एक राजदंड हुआ करता था जिसपर घुमावदार तरीके से सांप लिपटा हुआ था. इसके साथ ही ग्रीक कथाओं में भगवानों के राजा Zeus को भी एक राजदंड पकड़े दिखाया जाता है. इस राजदंड के ऊपरी तरफ चील है जो Zeus की परम सत्ता और भगवानों और मनुष्यों के ऊपर उनके प्रभुत्व को दर्शाता है. पुराने मिस्त्र में फैरो के पास एक औपचारिक राजदंड हुआ करता था जिसे ‘Heqa’ कहा जाता था और यह साम्राज्य के ऊपर उनकी सत्ता को दर्शाता था. रोमन कैथलिक चर्च के पोप के पास भी एक औपचारिक राजदंड होता है जिसे ‘Papal Ferula’ या ‘Papal Cross’ के नाम से जाना जाता है. यह राजदंड पोप की आध्यात्मिक सत्ता और चर्च के प्रमुख के रूप में उनकी भूमिका को दर्शाता है. जापान में सम्राट के पास एक राजदंड होता है जिसे ‘Shaku’ या ‘Sceptre of Chrysanthemum’ कहा जाता है. यह जापान के तीन पवित्र खजानों में से एक है और यह जापान के साम्राज्यवाद और वैधता को दर्शाता है.
मंगोलों से लेकर यूनिवर्सिटीज तक
सिर्फ इतना ही नहीं, चंगेज खान और बाद के खानों समेत मंगोल शासकों के पास भी एक छड़ी हुआ करती थी जिसे वह ‘Noyan’ या ‘Sceptre Of Authority’ कहते थे. इससे मंगोल साम्राज्य पर उनके नेतृत्व और नियंत्रण का पता चलता था. पुराने मेसोपोटामिया में Uruk के राज्य के प्रमुख पुजारी के पास एक राजदंड हुआ करता था जिसे ‘Mace Of Anu’ कहा जाता था और यह उनकी धार्मिक सत्ता और भगवान् से उनके जुड़ाव को दर्शाता था. भारतीय इतिहास में राष्ट्रकूट, पाल, चोल, मुगल, अहोम, मराठा, विजयनगर और बहमनी जैसे विभिन्न साम्राज्यों और राजवंशों के पास अपने-अपने राजदंड हुआ करते थे जो शाही सत्ता और संप्रभुता को दर्शाते थे. हिन्दू शास्त्रों और पौराणिक कथाओं में भी ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिलते हैं. मृत्यु और न्याय के देवता ‘यम’ को भी अक्सर एक छड़ी पकड़े दर्शाया जाता है जिसे ‘दंड’ कहा जाता है. यह छड़ी न्याय के देवता के रूप में उनकी भूमिका को प्रदर्शित करती है. साथ ही, हर यूनिवर्सिटी के जुलूस में भी एक राजदंड देखने को मिलता है जिसे रजिस्ट्रार या परीक्षा नियंत्रक के पास देखा जा सकता है.
सिर्फ प्रतीक है सेंगोल?
हो सकता है कि ‘सेंगोल’ सिर्फ एक प्रतीक हो लेकिन प्रतीकों में इतनी शक्ति होती है कि वह लोगों को प्रेरणा दे सकते हैं, उन्हें बदल सकते हैं, ठीक कर सकते हैं और अनिश्चितताओं के समय पर उन्हें बेहतर क्लैरिटी प्रदान कर सकते हैं. प्रतीक सिर्फ ऊपरी प्रतिनिधित्व के बारे में नहीं होते बल्कि इनसे, ज्यादा गहरी सच्चाई का पता चलता है और यह लोगों को ज्यादा जागरूक होने के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरणा देते हैं. कोई भी व्यक्ति यह सवाल पूछ सकता है कि टेक्नोलॉजी से चलने वाली दुनिया में प्रतीकों और चिन्हों पर विश्वास करने की क्या जरूरत है? गार्डन में खड़ा बांज या बलूत का पेड़ ताकत, स्थिरता और लचीलेपन को दर्शाता है. इसकी जड़ें जमीन में बहुत गहरे तक उतर जाती हैं और इनकी बदौलत यह जमीन पर आराम से खड़ा रहता है और इसकी टहनियां आसमान की तरफ बढ़ती जाती हैं. इस पेड़ से हमें सबक मिलता है कि हमें अपने लक्ष्य आसमान जितने ऊंचे जरूर तय कर लेने चाहिए लेकिन हमारी जड़ें जमीन से जुड़ी रहनी चाहिए. यही प्रतीकवाद है. अगर एक जर्जर वातावरण में भी गुलाब की एक कली मिलती है तो आस-पास के खराब वातावरण के बावजूद खूबसूरती और जीवनशक्ति का प्रसार होता है और इससे लचीलेपन और उम्मीद के बारे में पता चलता है.
हर बार बदलेगा ‘सेंगोल’?
हर संस्कृति द्वारा बहुत सी चीजों को कभी-कभी अनोखे प्रतीकवाद और महत्त्व के साथ भर दिया जाता है और इनसे ही उन संस्कृतियों के विभिन्न विश्वासों और उनके शासन के बारे में पता चलता है. फिर भी यह बहुत ही आकर्षक बात है कि अपनी खोज के बावजूद भी यह सभी सत्ता और वैधता को दर्शाते हैं और कभी-कभी इनके साथ प्रतीकवाद की बहुत ही आकर्षक कहानियां भी जुड़ी हुई होती हैं. साथ ही अब एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या अब सरकारें हर बार सत्ता बदलने पर एक अलग ‘सेंगोल’ स्थापित करेंगी? यह भी अपने आप में एक बहुत ही दिलचस्प कहानी होगी.
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एनर्जी खपत करने के मामले में भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर है और यह भी माना जा रहा है कि आने वाले पांच सालों में इसमें जबरदस्त बढ़त देखने को मिलेगी.
भारत लगातार फॉसिल फ्यूल्स (Fossil Fuels) पर अपनी निर्भरता को खत्म करके रिन्यूएबल एनर्जी की तरफ बदलाव करना चाहता है और भारत के इसी सफर की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है ग्रीन हाइड्रोजन (Green Hydrogen). राष्ट्रीय ग्रीन हाइड्रोजन मिशन के अनुसार साल 2030 तक भारत प्रतिवर्ष 5 मिलियन मेट्रिक टन ग्रीन हाइड्रोजन बनाने की क्षमता तक पहुंचना चाहता है.
क्या होता है ग्रीन हाइड्रोजन?
एनर्जी खपत करने के मामले में भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर है और साथ ही यह भी माना जा रहा है कि आने वाले पांच सालों में भारत की एनर्जी खपत में जबरदस्त बढ़त देखने को मिलेगी. हाइड्रोजन एक यूनिवर्सल फ्यूल है जो बहुत ही हल्का तो होता है लेकिन साथ ही यह बहुत ही रिएक्टिव भी होता है. Electrolysis की प्रक्रिया के माध्यम से एक इलेक्ट्रिकल करंट का प्रयोग करके पानी में ही हाइड्रोजन को ऑक्सीजन से अलग कर दिया जाता है. क्योंकि इस प्रक्रिया में रिन्यूएबल संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है इसलिए इस प्रक्रिया से जो बिजली पैदा होती है उससे वातावरण में कार्बन का उत्सर्जन नहीं होता और इसीलिए इसे ग्रीन हाइड्रोजन का नाम दिया जाता है.
क्या है ग्रीन हाइड्रोजन का फायदा?
अगर ऐसा हो जाता है तो देश को 125 गीगावाट की अतिरिक्त रिन्यूएबल एनर्जी मिलेगी जिससे भारत अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करके ‘नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन’ के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है. मान लीजिये साल 2030 तक भारत ग्रीन हाइड्रोजन प्रोजेक्ट्स में लगभग 8 लाख करोड़ रुपये की इन्वेस्टमेंट करने के बारे में विचार कर रहा है. अब आप सोचेंगे ऐसा क्यों? नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन की मानें तो हाइड्रोजन का इस्तेमाल रिन्यूएबल एनर्जी को लंबे समय तक स्टोर करने, इंडस्ट्री में फॉसिल फ्यूल्स को रिप्लेस करने, एक साफ और बेहतर ट्रांसपोर्टेशन और संभावित तौर पर पावर जनरेट करने, और एविएशन में इस्तेमाल कर सकते हैं.
गुजरात सरकार ने की पहल
इसके साथ ही ग्रीन हाइड्रोजन से आम आदमी के लिए रोजगार के मौके भी पैदा होंगे. इसके साथ ही ग्रीन हाइड्रोजन के इस्तेमाल से लोगों की जिंदगियां भी बेहतर होंगी. इतना ही नहीं भारत दुनिया भर में ग्रीन हाइड्रोजन एक्सपोर्ट करने वाला सबसे बड़ा देश भी बन सकता है. हाल ही में गुजरात सरकार ने एक पॉलिसी की घोषणा की थी जिसमें उसने कहा था कि बेकार पड़ी सरकारी जमीनों को ऐसी कंपनियों को सौंप दिया जाएगा जो रिन्यूएबल एनर्जी के इस्तेमाल से ग्रीन हाइड्रोजन बनाना चाहती हैं. इतना ही नहीं इन कंपनियों को हवा, सोलर और हवा-सोलर हाइब्रिड रिन्यूएबल एनर्जी प्रोजेक्ट्स की तरह ही सभी फायदे भी प्रदान किये जायेंगे.
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शिक्षा मंत्रालय की मानें तो विदेश जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या में साल 2022 के दौरान 68% की वृद्धि देखने को मिली है.
आजादी के बाद भारत के पास फॉरेन एक्सचेंजों की संख्या बहुत ही सीमित थी लेकिन लिबरलाइजेशन के बाद सब कुछ बदल गया. भारत ने ग्लोबल मार्केट में अपनी मौजूदगी को मजबूत किया और इकॉनमी की वृद्धि के लिए पूरी दुनिया में कैपिटल का फ्लो बहुत ही जरूरी हो गया. इसे देखते हुए भारत के केंद्रीय बैंक RBI (रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया) ने LRS (लिबरलाइज्ड रेमिटेंस स्कीम) की शुरुआत की. LRS एक ऐसी स्कीम है जो भारत में रह रहे लोगों को देश से बाहर पैसे भेजने की मंजूरी देती है. इस स्कीम की मदद से आप बिना RBI की मंजूरी लिए ही एक वित्त वर्ष के दौरान 2,50,000 डॉलर्स यानी लगभग 2 करोड़ रुपये देश से बाहर भेज सकते हैं. इस स्कीम के तहत पैसे भेजने के लिए आपको बस दो शर्तों को पूरा करना होता है. पहली ये कि आपके द्वारा की जा रही ट्रांजेक्शन इस स्कीम के अनुसार मान्य होनी चाहिए और दूसरी ये कि ट्रान्सफर किये जा रही रकम, स्कीम में बताई गयी सीमा को पार न कर रही हो.
कौन सी ट्रांजेक्शन्स को मिली है मंजूरी?
LRS में मान्य ट्रांजेक्शन्स कुछ इस प्रकार से हैं: विदेशी विश्वविद्यालयों में उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को भेजे जा रहे पैसे, विदेश में चल रहे इलाज के लिए भेजे जा रहे पैसे, देश से बाहर रहने वाले रिश्तेदारों की देख रेख के लिए भेजे जा रहे पैसे, विदेशी सिक्योरिटीज में इन्वेस्ट करने के लिए भेजे जा रहे पैसे, प्रवास, विदेशों में नौकरी की खोज के लिए जा रहे व्यक्तियों को भेजे जाने वाले पैसे. वहीं दूसरी तरफ कुछ ट्रांजेक्शन्स ऐसी भी हैं जिन्हें इस स्कीम में मंजूरी नहीं दी जाती है. लॉटरी टिकट खरीदने के लिए भेजे जाने वाले पैसों, भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी करेंसी में जारी किये गए कनवर्टिबल बॉन्ड्स को खरीदने के लिए भेजे जाने वाले पैसों और विदेशी एक्सचेंजों में ट्रेडिंग के लिए भेजे जाने वाले पैसों की ट्रांजेक्शन्स को इस स्कीम के तहत मंजूरी नहीं दी जाती.
बढ़ रही है विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या
विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले छात्रों की संख्या में हर साल बढ़त देखने को मिल रही है. शिक्षा मंत्रालय की मानें तो विदेश जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या में साल 2022 के दौरान 68% की वृद्धि देखने को मिली है. आपको बता दें कि 2022 में लगभग 7,50,365 छात्रों ने विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए उड़ान भरी थी. यह पिछले 6 सालों के दौरान विदेश जाने वाले छात्रों की सबसे अधिक संख्या है. साल 2021 में यह संख्या 4,44,553 हुआ करती थी और 2022 में इसमें बहुत ही बड़ा उछाल देखने को मिला है.
विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाने वाले छात्रों की संख्या लगातार बढ़ रही है. LRS इन छात्रों के माता-पिता को विदेशों में पैसे भेजने की अनुमति देता है और साथ ही विदेशी सिक्योरिटीज में इन्वेस्ट करने का मौका भी देता है. RBI द्वारा जारी की गयी एक रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ था कि साल 2019-20 के दौरान विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को उनके माता-पिता के द्वारा 4,991 मिलियन डॉलर्स यानी लगभग 4 अरब रुपये भेजे गए थे. कोविड के दौरान साल 2020-21 में यह आंकड़ा कम होकर 3,836 मिलियन डॉलर्स पर पहुंच गया था लेकिन कोविड के बाद साल 2021-22 के दौरान इस आंकड़े में फिर से बढ़त देखने को मिली जिसके बाद यह 5,165 मिलियन डॉलर्स पर पहुंच गया था. पिछले दशक के दौरान विदेश में पढ़ रहे छात्रों की शिक्षा के खर्च को कवर करने के माता-पिटा द्वारा भेजे जाने वाले पैसों में बहुत ही तेजी से उछाल देखने को मिला है. साल 2011-12 में यह संख्या सिर्फ 114 मिलियन डॉलर्स हुआ करती थी.
LRS के फायदे
शिक्षा पर होने वाले खर्च में ट्यूशन फीस और दूसरे देश में रहने और खाने का खर्चा भी शामिल है. इस बात को ध्यान रखें कि LRS में मान्य 2,50,000 डॉलर्स की राशि में सब कुछ इकट्ठा ही है और इसमें पढने और रहने का खर्चा अलग-अलग नहीं है. हालांकि अगर छात्र चाहे तो वह 2,50,000 डॉलर्स से ज्यादा की रकम भी मंगवा सकता है लेकिन उसके लिए पहले छात्र को यूनिवर्सिटी की ट्यूशन फीस रिसीप्ट को जरूरी कागजात के तौर पर दिखाना होगा. LRS का एक अन्य जरूरी पहलू, विदेश में पढ़ रहे छात्रों के लिए विदेशी सिक्योरिटीज में किया जाने वाला इन्वेस्टमेंट है. माता-पिता अमेरिकी मार्केट में इन्वेस्ट करके डॉलर्स में बचत कर सकते हैं ताकि आने वाले भविष्य में वह अपने बच्चे की ट्यूशन फीस प्रदान कर सकें. विदेशों में बचत करने से उन्हें बहुत ही ज्यादा फायदा होगा क्योंकि पैसे ट्रान्सफर करने के वक्त पर करेंसी बदलने की वजह से उन्हें अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा गंवाना पड़ता है और अगर वह भारतीय रुपये में बचत करते हैं तो उन्हें इस समस्या का सामना करना ही पड़ेगा.
इन बातों का रखें विशेष ध्यान
RBI (रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया) से प्राप्त हुआ डाटा दिखाता है कि पिछले कुछ समय के दौरान भारतीय पैरेंट्स द्वारा LRS के अंतर्गत विदेशों में इन्वेस्ट किये जाने वाले पैसे में वृद्धि देखने को मिली है. इक्विटी और डेब्ट में किया जाने वाला इन्वेस्टमेंट 2021-22 में 747 मिलियन डॉलर्स पर पहुंच गया जबकि साल 2020-21 में यह मात्र 472 मिलियन डॉलर्स हुआ करता था. इतना ही नहीं, साल 2014-15 में भारतीय लोगों ने लगभग 195 मिलियन डॉलर्स इन्वेस्ट किये थे. आपको इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि 2,50,000 डॉलर्स से ज्यादा की रकम के आदान प्रदान के लिए आपको RBI की मंजूरी लेनी पड़ती है. इसके साथ ही यह भी ध्यान रखें कि एक व्यक्ति को भारत से बाहर पैसे भेजने के लिए PAN कार्ड की जरूरत पड़ती है.
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सूडान में दो सबसे शक्तिशाली जनरलों के बीच सत्ता की लड़ाई चल रही है. इस गृहयुद्ध में अब तक सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं.
अफ्रीकी देश सूडान (Sudan) गृहयुद्ध का सामना कर रहा है. यहां सेना और अर्धसैनिक बल RSF के बीच सत्ता पर काबिज होने को लेकर जंग चल रही है. हालांकि, फिलहाल दोनों पक्षों के बीच संघर्षविराम की सहमति बन गई है. संघर्षविराम 4 मई से 11 मई तक चलेगा. इसके बाद क्या होगा, कोई नहीं जानता. सत्ता की इस लड़ाई में सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं. भारत सरकार ने सूडान में फंसे अपने लोगों को ऑपरेशन चलाकर निकाला है. इस गृहयुद्ध ने दुनिया भर के लोगों की प्यास बुझाने वालीं कोल्ड ड्रिंक्स कंपनियों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं.
गम अरेबिक की सप्लाई बाधित
दरअसल, सूडान के संघर्ष से सप्लाई चेन में बाधा पहुंच रही है. सूडान गम अरेबिक (Gum Arabic) का सबसे बड़ा उत्पादक और सप्लायर है, जिसका इस्तेमाल कोल्ड ड्रिंक बनाने में होता है. सॉफ्ट ड्रिंक्स के अलावा, ये गम सोडा, कैंडी, मेकअप प्रोडक्ट्स का भी मेन इंग्रेडिएंट है. यानी इसके बिना उत्पाद बनाना बेहद मुश्किल हो जाएगा और बन भी गए तो सॉफ्ट ड्रिंक्स आदि में वो टेस्ट नहीं रहेगा जिसके लिए उनकी पहचान है. गम अरेबिक की 70% से अधिक सप्लाई सूडान करता है, जिसके गृहयुद्ध की स्थिति में प्रभावित होना लाजमी है.
इस पेड़ से निकलती है गम
सूडान के जंगलों में अकेसिया ट्री (Acacia Tree) नामक पेड़ बड़ी संख्या में पाए जाते हैं. इन्हीं पेड़ों से ये गम या गोंद निकलती है. इस गम का इस्तेमाल च्वीइंग गम बनाने में भी होता है. यानी इस गोंद पर कई कंपनियां निर्भर हैं. वैसे तो नाइजीरिया, माली, सेनेगल आदि में भी इसके पेड़ मौजूद हैं, लेकिन संख्या सबसे ज्यादा सूडान में हैं. इसलिए कोल्ड ड्रिंक से लेकर सोडा, कैंडी, मेकअप प्रोडक्ट्स और च्वीइंग गम बनाने वाली कंपनियां परेशान हैं. वैसे, तो कंपनियां गम अरेबिक को स्टॉक करके रखती हैं, लेकिन कुछ महीनों से ज्यादा का स्टॉक भरना उनके लिए भी आसान नहीं होता. सूडान में जिस तरह के हालात हैं उसे देखकर लगता नहीं है कि स्थिति जल्द सामान्य होगी. बस यही बात पेप्सी और कोक जैसी कंपनियों को परेशान किए हुए है.
प्रोडक्शन हो सकता है प्रभावित
इस बार मौसम ने कई रंग दिखाए हैं, अप्रैल में बारिश हुई है और गर्मी थोड़ी पीछे खिसक गई है. लेकिन अब अच्छी-खासी गर्मी पड़ने की संभावना है और सॉफ्ट ड्रिंक कंपनियां बिक्री बढ़ने की उम्मीद कर रही हैं. ऐसे में यदि गम अरेबिक की पर्याप्त नहीं हो पाती, तो उनका प्रोडक्शन प्रभावित होगा और बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा. इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि Coke और Pepsi जैसी कंपनियां दाम बढ़ाने को मजबूर हो जाएं. प्रोडक्शन कम और डिमांड ज्यादा, ऐसी स्थिति में कीमतें बढ़ाना ही एकमात्र उपाय रह जाता है.
गो फर्स्ट भारत की पांचवीं सबसे बड़ी एयरलाइन है. कंपनी धीरे-धीरे विस्तार की रणनीति पर आगे बढ़ रही थी. 2020 तक उसकी आर्थिक सेहत लगातार ठीक बनी हुई थी.
जेट एयरवेज जहां फिर से आसमान में उड़ान भरने की तैयारियों में लगी है. वहीं, वाडिया समूह (Wadia Group) के स्वामित्व वाली गो फर्स्ट (Go First) एयरलाइन बर्बादी की कगार पर पहुंच गई है. कंपनी ने नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) में वॉलेंटरी इनसॉल्वेंसी प्रॉसीडिंग के लिए एप्लिकेशन दी है. Go First का कहना है कि उसके पास न पैसा और न विमान उड़ाने के लिए तेल. लिहाजा, वो ऑपरेशन जारी रखने की स्थिति में नहीं है. एक्सपर्ट्स मानते हैं कि जेट एयरवेज का वापसी के लिए संघर्ष और Go First की आर्थिक बदहाली निवेशकों को एविएशन सेक्टर में निवेश करने से रोक सकती है.
बर्बादी के ये हैं कारण
Go First बजट एयरलाइन है और सस्ते में हवाई सफर कराने के लिए फेमस रही है. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि कंपनी आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरी. Go First की बर्बादी के कई कारण हैं, मसलन एविएशन सेक्टर में प्रतियोगिता काफी ज्यादा बढ़ गई है. राकेश झुनझुनवाला की एयरलाइन 'Akasa Air' की एंट्री ने सबको प्रभावित किया है. Akasa भी बजट एयरलाइन है, ऐसे में उसने सस्ते एयर टिकट देने वाली कंपनियों के बाजार को सबसे ज्यादा प्रभावित किया. इसके अलावा, Go First अपनी पूरी विमान क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर पा रही थी, जिससे उसके घाटे का ग्राफ बढ़ता गया.
50% विमान ही उड़ सके
वाडिया समूह (Wadia Group) के स्वामित्व वाली गो फर्स्ट का भी मानना है कि पूरी विमान क्षमता इस्तेमाल नहीं कर पाने से उसकी मुश्किलें बढ़ती गईं और वह गंभीर वित्तीय संकट में फंस गई. कंपनी इसके लिए अमेरिकी इंजन कंपनी को भी कुसूरवार मानती है. दरअसल, प्रैट एंड व्हिटनी विमानों के इंजन बनाती है और इस मामले में दुनिया की लीडिंग कंपनी है. गो फर्स्ट का कहना है कि अमेरिकी फर्म ने ऑर्डर के मुताबिक इंजन नहीं दिए, जिसके चलते उसके बेड़े के 50% विमानों का परिचालन ठप रहा. यानी वो उड़ान भरने की स्थिति में नहीं रहे. अब ज्यादा विमान उड़ेंगे ही नहीं, तो कमाई कैसे होगी.
कंपनी का आरोप
GO First का आरोप है कि Pratt & Whitney’s International Aero Engines यानी P&W की तरफ से सप्लाई लगातार प्रभावित रही. उसे 27 अप्रैल, 2023 तक कम से कम 10 स्पेयर लीज्ड इंजन और 10 अतिरिक्त इंजन देने को कहा गया था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. इतना ही नहीं. उसकी ओर से भेजे जा रहे इंजनों के विफल होने की संख्या बढ़ती रही. नतीजतन उड़ानें बंद करनी पड़ीं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, गो फर्स्ट के बेड़े में लगभग 90% प्रैट एंड व्हिटनी के इंजन वाले A320 नियो विमान हैं. स्पेयर पार्ट्स की अनुपलब्धता और P&W की ओर से रेट्रो फिटेड इंजनों की आपूर्ति में देरी के कारण कई विमानों को सेवा से बाहर करना पड़ा था.
बिगड़ती गई स्थिति
गो फर्स्ट भारत की पांचवीं सबसे बड़ी एयरलाइन है. कंपनी धीरे-धीरे विस्तार की रणनीति पर आगे बढ़ रही थी. 2020 तक उसकी आर्थिक सेहत लगातार ठीक बनी हुई थी. लेकिन कोरोना संकट और प्रैट एंड व्हिटनी से इंजनों की आपूर्ति समय पर नहीं मिलने के चलते उसकी सेहत खराब होती गई. गो फर्स्ट को बकाया राशि का भुगतान नहीं करने के चलते लीज पर लिए गए विमानों को वापस करना पड़ा. कंपनी की बिगड़ती स्थिति को देखते हुए ईंधन कंपनियों ने उसे कैश एंड कैरी वाले वर्ग में रख दिया. जिसका मतलब है हर दिन उड़ान के लिए ईंधन का भुगतान, जो कंपनी के लिए मुमकिन नहीं था. वैसे, प्रमोटर कंपनी वाडिया समूह ने एयरलाइन में लगातार पैसा लगाया. एक रिपोर्ट के मुताबिक, समूह ने करीब 6500 करोड़ रुपए का निवेश किया, लेकिन संचालन ठप होने की वजह से स्थिति लगातार बिगड़ती गई और एयरलाइन को दिवालिया प्रक्रिया के लिए आवेदन करना पड़ा.
दरअसल एक आपत्तिजनक विडियो में कंपनी की ब्रैंडिंग दिखाई गयी थी और इसे कंपनी की ऐड के तौर पर आगे बढ़ा दिया गया था.
कैडबरी (Cadbury) ने जिस तरह से Bournvita विवाद को संभाला है उसके बाद यह तो बहुत अच्छे से साफ हो गया है कि आपको किसी भी समस्या को कैसे नहीं संभालना होता है. लोगों की राय से लेकर बाकी सबकुछ भी कंपनी के खिलाफ जाता नजर आ रहा है. इस मामले में हाल ही में एक नया ट्विस्ट देखने को मिला है. NCPCR (National Commission For Protection Of Child Rights) ने ब्रैंड से अपने भ्रामक ऐड्स को हटाकर एक डिटेल्ड रिपोर्ट सबमिट करने को कहा है.
इन ब्रैंड्स को भी हुई है परेशानी
Bournvita का संकट सोशल मीडिया से शुरू हुआ था. हाल ही में बैग बनाने वाली VIP इंडस्ट्रीज का ब्रैंड Skybags, बॉयकॉट गैंग का शिकार बन गया. दरअसल एक आपत्तिजनक विडियो में कंपनी की ब्रैंडिंग दिखाई गयी थी और इसे कंपनी की ऐड के तौर पर आगे बढ़ा दिया गया था. इसके बाद कंपनी को एक आधिकारिक बयान जारी करना पड़ा और इससे भी इन्टरनेट पर गुस्साए लोगों को कुछ खास तसल्ली नहीं मिली. इतना ही नहीं, Anheuser-Busch द्वारा ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट Dylan Mulvaney को अपने एक सोशल मीडिया कैंपेन में शामिल किया था जिसके बाद कंपनी के ब्रैंड Bud Light को संकट का सामना करना पड़ा था और अभी भी यह संकट पूरी तरह खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है.
बॉयकॉट का संकट
कंपनी समाधान के तौर पर एक दूसरी ऐड भी लेकर आई ताकि वह इस विवाद से खुद को दूर कर सके लेकिन तब तक कंपनी को काफी ज्यादा नुक्सान हो चुका था. इस ऐड की वजह से कंपनी को अपनी मार्केटिंग वाईस प्रेजिडेंट Alissa Heinerscheid को छुट्टी पर भेजना पड़ा. 2019 से लेकर अभी तक कई ब्रैंड्स को धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने और अपनी टारगेट ऑडियंस को न समझ पाने जैसे कारणों की वजह से कई बार बॉयकॉट का शिकार बनना पड़ा. हालांकि कुछ ब्रैंड्स इस बॉयकॉट संकट से सफलतापूर्वक बाहर आ गए हैं लेकिन बहुत से ब्रैंड्स से ऐसे भी हैं जिनकी किस्मत इतनी अच्छी नहीं थी.
कंपनियों को करने चाहिए ये बदलाव
सोशल मीडिया के इस दौर में ब्रैंड्स को क्राइसिस मैनेजमेंट के खर्चे को बढ़ाना होगा और ऐसी रणनीतियां बनानी होंगी जो ऐसे विवादों से उन्हें बचा सकें जिनकी बदौलत कंपनियों को नुकसान उठाना पड़ता है. लेकिन पिछले कुछ समय में कंपनियों को बॉयकॉट करने की मांग में इतनी ज्यादा वृद्धि देखने को मिली है कि अब लगता है कि बॉयकॉट के इस संकट से निपटने के लिए कंपनियों को अपनी रणनीतियों में बदलाव कर लेना चाहिए. और क्या पता, शायद कुछ पुरानी सीखों को भुलाना भी पड़े? इसीलिए हमने इंडस्ट्री पर ध्यान देने वाले एक्सपर्ट्स से बात की और यह जानने की कोशिश की कि क्या सच में इस वक्त ब्रैंड्स को सोशल मीडिया ड्रिल की जरुरत है?
कस्टमर्स की भावनाएं
DENTSU CREATIVE इंडिया में अकाउंट मैनेजमेंट की वाईस प्रेजिडेंट उपासना नैथानी का मानना है कि इस वक्त ब्रैंड्स के लिए एक सोशल मीडिया ड्रिल बहुत जरूरी है. उन्होंने कहा – सोशल मीडिया एक बहुत ही डायनामिक जगह है. हालांकि हम ऐसे संभावित खतरों की एक लिस्ट तैयार कर सकते हैं जिनका सामना किसी ब्रैंड को सोशल मीडिया पर करना पड़ सकता है लेकिन हम कभी भी सुनिश्चित तौर ये नहीं बता सकते कि ये खतरे क्या हैं और इनकी शुरुआत कहां से होती है? कस्टमर्स की भावनाओं को समझने की जरूरत कि महत्ता को समझाते हुए उपासना नैथानी ने कहा – अगर किसी के चहेते ब्रैंड को सोशल मीडिया पर टारगेट किया जाता है तो ऐसे वक्त पर कस्टमर्स की भावनाएं मुख्य रूप से देखने को मिलती हैं. ब्रैंड्स को अपने कस्टमर्स की भावनाओं में इन्वेस्ट करना चाहिए और किसी भी तरह की रणनीति बनाते हुए कंपनी को इनका ध्यान रखना चाहिए.
बार बार करनी होंगी ड्रिल्स
Infectious Advertising के चीफ डिजिटल ऑफिसर राशिद अहमद ने मॉक ड्रिल्स की बात करते हुए कहा कि एक सोशल और PR क्राइसिस मैनेजमेंट प्लान का फायदा तब तक नहीं है जब तक इन प्लान्स को लागू करने वाले लोग पूरी तरह से तैयार न हों. बार-बार विभिन्न संकटों को कवर करने वाली मॉक ड्रिल्स करने से जवाब में तेजी के साथ-साथ जवाब देने का सही तरीका भी सामने आएगा. ऐसी ड्रिल्स बार बार करनी चाहिए और साथ ही अगर क्राइसिस मैनेजमेंट टीम में से किसी व्यक्ति को बदला जाता है या जोड़ा जाता है तो भी ऐसी ड्रिल्स बार करनी चाहिए. सोशल पंगा की डिजिटल स्ट्रेटेजी की डायरेक्टर सुनीता नटराजन की राय इस बारे में कुछ और है. उनका मानना है कि ब्रैंड्स को अपनी टीमों को एक दुसरे से जोड़ना चाहिए और उनकी सोच को एक सामान लेवल पर लेकर आना चाहिए.
मॉक ड्रिल में है ये परेशानी
सुनीता नटराजन कहती हैं - मुझे लगता है कि सोशल मीडिया क्राइसिस ड्रिल करने की बजाय कस्टमर्स की भावनाओं को बेहतर तरीके से समझने के लिए ज्यादा से ज्यादा रेगुलर वर्कशॉप करनी चाहिए और वह ज्यादा बेहतर है. सुनीता नटराजन जोर देते हुए कहती हैं कि कॉर्पोरेट, PR, और सोशल टीमों के लिए ब्रैंड की साख बढाने के लिए आपस में एक दुसरे का सहयोग करना चाहिए. क्योंकि अक्सर एक कंपनी में बड़ी-बड़ी टीमें, स्टेकहोल्डर्स और एजेंसियां शामिल होती हैं इसलिए एक सोशल मीडिया ड्रिल में इन्हें शामिल करना काफी थकाऊ और झंझट भरा काम हो सकता है.
(यह खबर Exchange4Media द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट पर आधारित है.)
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निसाबा, गोदरेज ग्रुप के चेयरमैन Adi Godrej की बेटी हैं. उन्होंने 2017 में कंपनी की जिम्मेदारी संभाली थी.
रेमंड (Raymond) और गोदरेज (Godrej) समूह में हाल ही में एक बड़ी डील हुई है. इस डील के तहत रेमंड के कामसूत्र, KS और पार्क एवेन्यू जैसे ब्रैंड गोदरेज कंज्यूमर प्रोडक्ट्स (Godrej Consumer Products) का हिस्सा बन गए हैं. सीधे शब्दों में कहें तो रेमंड ने अपना FMCG बिजनेस गोदरेज को बेच दिया है. 2825 करोड़ रुपए की इस डील से गोदरेज कंज्यूमर का पोर्टफोलियो मजबूत होगा. गोदरेज कंज्यूमर प्रोडक्ट्स (GCPL) की कमान निसाबा गोदरेज (Nisaba Godrej) संभाल रही हैं.
2017 में संभाली थी कमान
निसाबा, गोदरेज ग्रुप के चेयरमैन Adi Godrej की बेटी हैं. उन्होंने 2017 में गोदरेज कंज्यूमर प्रोडक्ट्स लिमिटेड (GCPL) की जिम्मेदारी संभाली थी, तब से अब तक वह कंपनी को नई ऊंचाई पर ले आई हैं. गोदरेज कंज्यूमर FMCG सेक्टर में अपनी उपस्थिति को मजबूत करना चाहती है और रेमंड से डील करके उसने इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है. डियोडरेंट और सेक्सुअल वेलनेस कैटेगरी में जबरदस्त डिमांड वाले रेमंड के प्रोडक्ट्स अब उसकी झोली में है, जिसका फायदा अब गोदरेज को मिलेगा. रेमंड के साथ डील फाइनल करने में निसाबा की अहम भूमिका रही है.
कंपनी को किया मजबूत
अपने पिता से गोदरेज कंज्यूमर की कमान लेने के बाद निसाबा ने कंपनी में कई बदलाव किए और उसके प्रॉफिट को बढ़ाया. वह तेजी से एक बिजनेस टाइकून के रूप में उभर रही हैं. Forbes के अनुसार, निसाबा ने जब GCPL की चेयरमैन की कुर्सी संभाली, उस समय कंपनी का सालाना रिवेन्यु 1.6 बिलियन डॉलर (लगभग 9,600 करोड़ रुपए) था, जो अब बढ़कर 42,500 करोड़ रुपए हो गया है. निसाबा का जन्म 1978 में हुआ था. शुरुआती पढ़ाई मुंबई में करने के बाद उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिलवेनिया से BSC और फिर हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से MBA की डिग्री हासिल की.
1200 करोड़ की संपत्ति
Adi Godrej की बेटी निसाबा ने 2013 में Tribeca Developers के फाउंडर कल्पेश मेहता से शादी की थी. साल 2008 में उनकी Godrej Agrovet बोर्ड में एंट्री हुई और 2017 में उन्होंने गोदरेज कंज्यूमर प्रोडक्ट्स (GCPL) की कमान संभाली. उनकी दौलत की बात करें, तो एक रिपोर्ट बताती है कि निसाबा की नेटवर्थ 1200 करोड़ रुपए है और उन्हें बतौर सैलरी 1.70 करोड़ मिलते हैं. निसाबा के पास गोदरेज की 4 कंपनियों में शेयर हैं. निसाबा का पूरा ध्यान कंपनी के प्रॉफिट को बढ़ाने पर है. इसके लिए उन्होंने प्रोडक्ट लाइन को व्यापक बनाने दूसरे ब्रैंड का अधिग्रहण जैसे कई कदम उठाए हैं.
कर्मचारियों का भी ख्याल
कंपनी की आर्थिक सेहत सुधारने के साथ ही निसाबा कर्मचारियों का ख्याल रखने में भी आगे हैं. उन्होंने वर्कप्लेस को महिलाओं के अनुकूल बनाने की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किए हैं. कंपनी वर्क फ्रॉम होम और कामकाजी समय में लचीलेपन जैसे विकल्प तो कर्मचारियों को देती ही है, साथ ही उसने कमबैक करने वाली महिलाओं की सहायता की नीति भी बनाई है. निसाबा गोदरेज ग्रुप की CSR एक्टिविटी की कमान भी संभालती हैं. जानकार मानते हैं कि रेमंड के साथ डील का फायदा निसाबा को अपने लक्ष्य प्राप्त करने में जरूर मिलेगा.
फ्रांसीसी कंपनी पर्नो रिका के लिए भारत एक प्रमुख बाजार है, क्योंकि यहां कंपनी की 17% बाजार हिस्सेदारी है.
यदि आप शराब (Liquor) का सेवन करते हैं, तो शीवाज रीगल (Chivas Regal) और ब्लेंडर्स प्राइड (Blenders Pride) का नाम जरूर सुना होगा. ये मशहूर व्हिस्की ब्रैंड हैं, जिसके चाहने वालों की लंबी-चौड़ी फौज. फिलहाल ये ब्रैंड एक अलग ही वजह से चर्चा में हैं और वो है दिल्ली सरकार से विवाद. बात इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि मामला अदालत की चौखट तक जा पहुंचा है. इन सबके चलते दिल्ली में शीवाज रीगल और ब्लेंडर्स प्राइड के चाहने वाले परेशान हैं, क्योंकि दुकानों पर उनका फेवरेट ब्रैंड उपलब्ध नहीं है.
फ्रांसीसी कंपनी का है ब्रैंड
दिल्लीवालों को इस गर्मी में बीयर की किल्लत का सामना पहले से ही करना पड़ रहा है और अब शीवाज रीगल एवं ब्लेंडर्स प्राइड भी दुकानों से आउट हो गई हैं. इसकी वजह है शीवाज रीगल बनाने वाली फ्रांसीसी कंपनी पर्नो रिका (Pernod Ricard) को लाइसेंस नहीं मिलना. दरअसल, दिल्ली प्रशासन ने कंपनी के खिलाफ जांच का हवाला देते हुए उसका लाइसेंस रिन्यू करने से इनकार कर दिया है. जिसके चलते कंपनी अपने प्रोडक्ट्स की बिक्री दिल्ली में नहीं कर पा रही है. अब कंपनी इसके खिलाफ अदालत चली गई है.
आरोप नहीं हुए हैं सिद्ध
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, पर्नो रिका ने दिल्ली हाई कोर्ट से मामले में दखल देने का अनुरोध किया है. कंपनी का कहना है कि दिल्ली के अधिकारी आपराधिक आरोपों का हवाला देते हुए उसे शराब बिक्री का लाइसेंस नहीं दे रहे हैं, जबकि अभी तक कोई भी आरोप सिद्ध नहीं हुआ है. बिना आरोप सिद्ध हुए किसी को दोषी कैसे करार दिया जा सकता है?
कंपनी ने दिया ये तर्क
पर्नो रिका ने तर्क दिया है कि केवल इसलिए कि कुछ आरोप लगाए गए हैं, हमें अपराधी की तरह नहीं देखा जा सकता या हमें एक आपराधिक पृष्ठभूमि वाला नहीं समझा जा सकता. हमारे ऊपर लगाए गए आरोप अभी सिद्ध नहीं हुए हैं. कंपनी ने कहा कि लाइसेंस नहीं मिलने से उसे काफी नुकसान हो रहा है. पिछले 6 महीने से दिल्ली में उसका कोई भी ब्रैंड उपलब्ध नहीं है. बता दें कि पर्नो रिका पर अधिकारियों को गलत सूचना देकर अवैध रूप से मुनाफा कमाने का आरोप लगा है. इसके अलावा, कंपनी पर ये आरोप भी है कि उसने रिटेलर्स को उसके ब्रैंड्स का ज्यादा स्टॉक रखने के बदले में पैसे दिए थे. हालांकि, कंपनी ने इससे इनकार किया है.
भारत है प्रमुख बाजार
ये फ्रांसीसी कंपनी पिछले 20 सालों से भारत में मौजूद है. कंपनी को शराब लाइसेंस राज्यों द्वारा दिया जाता है और इसे हर साल रिन्यू कराना पड़ता है. पर्नो रिका के लिए भारत एक प्रमुख बाजार है, क्योंकि यहां कंपनी की 17% बाजार हिस्सेदारी है. भारत में उसकी कुल कमाई में दिल्ली का काफी योगदान होता है, लिहाजा राजधानी में बिक्री न कर पाने के चलते कंपनी को तगड़ा नुकसान उठाना पड़ रहा है. इसलिए कंपनी चाहती है कि कोर्ट इस मामले में दखल दे.
अडानी समूह को जयपुर इंटरनेशनल एयरपोर्ट का भी ठेका मिला है. समूह 50 सालों तक इस एयरपोर्ट का रखरखाव और संचालन करेगा.
सोशल मीडिया पर आजकल एक सवाल तेजी से पूछा जा रहा है - जब गरीब के आटे पर GST, तो अडानी को एयरपोर्ट सौंपने पर क्यों नहीं? दरअसल, अरबपति गौतम अडानी (Gautam Adani) की कंपनी को कई हवाईअड्डों के ठेके मिले हैं, इसमें जयपुर का अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा भी शामिल है. हाल ही में खबर आई थी कि इस एयरपोर्ट का ऑपरेशन अपने हाथों में लेने के लिए अडानी समूह को कोई GST यानी गुड्स एंड सर्विस टैक्स का भुगतान नहीं करना होगा. बस इसी को लेकर सोशल मीडिया पर सवालों के झड़ी लगी हुई है. बता दें कि विपक्ष लंबे समय से आरोप लगता आ रहा है कि मोदी सरकार अडानी समूह को फायदा पहुंचाने की नीतियों पर काम कर रही है.
50 साल की लीज मिली
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मोदी सरकार ने जयपुर एयरपोर्ट अडानी ग्रुप को 50 साल की लीज पर दिया है. जिसका मतलब है कि 50 सालों तक अडानी समूह इस एयरपोर्ट का रखरखाव और संचालन करेगा. समूह को कुछ समय पहले देश के 6 एयरपोर्ट विकसित करने और चलाने के लिए मिले थे. अडानी ग्रुप ने 2021 में एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (AAI) से जयपुर हवाईअड्डे के संचालन और प्रबंधन का काम अपने हाथ में लिया था. इस पर AAI ने अथॉरिटी ऑफ एडवांस रूलिंग (AAR) से पूछा था कि इस डील पर GST लागू होगी या नहीं? आपको बता दें कि AAR एक इंडिपेंडेंट बॉडी होती है, जो टैक्स से जुड़े मामलों में फैसला देती है.
गोइंग कन्सर्न से फायदा
20 मार्च 2023 को अथॉरिटी ऑफ एडवांस रूलिंग ने बताया कि इस डील पर कोई GST नहीं लगेगा. AAR की तरफ से कहा गया कि एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया और अडानी समूह के बीच गोइंग कन्सर्न (Going Concern) के तहत डील हुई है. इस तरह की डील पर जीएसटी लागू नहीं होता. मतलब कि अडानी ग्रुप को किसी तरह की GST का भुगतान नहीं करना है. जब से यह खबर सामने आई है, सोशल मीडिया पर लोग सवाल कर रहे हैं. आम आदमी पार्टी के फाउंडर मेंबर राम गुप्ता ने ट्वीट कर कहा है - गरीबों के आटे पर GST, लेकिन जयपुर एयरपोर्ट ट्रांसफर पर कोई GST नहीं. कारण? मित्र #अडानी, जाने क्या कशिश है अडानी में...??'
क्या है गोइंग कन्सर्न?
अब यह भी जान लेते हैं कि आखिर गोइंग कन्सर्न क्या होता है. एक्सपर्ट्स के अनुसार, गोइंग कन्सर्न का अर्थ है किसी रनिंग बिजनेस को पूरी तरह दूसरे व्यक्ति के हाथों में सौंप देना. उदाहरण के तौर पर, यदि किसी चलती हुई दुकान को दूसरे व्यक्ति को बेचा जाता है, तो उस पर GST लागू नहीं होगा. इसके उलट, यदि कोई बंद दुकान बेची जाती है, तो उस पर GST का भुगतान करना होता है. दरअसल, चलते हुए बिजनेस को बेचने को सप्लाई नहीं माना जाता. इसलिए अडानी ग्रुप की इस डील को गोइंग कन्सर्न माना गया है. जीएसटी कानून में इस व्यवस्था को परिभाषित किया गया है. उसमें लिखा गया है कि इस प्रकार के बिजनेस ट्रांसफर टैक्स छूट नोटिफिकेशन की एंट्री नंबर-2 के तहत आते हैं, जिस पर जीएसटी लागू नहीं है.